ठर्रा विद ठाकुर : पहली किश्त
आजादी का दिन आ रहा है. सत्तर साल बीत गए आजाद हुए. रामधारी सिंह दिनकर की बच्चों वाली वह कविता तो आपको याद ही होगी, जिसमें चूहा चुहिया से कहता हैःसो जाना सब लोग लगाकर दरवाजे में किल्ली,आज़ादी का जश्न देखने मैं जाता हूँ दिल्ली.
भारत में आम आदमी (पार्टी नहीं) कॉमन मैन ब्रो... की हैसियत चूहे जैसी है और बिल्लियों का उस पर राज है.
हमारे एक दोस्त हैं, गुड्डू भैया. वो अपनी सींक-सरीखी काया में तब तक दारा सिंह होते हैं, जब तक देसी का असर रहता है. इस मामले में पूरे देशभक्त हैं और उनका दावा है कि चाहे किसी की रगों में रम का निवास हो उनकी धमनियों में कंट्री बहती है. गुड्डू भैया आम आदमी हैं. तकरीबन अमिताभ के विजय दीनानाथ चौहान अवतार में आकर उसने हाथ नचाते हुए पूछा था मुझसेः क्या भाई, ये देश किसका है? आजादी किसकी है?
यह सवाल ऐसा शाश्वत है कि चाहे-अनचाहे सत्तर साल से देश का हर कोना एक बार और अमूमन कई बार पूछ ही लेता हैः आजादी किसकी है? किसके लिए है? जिसके लिए भी हो, हमारे, आपके लिए आजादी का मतलब ही कुछ और है.
अब जबकि हम पंद्रह अगस्त के पावन मौके पर फेसबुक, ट्विटर और तमाम ऐसे ही सोशल साइट्स पर अपनी डीपी तिरंगा करने पर उतारू हैं. तमाम जगहों पर अपनी आजादी का जश्न मना रहे हैं.
फेसबुक पर लिखें. ट्वीट कीजिए. सराहा पर परदे के पीछे रहकर किसी को मन भर गरिया दीजिए. खुले में शौच जाइए. सड़क किनारे मूत्र-विसर्जन कीजिए.. मल्लब हर तरीके से हम आजाद हैं. तो जैसी प्रजा वैसा राजा. नेताजी भी आजाद हैं. जब मन आए पार्टी बदलिए. अंतरात्मा बदलिए. जो जो मन हो सब बदलिए. दलाली खाइए. रोका किसने है, और कोई रोक भी कैसे पाएगा...
लेकिन यह गलत है....
ठर्रा विद ठाकुर : पहली किश्त
आजादी का दिन आ रहा है. सत्तर साल बीत गए आजाद हुए. रामधारी सिंह दिनकर की बच्चों वाली वह कविता तो आपको याद ही होगी, जिसमें चूहा चुहिया से कहता हैःसो जाना सब लोग लगाकर दरवाजे में किल्ली,आज़ादी का जश्न देखने मैं जाता हूँ दिल्ली.
भारत में आम आदमी (पार्टी नहीं) कॉमन मैन ब्रो... की हैसियत चूहे जैसी है और बिल्लियों का उस पर राज है.
हमारे एक दोस्त हैं, गुड्डू भैया. वो अपनी सींक-सरीखी काया में तब तक दारा सिंह होते हैं, जब तक देसी का असर रहता है. इस मामले में पूरे देशभक्त हैं और उनका दावा है कि चाहे किसी की रगों में रम का निवास हो उनकी धमनियों में कंट्री बहती है. गुड्डू भैया आम आदमी हैं. तकरीबन अमिताभ के विजय दीनानाथ चौहान अवतार में आकर उसने हाथ नचाते हुए पूछा था मुझसेः क्या भाई, ये देश किसका है? आजादी किसकी है?
यह सवाल ऐसा शाश्वत है कि चाहे-अनचाहे सत्तर साल से देश का हर कोना एक बार और अमूमन कई बार पूछ ही लेता हैः आजादी किसकी है? किसके लिए है? जिसके लिए भी हो, हमारे, आपके लिए आजादी का मतलब ही कुछ और है.
अब जबकि हम पंद्रह अगस्त के पावन मौके पर फेसबुक, ट्विटर और तमाम ऐसे ही सोशल साइट्स पर अपनी डीपी तिरंगा करने पर उतारू हैं. तमाम जगहों पर अपनी आजादी का जश्न मना रहे हैं.
फेसबुक पर लिखें. ट्वीट कीजिए. सराहा पर परदे के पीछे रहकर किसी को मन भर गरिया दीजिए. खुले में शौच जाइए. सड़क किनारे मूत्र-विसर्जन कीजिए.. मल्लब हर तरीके से हम आजाद हैं. तो जैसी प्रजा वैसा राजा. नेताजी भी आजाद हैं. जब मन आए पार्टी बदलिए. अंतरात्मा बदलिए. जो जो मन हो सब बदलिए. दलाली खाइए. रोका किसने है, और कोई रोक भी कैसे पाएगा...
लेकिन यह गलत है. गुड्डू भैया चौथे पैग से हवा में उड़ने लगते हैः अब खरीद-फरोख्त के मामले में लोग दलाली नहीं खाएंगे तो क्या यज्ञ-हवन में खाएंगे?... और दुनिया में बहुत सारे काम भविष्य सुरक्षित करने के लिए भी तो किए जाते हैं. कुछ लोग बचत करते हैं. कुछ बीमा करवाते हैं. कुछ अपने बेटे-बेटियों, नाती-पोतों के लिए घोटाले कर लेते हैं.
