देश भर की यूनिवर्सिटीज के वाईस चांसलर्स अगर साल 2000 में आई फिल्म मोहब्बतें देख लें तो देश में बीएचयू जैसी घटनाओं पर रोक लग जाए. दरअसल बीएचयू जैसी घटनाओं के पीछे वीसी साहबान के गार्जियन का रोल निभाने की सनक है. जो अक्सर वो बातें बोलने पर मजबूर कर देती हैं, जिन्हें बर्दाश्त करने की क्षमता अब नई पीढ़ी में नहीं है.
अब बीएचयू के वीईस चांसलर प्रो. जीसी त्रिपाठी को ही ले लीजिये. वे अक्सर स्टूडेंट्स को एक बाप की तरह डांटते सुने गए हैं. शायद उन पर गुरुकुल वाले नारायण शंकर जी का प्रभाव गहरा है. लेकिन वे भूल गए कि अब यूनिवर्सिटी में नारायण शंकर का रोल ऑबस्लीट हो चुका है और नई पीढ़ी शहरुख खान यानि राज आर्यन मल्होत्रा जैसे टीचर्स को पसंद करती है.
वीसी साहबान गौर कीजिये, अब टीचर्स डे का भी स्वरुप बदल चुका है. अब गुरु पूर्णिमा या टीचर्स डे पर पैर छूकर शुभकामनाएं देने वाले शिष्यों की संख्या लगातार घट रही है. अब तो ‘हैप्पी गुरु पूर्णिमा’ और ‘हैप्पी टीचर्स डे’ की शुभकामना संदेश फेसबुक और ट्विटर पर टैग करके दिए जाते हैं या व्हाट्सएप पर आते हैं . काश कि जेएनयू और बीएचयू के वीसी साहबान गुरुकुल में चल रही हवा के रुख के बदलाव को भांप पाते.
गुरु जी, खतरे तो हैं. लेकिन आपकी रुख में बदलाव जरूरी है. जाइए...
देश भर की यूनिवर्सिटीज के वाईस चांसलर्स अगर साल 2000 में आई फिल्म मोहब्बतें देख लें तो देश में बीएचयू जैसी घटनाओं पर रोक लग जाए. दरअसल बीएचयू जैसी घटनाओं के पीछे वीसी साहबान के गार्जियन का रोल निभाने की सनक है. जो अक्सर वो बातें बोलने पर मजबूर कर देती हैं, जिन्हें बर्दाश्त करने की क्षमता अब नई पीढ़ी में नहीं है.
अब बीएचयू के वीईस चांसलर प्रो. जीसी त्रिपाठी को ही ले लीजिये. वे अक्सर स्टूडेंट्स को एक बाप की तरह डांटते सुने गए हैं. शायद उन पर गुरुकुल वाले नारायण शंकर जी का प्रभाव गहरा है. लेकिन वे भूल गए कि अब यूनिवर्सिटी में नारायण शंकर का रोल ऑबस्लीट हो चुका है और नई पीढ़ी शहरुख खान यानि राज आर्यन मल्होत्रा जैसे टीचर्स को पसंद करती है.
वीसी साहबान गौर कीजिये, अब टीचर्स डे का भी स्वरुप बदल चुका है. अब गुरु पूर्णिमा या टीचर्स डे पर पैर छूकर शुभकामनाएं देने वाले शिष्यों की संख्या लगातार घट रही है. अब तो ‘हैप्पी गुरु पूर्णिमा’ और ‘हैप्पी टीचर्स डे’ की शुभकामना संदेश फेसबुक और ट्विटर पर टैग करके दिए जाते हैं या व्हाट्सएप पर आते हैं . काश कि जेएनयू और बीएचयू के वीसी साहबान गुरुकुल में चल रही हवा के रुख के बदलाव को भांप पाते.
गुरु जी, खतरे तो हैं. लेकिन आपकी रुख में बदलाव जरूरी है. जाइए अपने स्टूडेंट्स के बीच एक कॉर्पोरेट बॉस की तरह. उनसे मिलिए-जुलिए और हो सके तो फ्रेशर्स पार्टी या फेयरवेल फंक्शन में उनके साथ अपने कदम भी थिरका लीजिए. आपने सुना तो होगा कि जब बाप का जूता बेटे के पैरों में आने लगे तो वो बेटा नहीं दोस्त हो जाता है. फिर, यूनिवर्सिटी में आने वाले ज्यादातर स्टूडेंट्स अब वुडलैंड और रीबोक के महंगे जूते पहनकर आते हैं और उनका साइज़ भी कहीं न कहीं आपके जूते से बड़ा होता है. तोड़िए परम्पराओं को और जरूरत पड़े तो सींग कटाकर बछड़े बन जाइए. इससे भले कुछ बदले न बदले जनरेशन गैप में कुछ कमी तो आएगी.
हां, इसमें खतर तो हैं, आपके ऊपर रंगीले राम रहीम बाबा की तरह हरकतें करने का आरोप लग सकता है. कोई बात नहीं संयम की चाभी तो आपके ही हाथ में हैं. दाग लगेंगे लेकिन कम से कम निरीह छात्राओं पर लाठी चलवाने का आरोप तो न लगेगा.
अब ज़माना द्रोणाचार्य का नहीं है, जो आप अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को आगे बढ़ाने के लिए आपकी रिमोट क्लासेज लेने वाले स्टूडेंट एकलव्य का अंगूठा मांग लें. आज का एकलव्य भी अपने करियर को लेकर उतना ही सजग है जितना कि आज का अर्जुन.
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