नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा करेंसी बैन को जहां सरकार द्वारा सुधारों की दिशा में एक बहुत बड़ा और क्रन्तिकारी कदम बताया जा रहा है तो वहीं विपक्षी दल सरकार के इस कदम को गरीब दलित विरोधी बता रही है, विपक्ष अब सरकार से इस फैसले को वापस लेने की मांग पर भी अड़े हैं. अर्थशास्त्री भी सरकार के इस फैसले पर दो खेमों में बंटे नजर आ रहे हैं. कुल मिलाकर आज लगभग दस दिन बीत जाने के बाद भी लोगों में सरकार के इस कदम के परिणाम को लेकर तस्वीर बहुत साफ नहीं है.
हालांकि भारत ऐसा पहला देश नहीं जहां पहली बार करेंसी को लेकर इस तरह के प्रयोग किये गए हों, भारत से पहले कुछ देशों ने करेंसी सुधार के लिए कदम उठाये हैं. जहां कुछ देशों ने इन सुधारों के बाद काफी हद तक अपेक्षाकृत परिणाम मिले, वहीं ज्यादातर देश इस प्रयास में विफल हो गए.
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कालेधन से निपटने के लिए कई देशों में करंसी बदलाव किए गए |
1. ब्रिटेन
ब्रिटेन में 1971 से पहले पौंड, शेलिंग और पेन्स का चलन था, 1971 में सरकार ने करेंसी को एकरूपता में लाने के इरादे से इन पहले से चलन में करेंसी को बंद कर 5 और 10 पैसे के नए सिक्के लाकर उन्हें पूरी तरह बदल दिया, हालांकि सरकार ने इन बदलाव से पहले दो सालों तक जनता को इसके बारे में बताती रही थी. ब्रिटैन सरकार ने काफी बेहतर तरीके से इन बदलाव को लाने में...
नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा करेंसी बैन को जहां सरकार द्वारा सुधारों की दिशा में एक बहुत बड़ा और क्रन्तिकारी कदम बताया जा रहा है तो वहीं विपक्षी दल सरकार के इस कदम को गरीब दलित विरोधी बता रही है, विपक्ष अब सरकार से इस फैसले को वापस लेने की मांग पर भी अड़े हैं. अर्थशास्त्री भी सरकार के इस फैसले पर दो खेमों में बंटे नजर आ रहे हैं. कुल मिलाकर आज लगभग दस दिन बीत जाने के बाद भी लोगों में सरकार के इस कदम के परिणाम को लेकर तस्वीर बहुत साफ नहीं है.
हालांकि भारत ऐसा पहला देश नहीं जहां पहली बार करेंसी को लेकर इस तरह के प्रयोग किये गए हों, भारत से पहले कुछ देशों ने करेंसी सुधार के लिए कदम उठाये हैं. जहां कुछ देशों ने इन सुधारों के बाद काफी हद तक अपेक्षाकृत परिणाम मिले, वहीं ज्यादातर देश इस प्रयास में विफल हो गए.
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कालेधन से निपटने के लिए कई देशों में करंसी बदलाव किए गए |
1. ब्रिटेन
ब्रिटेन में 1971 से पहले पौंड, शेलिंग और पेन्स का चलन था, 1971 में सरकार ने करेंसी को एकरूपता में लाने के इरादे से इन पहले से चलन में करेंसी को बंद कर 5 और 10 पैसे के नए सिक्के लाकर उन्हें पूरी तरह बदल दिया, हालांकि सरकार ने इन बदलाव से पहले दो सालों तक जनता को इसके बारे में बताती रही थी. ब्रिटैन सरकार ने काफी बेहतर तरीके से इन बदलाव को लाने में सफल रही थी. ब्रिटेन को छोड़ बाकी कई देश अपने इस प्रयास में विफल रहे.
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2. सोवियत यूनियन
मिखाइल गोर्बाचेव सरकार ने साल 1991 में कालाधन को खत्म करने के इरादे से 50 और 100 रूबल के नोटों को बैन कर दिया था सरकार का अनुमान था कि उसके इस कदम से कालेधन में कमी आएगी और लोगों को सहूलियत होगी. हालांकि सरकार कि यह मंशा कामयाब नहीं हो सकी इसके उलट लोगों का सरकार के प्रति संदेह का नजरिया विकसित हो गया और इसी कारण गोर्बाचेव सरकार को तख्तापलट के प्रयास का भी सामना करना पड़ा.
3. नार्थ कोरिया
साल 2010 में तानाशाह शासक किम जोंग-II ने ब्लैक मार्केटिंग में कमी लाने और अर्थव्यवस्था को और बेहतर करने के इरादे से करेंसी के प्रारूप में कुछ बदलाव किए, हालांकि किम जोंग के इस फैसले का उल्टा असर वहां की अर्थव्यवस्था पर देखने को मिला, जरुरी चीजों के दाम में काफी वृद्धि हो गयी जिसका असर यह रहा की लोगों में गुस्से का माहौल दिखने लगा. नतीजन किम जोंग ने वहां के वित्त मंत्री को मार कर फैसले के लिए माफी मांगी.
4. कांगो
तानाशाह मोबुतु सेसे सको ने 1990 के दौर में अर्थव्यस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए नोटों के प्रारूप में कुछ बदलाव किए, हालांकि इन बदलाव का कोई बेहतर असर वहां की अर्थव्यवस्था पर नहीं दिख सका इसके उलट महंगाई बढ़ी और शेयर बाजारों में काफी गिरावट देखने को मिली.
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5. म्यांमार
1987 में मिलिट्री सरकार ने भारी नोटबंदी करवाई. सोच वही थी- काला-बाज़ारी और काले धन पर रोक लगाना. देश में राजनितिक प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया और इसपर लगाम लगाने के चक्कर में हज़ारों लोगों की मौत हुई.
6. घाना
1982 में सरकार ने 50 कैडी का नोट बंद कर दिया. सरकार ने सोचा था कि टैक्स चोरी, धांधली और काला-बाज़ारी रोकने के लिए इस सख्त कदम की जरुरत है. लेकिन इस से लोगों का देश की अर्थनीति से भरोसा उठ गया और कुछ दिन बाद जब एक्सचेंज का समय खत्म हुआ तो सरेआम नोटों के बंडल पड़े हुए मिले.
7. नाइजीरिया
1984 में जब मुहम्मद बुहारी राष्ट्रपति थे तब उन्होंने देश की अर्थनीति की खस्ता हालत को देखते हुए नए डिजाइन और रंग की करेंसी को चालू किया. ये नोटबंदी अर्थनैतिक स्थिति तो नहीं सुधार पायी और बुहारी को सत्ता छोड़नी पढ़ी और काफी लंबे समय तक फिर वो सत्ता से बाहर ही रहे. उन्हें दोबारा देश का राष्ट्रपति बनने में 21 साल लग गए जब वो 2015 में फिर नाइजीरिया के राष्ट्रपति चुने गए.
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