अगर कोई पूछे कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे ज्यादा कौन-सी योजनाएं चर्चा में रहीं, तो किसी राह चलते शख्स की जबान पर भी यही शब्द होंगे-मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, नमामि गंगे, जन-धन और स्वच्छ भारत. ये नाम पिछले दो साल में इतनी बार दोहराए जा चुके हैं कि ये मोदी सरकार की पहचान सी बन गए हैं. लेकिन मुंबई में मेक इन इंडिया के भव्य कार्यक्रम में आगजनी के कुछ दिन बाद जब 29 फरवरी को दिल्ली में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट पेश किया, तो ऐसा लगा, जैसे इन खनकदार शब्दों की रंगत उड़ गई हो.
जेटली बजट तो मोदी सरकार का पेश कर रहे थे, लेकिन दरियादिली उन योजनाओं की तरफ दिखा रहे थे, जो कभी पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार की सिरमौर हुआ करती थीं. मोदी सरकार की पसंदीदा 13 योजनाओं को अगर जेटली ने अपने बजट से करीब 40,000 करोड़ रु. आवंटित किए तो मनमोहन के जमाने में जलवागर रहीं छह योजनाओं को ही एक लाख करोड़ रु. से अधिक की रकम दे दी. यह शायद विरला मौका होगा कि कोई सरकार अपनी प्रिय योजनाओं के बदले पुरानी योजनाओं पर इस कदर भरोसा कर रही हो. इसे एनडीए सरकार की आजादख्याली के तौर पर भी देखा जा सकता है और उसकी अपनी योजनाओं के जनता के बीच कम लोकप्रिय होने के तौर पर भी.
बहरहाल, बजट में मोदी की जिस योजना पर सबसे ज्यादा मार पड़ी, वह है गंगा नदी से जुड़ी योजनाएं. नमामि गंगे मिशन को इस बजट में सिर्फ 2,250 करोड़ रु. मिले हैं. यही नहीं जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनर्जीवन मंत्रालय का बजट पिछले वित्त वर्ष के संशोधित आवंटन 7,032 करोड़ रु. से घटाकर 6,021 करोड़ रु. कर दिया गया. यानी मोदी के प्रचार अभियान से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहे गंगा नदी से जुड़े मंत्रालय के बजट में 14 फीसदी की कटौती की गई.
इसी तरह जनवरी में बड़े जोर-शोर से घोषित की गई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को बजट की प्रमुख योजनाओं की सूची से बाहर कर दिया गया. इस योजना को 5,500 करोड़ रु. का आवंटन किया गया. कृषि मंत्रालय के...
अगर कोई पूछे कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे ज्यादा कौन-सी योजनाएं चर्चा में रहीं, तो किसी राह चलते शख्स की जबान पर भी यही शब्द होंगे-मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, नमामि गंगे, जन-धन और स्वच्छ भारत. ये नाम पिछले दो साल में इतनी बार दोहराए जा चुके हैं कि ये मोदी सरकार की पहचान सी बन गए हैं. लेकिन मुंबई में मेक इन इंडिया के भव्य कार्यक्रम में आगजनी के कुछ दिन बाद जब 29 फरवरी को दिल्ली में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट पेश किया, तो ऐसा लगा, जैसे इन खनकदार शब्दों की रंगत उड़ गई हो.
जेटली बजट तो मोदी सरकार का पेश कर रहे थे, लेकिन दरियादिली उन योजनाओं की तरफ दिखा रहे थे, जो कभी पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार की सिरमौर हुआ करती थीं. मोदी सरकार की पसंदीदा 13 योजनाओं को अगर जेटली ने अपने बजट से करीब 40,000 करोड़ रु. आवंटित किए तो मनमोहन के जमाने में जलवागर रहीं छह योजनाओं को ही एक लाख करोड़ रु. से अधिक की रकम दे दी. यह शायद विरला मौका होगा कि कोई सरकार अपनी प्रिय योजनाओं के बदले पुरानी योजनाओं पर इस कदर भरोसा कर रही हो. इसे एनडीए सरकार की आजादख्याली के तौर पर भी देखा जा सकता है और उसकी अपनी योजनाओं के जनता के बीच कम लोकप्रिय होने के तौर पर भी.
बहरहाल, बजट में मोदी की जिस योजना पर सबसे ज्यादा मार पड़ी, वह है गंगा नदी से जुड़ी योजनाएं. नमामि गंगे मिशन को इस बजट में सिर्फ 2,250 करोड़ रु. मिले हैं. यही नहीं जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनर्जीवन मंत्रालय का बजट पिछले वित्त वर्ष के संशोधित आवंटन 7,032 करोड़ रु. से घटाकर 6,021 करोड़ रु. कर दिया गया. यानी मोदी के प्रचार अभियान से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहे गंगा नदी से जुड़े मंत्रालय के बजट में 14 फीसदी की कटौती की गई.
