वो युवाओं से कहते हैं कि तुम लोग मुझे अपने ज़माने का एहसास कराते हो. वो भले ही टोपी के नीचे अपने सफ़ेद बाल छुपाते हों लेकिन युवाओं को देखकर युवा बन जाते हैं.
वो युवाओं से जानना चाहते हैं कि आजकल चल क्या रहा है, आज का युवा कैसी हवा को हवा दे रहा है, कौन-कौन सी गालियां मार्केट में नयी आई हैं.
पियूष मिश्रा वो शख्स हैं जिनके आने पर जाते हुए लोग रुक गए, अनुराग कश्यप अपने सेशन के बाद गए नहीं उन्हें सुनने के लिए रुक गए. मैं हैरान थी कि पियूष मिश्रा को सुनूं या लोगों की तालियों को. यकीन कीजिए, एक मस्त इंसान, जो अपनी बातों से लोगों को हंसाता है, और अपने लफ़्ज़ों और आवाज़ की जुगलबंदी से आग लगता है. उनके साथ स्वानंद किरकिरे भी थे जिन्होंने अपनी गायकी से दर्शकों का मन लगाए रखा.
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पियूष जी बहुत सरल बोलते है, संकोच नहीं करते, शब्दों का चयन भी नहीं करते, जो मुंह में आता है कह देते हैं. उनकी मानें तो साहित्य भी यही है. साहित्य बोल चाल की भाषा है. साहित्य वही है जिससे कम्युनिकेशन होना चाहिए.
साहित्य आजतक में अपने शेर सुनाते पियुष मिश्रा |
वो अपनी बातों में इतने सहज हैं कि इतनी पब्लिक के सामने वो शब्द भी इतने आराम से बोल गए कि लोग दाएं बाएं देखने लगे, कि यार इतना बड़ा आदमी 'टट्टी' कैसे बोल सकता है.
कहते हैं लिखना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन बिना वजह लिखते चले जाना...
वो युवाओं से कहते हैं कि तुम लोग मुझे अपने ज़माने का एहसास कराते हो. वो भले ही टोपी के नीचे अपने सफ़ेद बाल छुपाते हों लेकिन युवाओं को देखकर युवा बन जाते हैं.
वो युवाओं से जानना चाहते हैं कि आजकल चल क्या रहा है, आज का युवा कैसी हवा को हवा दे रहा है, कौन-कौन सी गालियां मार्केट में नयी आई हैं.
पियूष मिश्रा वो शख्स हैं जिनके आने पर जाते हुए लोग रुक गए, अनुराग कश्यप अपने सेशन के बाद गए नहीं उन्हें सुनने के लिए रुक गए. मैं हैरान थी कि पियूष मिश्रा को सुनूं या लोगों की तालियों को. यकीन कीजिए, एक मस्त इंसान, जो अपनी बातों से लोगों को हंसाता है, और अपने लफ़्ज़ों और आवाज़ की जुगलबंदी से आग लगता है. उनके साथ स्वानंद किरकिरे भी थे जिन्होंने अपनी गायकी से दर्शकों का मन लगाए रखा.
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पियूष जी बहुत सरल बोलते है, संकोच नहीं करते, शब्दों का चयन भी नहीं करते, जो मुंह में आता है कह देते हैं. उनकी मानें तो साहित्य भी यही है. साहित्य बोल चाल की भाषा है. साहित्य वही है जिससे कम्युनिकेशन होना चाहिए.
साहित्य आजतक में अपने शेर सुनाते पियुष मिश्रा |
वो अपनी बातों में इतने सहज हैं कि इतनी पब्लिक के सामने वो शब्द भी इतने आराम से बोल गए कि लोग दाएं बाएं देखने लगे, कि यार इतना बड़ा आदमी 'टट्टी' कैसे बोल सकता है.
कहते हैं लिखना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन बिना वजह लिखते चले जाना खासी बुरी बात है, तो ज्ञान की बात कह दी जनाब ने कि लिखने की वजह भी होनी चाहिए.
और आज पता लगा कि मैंने प्यार किया फिल्म पियूष जी को ऑफर की गई थी, पर उन्होंने इस बारे में कुछ भी नहीं कहा, क्योंकि सलमान खान से पंगा नहीं लेना चाहते. खैर बात मज़ाक की है, और अपनी कविताओं और गानों के बीच वो किस्से कहानियों के तड़के लगाते रहे.
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हम ज़बरदस्ती अपनी भाषा को क्लिष्ट बनाते हैं. राजू हीरानी की फिल्में लोगों को पसंद इसलिए आती हैं क्योंकि हर वर्ग उससे जुड़ जाता है. उनकी आवाज़ हर वर्ग तक पहुंचती है.
पियूष जी बार-बार बता रहे थे कि वो अब बदल गए हैं, सुधर गए हैं, पहले रिबेल थे, गुस्सेबाज़ थे, पीते थे, पर अब नहीं पीते, लेकिन शायरी में जज़्बात पहले की तरह ही दिखाई देते हैं. वो भले ही बदल गए हो पर हम नहीं चाहते की वो ज़रा भी बदलें.
किसको न मुहब्बत हो जाए इनकी बंदिशों से, अर्ज़ किया है...
"वो काम भला क्या काम हुआ, जिस काम का बोझा सर पे हो,
वो इश्क़ भला इश्क़ हुआ, जिस इश्क़ का चर्चा घर पे हो"
वहीं स्वानंद किरकिरे का भाषा पर कहना था कि लोग अपने कपड़े तो बदल लेते हैं लेकिन अपनी भाषा के कपड़े नहीं बदलते, भाषा को पुराने लिबास में ही रखते हैं. भाषा ज़माने के हिसाब से होनी चाहिए. उनका ये भी कहना था कि वो गानों में शब्दों का चुनाव नहीं करते, जो सुनते हैं वही गीतों में पिरो देते हैं.
स्वानंद किरकिरे की एक बहुत लोकप्रिय कविता
आज का दिन भले ही साहित्य का रहा हो, लेकिन आज का दिन पियूष मिश्रा का रहा, फैन फॉलोविंग जबर्दस्त. परफॉरमेंस ज़बरदस्त. वो अगर रात तक अपना हारमोनियम लेकर गाते रहते तो यकीन मानें लोग वहीं बैठे उन्हें सुनते रहते. बहुत से नग्मे गाए और आखीर में 'हुस्ना' न हो तो महफ़िल अधूरी ही रह जाती.
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