किसी लोकतांत्रिक देश के 1 फीसदी लोग कितने अमीर हो सकते है? स्विस बैंक क्रेडिट सुइस की हाल ही में जारी रिपोर्ट के मुताबिक 1 फीसदी भारतीयों (अमीर भारतीय) के पास देश की 53 फीसदी संपत्ति है. वहीं 10 फीसदी लोगों के पास देश की 76 फीसदी से ज्यादा की संपत्ति है. या फिर यह कह सकते हैं कि भारत की 90 फीसदी जनता के पास देश की कुल संपत्ति का एक चौथाई भी नहीं है. आखिर क्यों?
देश को आजाद हुए 60 साल से अधिक हो चुके हैं. इन 6 दशकों के दौरान देश में लगातार एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी हुई सरकार सत्ता में रही है. लोकतंत्र में सरकार का काम समाज में मूल्यों का तर्कसंगत निर्धारण है. फिर बीती सरकारों का तर्क कहां गलत हो गया कि आज समाज मंं अमीरों की संख्या सिमट रही है और गरीबी लगातार अपना विस्तार कर रही है.
अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई के आंकड़े और भी चौकाने वाले हैं. क्रेडिट सुइस की ही वर्ष 2000 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुल राष्ट्रीय संपदा का लगभग 37 फीसदी देश के 1 फीसदी लोगों की तिजोरी में बंद थी जबकि 10 फीसदी लोगों के पास 66 फीसदी राष्ट्रीय संपति थी. या फिर कह सकते हैं कि देश की 90 फीसदी जनता के पास कुल राष्ट्रीय संपदा का एक तिहाई हिस्सा था.
लिहाजा, पिछले पंद्रह सालों में लगभग 10 साल तक केन्द्र की सत्ता पर काबिज यूपीए गठबंधन की सरकार की यह सबसे बड़ी विफलता है. जब देश 1990 के दशक में उदारवादी नीतियों के साथ वैश्विकरण के दौर में आया और साल 2000 में 21वीं सदी की शुरुआत हुई, तब इस नई सदी में यह केन्द्र सरकार की ही जिम्मेदारी थी कि वह अपने मूल कर्तव्य यानी मूल्य निर्धारण नीतियों से समाज में अमीर और गरीब के बीच की खाई को पाटे. इस दौरान ऐसा भी नहीं था कि देश किसी तरह का टैक्स हैवन था और कॉरपोरेट जगत बड़ा मुनाफा कमा रहे थे. बल्कि उसका खुद ग्लोबलाइजेशन की चुनौती से सामना हो रहा था और टैक्स के बोझ का अच्छा दबाव था.
यह यूपीए सरकार की सबसे बड़ी विफलता थी कि 90 फीसदी जनसंख्या की संपदा तिहाई से चौथाई पर सिमट गई. अब केन्द्र में...
किसी लोकतांत्रिक देश के 1 फीसदी लोग कितने अमीर हो सकते है? स्विस बैंक क्रेडिट सुइस की हाल ही में जारी रिपोर्ट के मुताबिक 1 फीसदी भारतीयों (अमीर भारतीय) के पास देश की 53 फीसदी संपत्ति है. वहीं 10 फीसदी लोगों के पास देश की 76 फीसदी से ज्यादा की संपत्ति है. या फिर यह कह सकते हैं कि भारत की 90 फीसदी जनता के पास देश की कुल संपत्ति का एक चौथाई भी नहीं है. आखिर क्यों?
देश को आजाद हुए 60 साल से अधिक हो चुके हैं. इन 6 दशकों के दौरान देश में लगातार एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी हुई सरकार सत्ता में रही है. लोकतंत्र में सरकार का काम समाज में मूल्यों का तर्कसंगत निर्धारण है. फिर बीती सरकारों का तर्क कहां गलत हो गया कि आज समाज मंं अमीरों की संख्या सिमट रही है और गरीबी लगातार अपना विस्तार कर रही है.
अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई के आंकड़े और भी चौकाने वाले हैं. क्रेडिट सुइस की ही वर्ष 2000 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुल राष्ट्रीय संपदा का लगभग 37 फीसदी देश के 1 फीसदी लोगों की तिजोरी में बंद थी जबकि 10 फीसदी लोगों के पास 66 फीसदी राष्ट्रीय संपति थी. या फिर कह सकते हैं कि देश की 90 फीसदी जनता के पास कुल राष्ट्रीय संपदा का एक तिहाई हिस्सा था.
लिहाजा, पिछले पंद्रह सालों में लगभग 10 साल तक केन्द्र की सत्ता पर काबिज यूपीए गठबंधन की सरकार की यह सबसे बड़ी विफलता है. जब देश 1990 के दशक में उदारवादी नीतियों के साथ वैश्विकरण के दौर में आया और साल 2000 में 21वीं सदी की शुरुआत हुई, तब इस नई सदी में यह केन्द्र सरकार की ही जिम्मेदारी थी कि वह अपने मूल कर्तव्य यानी मूल्य निर्धारण नीतियों से समाज में अमीर और गरीब के बीच की खाई को पाटे. इस दौरान ऐसा भी नहीं था कि देश किसी तरह का टैक्स हैवन था और कॉरपोरेट जगत बड़ा मुनाफा कमा रहे थे. बल्कि उसका खुद ग्लोबलाइजेशन की चुनौती से सामना हो रहा था और टैक्स के बोझ का अच्छा दबाव था.
यह यूपीए सरकार की सबसे बड़ी विफलता थी कि 90 फीसदी जनसंख्या की संपदा तिहाई से चौथाई पर सिमट गई. अब केन्द्र में एनडीए गठबंधन की बहुमत सरकार है. यूपीए की विफलता ही उसकी सबसे बड़ी चुनौती है. अगर एनडीए एक दशक या उससे ज्यादा इस सत्ता पर काबिज रहने का सपना देख रही है तो उसे इस चुनौती को न सिर्फ स्वीकारना होगा बल्कि उसमें सफल होने के लिए नीति बनानी होगी. फिर 10 साल बाद क्रेडिट सुइस की यही रिपोर्ट बताएगी कि देश में अमीर और गरीब के बीच खाई का क्या हुआ.
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