इसी तरह जनवरी में बड़े जोर-शोर से घोषित की गई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को बजट की प्रमुख योजनाओं की सूची से बाहर कर दिया गया. इस योजना को 5,500 करोड़ रु. का आवंटन किया गया. कृषि मंत्रालय के मुताबिक, 50 फीसदी किसानों के लिए 8,800 करोड़ रु. की जरूरत है, वहीं 30 फीसदी किसानों को इसके दायरे में लाने के लिए कम से कम 5,700 करोड़ रु. की जरूरत बताई गई थी. लेकिन बजट आवंटन सब अनुमानों से कम रहा. इस तरह यह योजना बमुश्किल पांच फीसदी अतिरिक्त किसानों को दायरे में ला सकेगी, देश में फिलहाल 23 फीसदी किसान बीमा के दायरे में हैं.
हालांकि कृषि मंत्री राधामोहन सिंह आवंटन को पर्याप्त मानते हैं. उनका कहना है, “पैसे की कोई कमी नहीं है, जितनी जरूरत पड़ेगी, मिल जाएगा. असल बात है कि किसानों को पूरी बीमा राशि का भुगतान होगा, जो पहले नहीं होता था.” इसी तरह देश की बाकी बची 65 फीसदी असिंचित जमीन को सिंचित करने के उद्देश्य से बनाई गई, प्रधानमंत्री कृषि विकास योजना को इस साल 5,717 करोड़ रु. आवंटित किए गए. वहीं मनमोहन सिंह के जमाने से चली आ रही प्रधानमंत्री कृषि विकास योजना को भी 5,400 करोड़ रु. दिए गए. देश में जल संसाधन का विकास करने के लिए पहले से चली आ रही योजनाओं को मोटा फंड देकर यह संकेत दिए गए हैं कि अभी मोदी सरकार की योजनाओं के पांव जमने बाकी हैं.
एनडीए और यूपीए के कार्यक्रमों को आवंटित राशि |
उधर, चर्चित मेक इन इंडिया, नेशनल इंडस्ट्रियल कॉरिडोर, स्टार्ट अप, स्टैंड अप इंडिया और राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना को 2,000 करोड़ रु. से कम का बजट आवंटित हुआ है. डिजिटल इंडिया का बजट 2,000 करोड़ रु. से थोड़ा ही अधिक है. वहीं, खेलो इंडिया को सिर्फ 216 करोड़ रु. मिले. सबसे बड़ा तमाचा तो स्मार्ट सिटी योजना को लगा. इसे अटल मिशन फॉर रिजुविनेशन ऐंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन (एएमआरयूटी) के साथ मिलकर 7,296 करोड़ रु. आवंटित हुए. जबकि इन दोनों परियोजनाओं को पूरा करने के लिए पांच साल में कम से कम एक लाख करोड़ रु. की रकम चाहिए. यह मिशन मनमोहन सरकार में जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) की जगह लेने के लिए बनाया गया, लेकिन बजट आवंटन बहुत कम रहा. 2013 में जेएनएनयूआरएम को 14,833 करोड़ रु. आवंटित किए गए थे. देश के ज्यादातर शहरों में लो क्रलोर बसें और बीआरटी कॉरिडोर इसी मिशन के तहत बनाए गए थे.
दरअसल, सरकार ने किसान हित का जो पूरा खाका इस बजट में खींचा है, वह मनमोहन सरकार के जमाने की योजनाओं के खंभों पर तना है. महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी ऐक्ट (मनरेगा) जहां 38,500 करोड़ रु. के आवंटन के साथ अव्वल रही, वहीं प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना (पीएमजीएसवाई) के 19,000 करोड़ रु. खासे सुर्खियों में आए. उधर, मनमोहन सरकार के समय घोटालों का प्रतीक बन गए नेशनल रूरल हेल्थ मिशन (एनआरएचएम) को मोदी सरकार ने नेशनल हेल्थ मिशन (एनएचएम) में बदलकर इसे 20,000 करोड़ रु. का आवंटन दिया. पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम पर चलने वाली योजनाओं से ये नाम हटाकर अटल या दीन दयाल उपाध्याय नाम जोड़कर सरकार ने अच्छा-खासा आवंटन किया है.
केंद्र सरकार की नीति में मनमोहन युग की वापसी पर चुटकी लेते हुए कांग्रेस सांसद जयराम रमेश कहते हैं, “यह बजट सिर्फ यही बताता है कि मोदी सरकार की सोच यूपीए सरकार से आगे नहीं जा सकती. हां, वे हमारे किए को भी ईमानदारी से आगे नहीं बढ़ा पा रहे.” लेकिन नीतिगत स्तर पर चार साल पीछे लौटे गांव केंद्रित बजट की सबसे बड़ी उलटबांसी यही रही कि इसमें प्रधानमंत्री सांसद आदर्श ग्राम योजना का जिक्र तक नहीं आया.
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