राहुल गांधी से बातचीत खत्म होने के बाद उन्होंने फोन वैसे ही रख दिया. स्विच-ऑफ करना भूल गए. राखी के दिन कुछ लोग अपना फोन बंद कर दिया करते हैं. दो तीन साल से दिग्विजय सिंह भी ऐसा करने लगे थे.
रिंग हुआ तो दौड़ कर मोबाइल लिया. नंबर तो अननोन था लेकिन आईएसडी कॉल थी, इसलिए उठा लिया.
"हेलो भैया?"
आवाज पतली तो थी ही - उसमें तहजीब और तमीज की अजब तासीर झलक रही थी. अब बात तो करनी ही थी.
सीन - 1
राहुल गांधी सरहद के आस पास के इलाकों में घूम रहे थे. तमाम कोशिशों के बाद पंजाब की तरह यहां भी उचित किसान या कोई अपेक्षित दलित नहीं मिला. साथी नौजवान नेता और चेले चपाटी जी तोड़ कोशिश कर रहे थे कि कोई मनमाफिक गरीब भी मिल जाए तो बाकी चीजें मैनज कर ली जाएं.
घंटों की तलाश के बाद कुछ गरीब मिले भी लेकिन काम नहीं बना. वादी के गरीबों के चेहरे भी राहुल से ज्यादा चमक रहे थे. कहीं से भी वे सहानुभूति के पात्र नहीं लग रहे थे. कइयों को पकड़ पकड़ कर ऑडिशन लिया गया. लेकिन सब के सब फेल रहे.
तभी फोन की घंटी बजी. एक साथी ने फोन राहुल की ओर बढ़ा दिया. बाकियों को लगा जैसे भगवान का ही फोन आ गया हो. सभी ने राहत की सांस ली. फोन ऐसे मौके पर आया जब हर किसी को ऐसा लग रहा था जैसे आखिरी सांस ले रहा हो.
"हेलो... अंकल... अंकल मैं बोल रहा हूं..."
"हेलो... हू... हूज दिस? आय कान्ट..."
"अरे अंकल... आप तो बस... मैं बोल रहा हूं... बिलावल... आय मीन बिलावल भुट्टो..."
"ओह... व्हाट्स अप... बट अंकल! व्हाट डू यू मीन... बाय द वे?"
"सॉरी भैया... जस्ट किडिंग... मैं तो मजाक कर रहा था... अरे आप लोग भी आपस में चचा कहके बात करते हो कि नईं?"
"ओके... ओके... टेल मी... एनी थिंग सीरियस?"
बातचीत छोटी ही रही. मुलाकात का वक्त और वेन्यू तय हो गया. फोन उसी साथी ने फिर से संभाल लिया.
सीन - 2
टाइम के पक्के राहुल रेस्ट्रां में पहले ही पहुंच गए. वो रेस्ट्रां जान बूझ...
राहुल गांधी से बातचीत खत्म होने के बाद उन्होंने फोन वैसे ही रख दिया. स्विच-ऑफ करना भूल गए. राखी के दिन कुछ लोग अपना फोन बंद कर दिया करते हैं. दो तीन साल से दिग्विजय सिंह भी ऐसा करने लगे थे.
रिंग हुआ तो दौड़ कर मोबाइल लिया. नंबर तो अननोन था लेकिन आईएसडी कॉल थी, इसलिए उठा लिया.
"हेलो भैया?"
आवाज पतली तो थी ही - उसमें तहजीब और तमीज की अजब तासीर झलक रही थी. अब बात तो करनी ही थी.
सीन - 1
राहुल गांधी सरहद के आस पास के इलाकों में घूम रहे थे. तमाम कोशिशों के बाद पंजाब की तरह यहां भी उचित किसान या कोई अपेक्षित दलित नहीं मिला. साथी नौजवान नेता और चेले चपाटी जी तोड़ कोशिश कर रहे थे कि कोई मनमाफिक गरीब भी मिल जाए तो बाकी चीजें मैनज कर ली जाएं.
घंटों की तलाश के बाद कुछ गरीब मिले भी लेकिन काम नहीं बना. वादी के गरीबों के चेहरे भी राहुल से ज्यादा चमक रहे थे. कहीं से भी वे सहानुभूति के पात्र नहीं लग रहे थे. कइयों को पकड़ पकड़ कर ऑडिशन लिया गया. लेकिन सब के सब फेल रहे.
तभी फोन की घंटी बजी. एक साथी ने फोन राहुल की ओर बढ़ा दिया. बाकियों को लगा जैसे भगवान का ही फोन आ गया हो. सभी ने राहत की सांस ली. फोन ऐसे मौके पर आया जब हर किसी को ऐसा लग रहा था जैसे आखिरी सांस ले रहा हो.
"हेलो... अंकल... अंकल मैं बोल रहा हूं..."
"हेलो... हू... हूज दिस? आय कान्ट..."
"अरे अंकल... आप तो बस... मैं बोल रहा हूं... बिलावल... आय मीन बिलावल भुट्टो..."
"ओह... व्हाट्स अप... बट अंकल! व्हाट डू यू मीन... बाय द वे?"
"सॉरी भैया... जस्ट किडिंग... मैं तो मजाक कर रहा था... अरे आप लोग भी आपस में चचा कहके बात करते हो कि नईं?"
"ओके... ओके... टेल मी... एनी थिंग सीरियस?"
