बीस साल बाद लालू प्रसाद एक बार फिर राजनीति के उसी मोड़ पर खड़े हैं - तब चारा की बात थी, अब 'ला-रा' की बात हो रही है. लारा का मतलब लालू-राबड़ी प्रोजेक्ट्स से है. खबर ये भी है कि लालू ने मुसीबत से निकलने का प्लान-बी भी तैयार कर लिया है. जिस हिसाब से सीबीआई की कार्रवाई चल रही है अगर वैसी स्थिति में तेजस्वी यादव की गिरफ्तारी होती है तो उनकी जगह तेज प्रताप को डिप्टी सीएम बनाये जाने के कयास लगाये जा रहे हैं. वैसे इस रेस में आरजेडी के सीनियर नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी का नाम भी लिया जा रहा है.
दो दशक पहले लालू ने राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाकर सभी को चौंका दिया था - इस बार लालू के दिमाग में क्या पक रहा है? फिलहाल तो कोई नहीं जानता लेकिन एक सवाल जरूर उठ रहा है कि क्या पहले के मुकाबले लालू अब कमजोर पड़ रहे हैं?
लालू की ताकत
देखें तो लालू प्रसाद इस बार चौतरफा घिरे हैं. एक तरफ तो वो खुद के खिलाफ चल रहे केस से घिरे हैं जिसमें उन्हें पेशी से भी छूट नहीं मिल पा रही. पेशी के लिए उन्हें हर हफ्ते रांची जाना पड़ रहा है. जिस दिन तेजस्वी से पटना में पूछताछ हो रही थी उस दिन भी लालू रांची कोर्ट में पेश होने गये थे. दूसरी तरफ, खुद लालू और उनके बेटे, दामाद और बेटी को जांच एजेंसियों ने घेर रखा है. तीसरी तरफ से बीजेपी उन्हें अपने टारगेट से उतरने नहीं दे रही है - और चौथा, नीतीश कुमार का वैसा साथ न मिलना जैसा चुनावों में बीजेपी को हराने में मिला था.
दरअसल महागठबंधन तो हकीकत में बस चुनाव नतीजों से पहले तक ही रहा, बाद में तो वो मजबूरी का ही गठबंधन बन कर रह गया है. फिर भी लालू और नीतीश दोनों की जरूरत ऐसी है कि मजबूरी में भी गठबंधन अटूट बना हुआ है.
अभी खबर आई थी...
बीस साल बाद लालू प्रसाद एक बार फिर राजनीति के उसी मोड़ पर खड़े हैं - तब चारा की बात थी, अब 'ला-रा' की बात हो रही है. लारा का मतलब लालू-राबड़ी प्रोजेक्ट्स से है. खबर ये भी है कि लालू ने मुसीबत से निकलने का प्लान-बी भी तैयार कर लिया है. जिस हिसाब से सीबीआई की कार्रवाई चल रही है अगर वैसी स्थिति में तेजस्वी यादव की गिरफ्तारी होती है तो उनकी जगह तेज प्रताप को डिप्टी सीएम बनाये जाने के कयास लगाये जा रहे हैं. वैसे इस रेस में आरजेडी के सीनियर नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी का नाम भी लिया जा रहा है.
दो दशक पहले लालू ने राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाकर सभी को चौंका दिया था - इस बार लालू के दिमाग में क्या पक रहा है? फिलहाल तो कोई नहीं जानता लेकिन एक सवाल जरूर उठ रहा है कि क्या पहले के मुकाबले लालू अब कमजोर पड़ रहे हैं?
लालू की ताकत
देखें तो लालू प्रसाद इस बार चौतरफा घिरे हैं. एक तरफ तो वो खुद के खिलाफ चल रहे केस से घिरे हैं जिसमें उन्हें पेशी से भी छूट नहीं मिल पा रही. पेशी के लिए उन्हें हर हफ्ते रांची जाना पड़ रहा है. जिस दिन तेजस्वी से पटना में पूछताछ हो रही थी उस दिन भी लालू रांची कोर्ट में पेश होने गये थे. दूसरी तरफ, खुद लालू और उनके बेटे, दामाद और बेटी को जांच एजेंसियों ने घेर रखा है. तीसरी तरफ से बीजेपी उन्हें अपने टारगेट से उतरने नहीं दे रही है - और चौथा, नीतीश कुमार का वैसा साथ न मिलना जैसा चुनावों में बीजेपी को हराने में मिला था.
दरअसल महागठबंधन तो हकीकत में बस चुनाव नतीजों से पहले तक ही रहा, बाद में तो वो मजबूरी का ही गठबंधन बन कर रह गया है. फिर भी लालू और नीतीश दोनों की जरूरत ऐसी है कि मजबूरी में भी गठबंधन अटूट बना हुआ है.
अभी खबर आई थी कि प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से नीतीश कुमार को लालू के ठिकानों पर सीबीआई के छापों की जानकारी दे दी गयी थी. इसके पीछे दलील है कि सीबीआई को कानून व्यवस्था को लेकर चिंता थी इसलिए उसने पीएमओ से ऐसी गुजारिश की थी. जेडीयू नेता ऐसी खबरों को नीतीश को बदनाम करने की साजिश बता रहे हैं.
