देश की आर्थिक विकास दर 7 फीसदी को पार कर 7.6 फीसदी पर पहुंच गई है. पांच साल में पहला मौका है जब विकास दर सबसे ऊपर है, तो वहीं सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी 7.9 के स्तर पर पहुंच गई है. पहली नज़र में अर्थव्यवस्था के लिए ये एक अच्छा संकेत है. इससे आने वाले समय में उद्योग जगत को भी बल मिलेगा.
माना जाता है कि जब विकास दर पटरी पर हो तो वैश्विक निवेश आकर्षित करने और ढांचागत विकास में निवेश की संभावनाएं बढ़ जाती हैं क्योंकि हर किसी को उभरती हुई अर्थव्यवस्था लुभाती है और भारत जैसे देश पर निवेशकों की नजर पहले से ही टिकी हुई है.
सरकारें क्यों कहती हैं...देश बदल रहा है! |
तो क्या मान लें कि पीएम मोदी के नेतृत्व में दो साल से जो सरकार चल रही है वो सही पटरी पर है? क्या वाकई देश बदल रहा है? क्या लोगों के जीवन में खुशहाली आ रही है? ये अहम सवाल है, क्योंकि विकास का असल बैरोमीटर तो लोगों के जीवन स्तर में सुधार से ही नापा जा सकता है. लेकिन इस फ्रंट पर विकास के ये दावे खोखले साबित हो रहे हैं. क्योंकि एक तरफ जहां देश का अन्नदाता भूखे पेट सोने को मजबूर है वहीं दूसरी तरफ रोजगार के अभाव में देश का युवा वर्ग हताश और निराश है.
यह भी पढ़ें- 'किसान बाप' से क्यों ज्यादा दर्दनाक है 'किसान मां' की आत्महत्या
सवाल ये है कि आंकड़ों के अंकगणित में जब देश विकास कर रहा है तो देश का पेट भरने वाला किसान आखिर भूखा क्यों है? देश का युवा वर्ग निराश क्यों है? क्या नमो इन बातों को...
देश की आर्थिक विकास दर 7 फीसदी को पार कर 7.6 फीसदी पर पहुंच गई है. पांच साल में पहला मौका है जब विकास दर सबसे ऊपर है, तो वहीं सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी 7.9 के स्तर पर पहुंच गई है. पहली नज़र में अर्थव्यवस्था के लिए ये एक अच्छा संकेत है. इससे आने वाले समय में उद्योग जगत को भी बल मिलेगा.
माना जाता है कि जब विकास दर पटरी पर हो तो वैश्विक निवेश आकर्षित करने और ढांचागत विकास में निवेश की संभावनाएं बढ़ जाती हैं क्योंकि हर किसी को उभरती हुई अर्थव्यवस्था लुभाती है और भारत जैसे देश पर निवेशकों की नजर पहले से ही टिकी हुई है.
सरकारें क्यों कहती हैं...देश बदल रहा है! |
तो क्या मान लें कि पीएम मोदी के नेतृत्व में दो साल से जो सरकार चल रही है वो सही पटरी पर है? क्या वाकई देश बदल रहा है? क्या लोगों के जीवन में खुशहाली आ रही है? ये अहम सवाल है, क्योंकि विकास का असल बैरोमीटर तो लोगों के जीवन स्तर में सुधार से ही नापा जा सकता है. लेकिन इस फ्रंट पर विकास के ये दावे खोखले साबित हो रहे हैं. क्योंकि एक तरफ जहां देश का अन्नदाता भूखे पेट सोने को मजबूर है वहीं दूसरी तरफ रोजगार के अभाव में देश का युवा वर्ग हताश और निराश है.
यह भी पढ़ें- 'किसान बाप' से क्यों ज्यादा दर्दनाक है 'किसान मां' की आत्महत्या
सवाल ये है कि आंकड़ों के अंकगणित में जब देश विकास कर रहा है तो देश का पेट भरने वाला किसान आखिर भूखा क्यों है? देश का युवा वर्ग निराश क्यों है? क्या नमो इन बातों को समझ नहीं पा रहे हैं या फिर दोनों को इंधन देने वाले मर्ज की पहचान मुश्कित होती जा रही है या फिर सरकार की प्राथमिकता ही बदल गई हैं.