बातचीत छोटी ही रही. मुलाकात का वक्त और वेन्यू तय हो गया. फोन उसी साथी ने फिर से संभाल लिया.
सीन - 2
टाइम के पक्के राहुल रेस्ट्रां में पहले ही पहुंच गए. वो रेस्ट्रां जान बूझ कर इसीलिए चुना गया क्योंकि उसमें सरहद के दोनों तरफ के लोग आते जाते रहे हैं. हालांकि, आम तौर पर टेबल खाली ही रहते हैं. ज्यादातर एडवांस बुकिंग होती है इसलिए रेग्युलर विजिटर्स कम ही होते हैं.
बिलावल का देर तक अता पता नहीं चला. फिर राहुल साथियों के साथ बगलवाली झील के किनारे पहुंच गए.
कुछ देर बाद बिलावल का फोन आया तो सब लौट आए. दोनों को अकेले में गूफ्तगू करनी थी इसलिए दोनों तरफ के एसपीजी वालों और साथियों को भी बाहर भेज दिया गया.
"भैया... ये मोदी तो बड़ा शातिर निकला. उसने तो नवाज को कहीं का नहीं रहने दिया. उफा में ऐसा ताना-बाना बुना कि दोनों शरीफ आपस में लड़ रहे हैं. बाकी सब मजे ले रहे हैं..."
"हूं. या..."
"लेकिन आप तो उसे भी डांट देते हो... आपको डर नहीं लगता..."
"लगता तो है..."
"फिर..."
"फिर क्या... मैं इत्ता सब थोड़े न सोचता हूं... अंकल और ममा जो पर्ची देते हैं चुपचाप पढ़ देता हूं... मुझे क्या फर्क पड़ता... हर समय एसपीजी वाले तो रहते ही हैं... कोई मेरा कर क्या लेगा?"
"आप तो मोदी को ही डरपोक बोल रहे थे..."
"या... वही... पर्ची... जो लिखा बोल दिया... आखिर गांधी परिवार में पैदा होने का कुछ तो फायदा मिलना चाहिए..."
"हां भैया... और बताओ... अच्छा... आपके पास कोई पर्ची लिखनेवाला एक्स्ट्रा है क्या... मुझे भी चाहिए था... "
"हैं तो कई... बैठे भी खाली हैं... देखता हूं..."
कई और मुद्दों पर भी बातचीत चली. फिर दोनों एक दूसरे को अलविदा कहे और रुखसत हो लिए.
सीन - 3
चलते चलते राहुल ने बिलावल को दिग्विजय सिंह का नंबर नोट करा दिया था. संयोगवश, बिलावल ने राखी वाले दिन ही दिग्विजय को फोन मिला दिया - और वो हैरान हो उठे. सिर्फ हैरान ही नहीं काफी देर तक परेशान भी रहे.
"हेलो मैं बिलावल. लंदन से. अभी मैं इस्लामाबाद गया था तो अंकल से भेंट हुई थी?"
इतने में दिग्विजय को राहुल की बात याद आ गई. काम क्या है, वो भी याद आ गया.
"हां-हां, हेलो... मैं दिग्विजय बोल रहा हूं..."
"हां, भइया... बोलिए... अंकल ने काम तो बता ही दिया होगा!"
दिग्विजय सिंह थोड़ी देर के लिए कंफ्यूज हो गए. मुझे ये भैया बोल रहा है - और राहुल जी को अंकल. आखिर माजरा क्या है? फिर उन्होंने में कंफर्म करने के लिए बोला...
"अरे, बिलावल बेटे... मैं दिग्विजय बोल रहा हूं..."
"हां-हां, भैया मैं आपको पहचान रहा हूं... कैसे हो आप... अंकल से मेरी बात हुई थी... पर्ची के लिखने के लिए."
दिग्विजय सिंह फिर थोड़ा पसोपेश में पड़ गए... आखिर क्यों ये लड़का बेटा बोलने पर भी मुझे भैया और बाबा को अंकल बोल रहा है.
"हां... वो... फिर बताइए..."
"अरे भइया... आप भी खा-म-खा प्रेशां हो रहे हो..."
"नहीं... ऐसी कोई बात नहीं..."
"अरे क्यों नहीं है... मुझे पप्पू समझ रखा है क्या? मैं सब समझता हूं. आप ठीक से बात ही नहीं कर पा रहे हो."
"अरे नहीं..."
"देखो... मैं तो आपका फैन हूं... आप तो टीवी, ट्विटर, फेसबुक सब जगह छाए हुए हो... आप बड़े रोमांटिक हो... मैंने लंदन में अखबार में आपका फोटो भीदेखा था... बड़े क्यूट लग रहे थे."
"हां, मगर..."
"वो भी बताए देता हूं. देखो राहुल बाबा को अंकल मैं इसलिए बोलता हूं क्योंकि वो बड़े ड्राय हैं. हमेशा गुस्से में रहते हैं. इतना खूबसूरत फेस है, गालों पर डिंपल है. फिर भी दाढ़ी बढ़ा के पता नहीं क्या पोज करना चाहते हैं."
"जी बेटा... वो पर्ची..."
"हेलो... हेलो, हेलो...?"
"हेलो... हेलो, हेलो...?"
दोनों तरफ से हेलो-हेलो चलता रहा. कॉल ड्रॉप! लगा जैसे दिग्विजय को इसी बात का इंतजार था. झटके से उन्होंने फोन की बैटरी निकाल दी. लंबी सांस लिए - और सो गए.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.