एक खबर ये भी आई थी कि लालू बच्चों को बचाने के लिए महागठबंधन की कुर्बानी देने को तैयार हो गये थे. इस सिलसिले में लालू ने बीजेपी के नेताओं से दिल्ली में मुलाकात भी की थी. इस मुलाकात के पीछे भी वही नाम आया जो लालू की बेनामी संपत्तियों को लेकर उछला था - सांसद प्रेम चंद गुप्ता.
इन सारे घटनाक्रम के दरम्यान सवाल ये उठता है कि क्या लालू कमजोर पड़ रहे हैं? क्या लालू की राजनीति भी उसी मोड़ पर पहुंच चुकी है जहां मायावती की राजनीति खड़ी है? जिस तरह मायावती की राजनीति दलित की बेटी के साथ नाइंसाफी के नारे में सिमट कर रह गयी है, उसी तरह लालू प्रसाद का सामाजिक न्याय का स्लोगन भी उल्टा अर्थ बताने लगा है. लालू के विरोधी घूम घूम कर समझाने लगे हैं कि लालू के सामाजिक न्याय का मतलब पारिवारिक समृद्धि से ज्यादा नहीं है. चारा से लारा तक इसकी मिसाल हैं.
तो क्या मान लिया जाये कि लालू कमजोर पड़ चुके हैं? इस सवाल का जवाब कोई भी हां में देने को तैयार नहीं है. तर्क है कि लालू के विरोधी लोगों को जो भी समझायें - उन्हें भी सीबीआई के कामकाज का तरीका नजर आ रहा है. सीबीआई को व्यापम घोटाले से ज्यादा लालू और उनके परिवार के खिलाफ मामलों रुचि ज्यादा क्यों है, सबको मालूम है.
ऐसी तमाम वजहें हैं कि लालू के समर्थक उनके साथ खड़े मिलेंगे. हां, 27 अगस्त को लालू की रैली होगी या नहीं ये कहना फिलहाल मुश्किल है.
कौन बनेगा डिप्टी सीएम?
1997 में जब चारा घोटाले के चलते लालू के इस्तीफे की नौबत आई तो मुख्यमंत्री के कई दावेदार थे, लेकिन लालू ने सिर्फ राबड़ी देवी पर भरोसा किया. इस बार लालू के बेटे तेजस्वी पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है. तेजस्वी के खिलाफ सीबीआई के प्राथमिकी दर्ज कर लेने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर भी तेजस्वी को मंत्रिमंडल में बनाये रखने को लेकर दबाव बढ़ गया है. बीजेपी नेता और उनके साथ डिप्टी सीएम रह चुके सुशील मोदी नीतीश को लगातार चैलेंज कर रहे हैं. वो नीतीश को बार बार याद दिला रहे हैं कि कैसे वो मंत्रियों के इस्तीफे मांग लेते रहे.
आरजेडी खेमे में चर्चा है कि लालू तेजस्वी की जगह तेज प्रताप को डिप्टी सीएम की कुर्सी पर बिठा सकते हैं. नीतीश सरकार में डिप्टी सीएम आरजेडी कोटे के लिए रिजर्व है. उम्र में छोटे होने के बावजूद तेजस्वी कैबिनेट में तेज प्रताप से सीनियर हैं. तेज प्रताप के मुकाबले लालू तेजस्वी को ज्यादा समझदार मानते हैं. लेकिन क्या तेज प्रताप को लालू इतने समझदार मानते हैं कि नीतीश सरकार में दखलंदाजी उनके भरोसे छोड़ सकें? चर्चा तो यही रहती है कि तेज प्रताप तो सिर्फ नाम के मंत्री हैं, उनके विभाग के अफसरों से भी लालू उन्हें बाहर भेज कर ही बात करते हैं.
तेज प्रताप के बाद अब्दुल बारी सिद्दीकी का नाम चल रहा है. सिद्दीकी सीनियर और अनुभवी नेता हैं. चुनाव बाद वो नीतीश सरकार में सबसे वरिष्ठ होने के दावेदार थे. मगर, बेटा होने के कारण तेजस्वी से पीछे रह गये. सिद्धीकी के सामने एक बार फिर मौका है, लेकिन ये सब इस बात पर निर्भर करता है कि लालू के मन में क्या बात है?
एक बार लालू जेल जाते हैं तो कुर्सी पर राबड़ी को बिठा कर सत्ता का रिमोट साथ लिये जाते हैं. जब जेल से छूट कर आते हैं तो बिहार में अपने मन की सरकार बनवा लेते हैं. एक बार फिर जब जेल के मुहाने पर हैं तो भी लालू की कोशिश यही होगी कि सलाखों के पीछे भी उतने ही ताकतवर बने रहें जितना बाहर होते हैं. तेज प्रताप का प्रमोशन काफी कुछ इन्हीं बातों पर निर्भर करता है.
रही बात लालू के ताकत की तो मौजूदा दौर में उनकी ताकत का बड़ा हिस्सा अब भी नीतीश ही हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि बीजेपी के हाथों की कठपुतली बनने की जगह नीतीश जब तक संभव होगा महागठबंधन को टूटने नहीं देंगे. नीतीश ये जरूर चाहेंगे कि लालू के पास इतनी ज्यादा ताकत न हो कि उनके लिए कुर्सी पर बैठे रहना मुश्किल हो जाये.
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