कुछ लोग आज फिर से बोफोर्स-बोफोर्स चिल्लाने लगे हैं. यह तो गलत है न ठाकुर. सरासर नाइंसाफी! बोफोर्स में 64 करोड़ का घोटाला हुआ था. इतने पैसे तो रेज़गारी के बराबर हैं. चिंदीचोरी जैसी बात है यह. और इस पर आप होहल्ला मचा रहे हैं. शराफत तो छू भी नहीं गई आपको! मधु कोड़ा को देखिए. उन पर 4000 करोड़ के घोटाले का आरोप हैं. लालू प्रसाद का चारा घोटाला तक 800 करोड़ का था.
ज़रा तुलना कीजिए. कुछ आंकड़े बता रहा हूं. आजादी के सत्तर बरस हुए अपने देश के. और तब से लेकर आज तक, भ्रष्टाचार की भेंट हुई रकम है- 462 बिलियन डॉलर. जी, यह रकम डॉलर में है. चूंकि हम हर बात पश्चिम से उधार लेते हैं, सो यह आंकड़ा भी उधर से ही है. वॉशिंगटन की ग्लोबल फाइनेंसियल इंटीग्रेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, आजादी के बाद से ही भ्रष्टाचार भारत की जड़ों में रहा है. जिसकी वजह से 462 बिलियन डॉलर यानी 30 लाख 95 हजार चार सौ करोड़ रूपये भारत के आर्थिक विकास से जुड़ नहीं पाए.
तो भ्रष्टाचार और घूसखोरी की हमारी इस अमूल्य विरासत पर, जो हमारी थाती रही है, आप सवाल खड़े कर रहे हैं? गुड्डू चौकी पर से नीचे उतर गए. जब भी मैं भ्रष्टाचार की अपने देश की शानदार परंपरा का जिक्र करता हूं. हमेशा मुझे नेहरू दौर के जीप घोटाले से लेकर मूंदड़ा घोटाले. इंदिरा के दौर में मारुति घोटाले से लेकर तेल घोटाले. राजीव गांधी के दौर में बोफोर्स, सेंट किट्स. पीवी नरसिंह राव के दौर में शेयर घोटाला, चीनी घोटाला, सांसद घूसकांड. मनमोहन के दौर में टूजी से लेकर कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाला याद आता है. यह एक ऐसी फेहरिस्त है, जिसको इतिहास हमेशा संदर्भ की तरह याद रखा जाएगा. संयोग देखिए, अब इसमें कुछ ऐसे लोगों के नाम भी जुड़ रहे हैं, जिनकी समृद्धि देखकर पूरा देश रश्क़ करता था. विजय नाम से याद आया. एक विजय था, जिसको ग्यारह मुल्कों की पुलिस खोज रही थी और दूसरा विजय है जिसको देश के बैंक प्रबंधक खोज रहे हैं.
बहरहाल, मेरा मानना है कि घोटालों पर संसद में चर्चा कराना टाइम खोटी करना है. आजादी के बाद से संसद में 322 घोटालों पर चर्चा हो चुकी है. नतीजा क्या निकला, मैं आज भी जान नहीं पाया हूं.
यकीन मानिए, नतीजे आ भी गए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा. इस देश में 400 लोगों के पास चार्टड विमान हैं. 2985 परिवार अरबपति से भी अधिक हैं. देश के किसानों पर ढाई हज़ार करोड़ का कर्ज है और वह आत्महत्या करते हैं. तो दूसरी ओर देश के 6 हजार उद्योगपतियों ने सवा लाख करोड़ का कर्ज ले रखा है. उनमें से कोई आत्महत्या नहीं करता.
पाठकों, घोटाले हुए हैं. यकीनन हुए हैं. यह भी पता है कि लिया किसने है? बस सुबूत नहीं हैं. और सुबूत मिल भी जाए तो क्या होगा?
चूहा दिल्ली में आजादी का जश्न देखने आएगा, बिल्ली पीछे सब चट कर जाएगी. कुछ बरस पहले एक योजना आयोग था. उसके उपाध्यक्ष भी थे. वह कहते थेः शहर के आदमी के लिए 32 रु. और गांव के आदमी के लिए 26 रु. रोजाना की आमदनी काफी है. उपाध्यक्ष महोदय औरंगजेब रोड (तब के) पर एक बंगले में रहते थे जिसकी कीमत इतनी थी कि अगर लॉन के घास के दाम भी लगाए जाते तो हर घास की कीमत 32 रु. से ज्यादा बैठती. अस्तु.
आज सड़कें फटाफट तैयार हो रही हैं. इमारतें और मॉल्स चमचमा रहे हैं. दाल-टमाटर-प्याज की कीमत बढ़ने पर हो-हल्ला है. लेकिन बढ़ी हुई कीमत किसान को नहीं मिलती. किसान अपनी पैदावार सड़क पर फेंक रहा है. वह सड़कों पर दूध उड़ेल रहा है. आजादी के मौके पर राजा की पालकी जाने वाली है. एलइडी बल्बों से रोशनायित सड़कें हीरे-मोती की तरह चमकती है. और इस हर मोती के पीछे घीसू का पसीना है.
आज आईचौक पर खड़े होकर एक शेर बहुत जोर से आ रहा हैः न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने सेतमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से.
चलो. चखना निकालो यार. लगता है चढ़ गई.
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