अब जरा इन आंकड़ों पर गौर करें तो देश के किसानों के हालत के बारे में जान पाएंगे. सरकारी रिपोर्ट की मानें तो साल 2016 की पहली तिमाही में 116 किसानों ने आत्महत्या कर ली. सबसे ज्यादा आत्महत्या महाराष्ट्र में दर्ज हुई. इसके बाद तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का नंबर आता है, जहां कर्ज में डूबे किसानों ने भूखे मरने की वजाय मौत को गले लगाना पसंद किया.
ये आंकड़े सरकारी हैं, संसद में एक सवाल के जवाब में सरकार ने बताया कि साल 2014 में आत्महत्या करने वाले 2,115 किसानों में से 1,163 कर्ज में डूबे थे, जबकि बाकियों ने फसल बर्बाद होने के कारण हताश होकर मौत को गले लगा लिया.
किसानों का दर्द सरकार को क्यों सुनाई नहीं देता.. |
हाल ही में कर्ज ना चुका पाने से परेशान महाराष्ट्र के जलगांव के एक किसान ने खुद अपनी चिता सजाई और उसपर बैठकर आग लगा ली. 70 साल के नामदेव पर महज 35 हजार रुपये का कर्ज था. इसी तरह मई 2016 में महाराष्ट्र के बुलढाना में फसल खराब होने और बैंक ऋण चुनाने में नाकाम रहने पर एक परिवार के 3 सदस्यों ने खुदकुशी कर ली. पंजाब के बरनाला का वो वाकया तो आपको याद ही होगा कि पेट भरने के लिए किस तरह से किसान परिवार ने अपनी जमीन गिरवी रख कर खेती की जमीन तैयार की, लेकिन फसल बर्बाद होने के बाद 30 वर्षीय किसान बलजीत सिंह ने अपनी बूढ़ी मां के साथ आत्महत्या कर ली.
ऐसे न जाने कितने ही मामले हैं जिसके बारे में आप तफसील से सुनेंगे तो आपका कलेजा फट जाएगा. पिछले साठ वर्षों से देश के अन्न दाताओं के साथ यही हो रहा है. सरकारें बदलती हैं, लेकिन किसानों के हालात नहीं बदलते. बावजूद सरकार ये कहने से नहीं चुकती कि देश बदल रहा है.
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सवाल ये है कि क्या कोई ये बताएगा कि किसानों के हालात कब बदलेंगे? क्या आंकड़ों के अंकगणित को दिखाकर कोई ये मान लेगा कि देश विकास कर रहा है. एक सच ये भी है कि देश की 70 फीसदी आबादी खेती किसानी कर गुजर बसर करती है, बाकि बचे 30 फीसदी में ज्यादातर लोग निजी क्षेत्र में काम कर अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं.
इनमें भी बहुत बड़ा वर्ग ऐसे तबकों का है जो असंगठित क्षेत्र में काम कर किसी तरह से जीवन की गाड़ी को चला रहे हैं, जिनके लिए चमक दमक की जिंदगी से दूर दो वक्त की रोटी का इंतजाम हो जाए, ये ही काफी है.
ऊपर से महंगाई के आंकड़े इस देश के एक बड़े वर्ग पर कहर बनकर टूट रहे हैं. जितनी तेजी से सेंसेक्स नहीं बढ़ता उससे कहीं अधिक तेजी से हर रोज महंगाई बढ़ रही है. दाल सब्जी के भाव बजट से बाहर होते जा रहे हैं, हर तरफ बिचौलिया राज हावी हैं. दाल की कीमतें दोहरा शतक लगाने को अमादा है, जो अरहर दाल दो साल पहले 75 रु प्रति किलों के हिसाब से मिलती थी वो आज 160 और 170 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गई है.
महंगाई की मार का इलाज कब होगा |
हरी साग सब्जियों की कीमतों में भी आग लगी हुई है, इस बात को लेकर सरकार कितनी चिंतित है इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि वित्त मंत्री अरुण जेटली के नेतृत्व में आपात बैठक बुलाई गई और तमाम तरह की घोषणाएं की गई.
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तो सवाल फिर वहीं कि क्या वाकई देश तरक्की कर रहा है. जी हां, अर्थव्यवस्था का नियम कहता है कि महंगाई बढने के पीछे डिमांड का हाथ होता है, और डिमांड तभी बढता है जब लोगों के पास पैसे होते हैं. तो क्या मान लिया जाय कि देशवासियों के पास पैसों की कमी नहीं है. देश तरक्की की राह पर है! कह सकते हैं, क्योंकि तरक्की भले ही जीवन स्तर में सुधार के तौर पर न हो रहा हो, लेकिन आंकड़े तरक्की की ओर इशारा जरूर कर रहे हैं.
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