यूपी में क्या अखिलेश यादव भी सत्ता में दोबारा वापसी कर पाएंगे? ये सवाल मौजूं हुआ है जयललिता और ममता बनर्जी की सत्ता में शानदार वापसी के बाद?
जिस तरह चेन्नई की बाढ़ के दौरान सिस्टम के फेल होने को लेकर जयललिता की आलोचना हुई. जिस तरह ममता बनर्जी के साथियों के स्टिंग ऑपरेशन में फंसने के बाद ममता को घेरा गया. फिर भी दोनों ने सत्ता की राह में आने वाली हर रुकावट को खत्म करते हुए कामयाबी हासिल की.
तो क्या जया और ममता के बाद अब अखिलेश की बारी है? अगर हां, तो ये कैसे मुमकिन है?
मुफ्त, मुफ्त, मुफ्त
मुफ्त की चीजें लोगों को खींचती हैं. जिस सामान के साथ कुछ मुफ्त में मिलने की बात हो वो ज्यादा ग्राहकों को आकर्षित करता है. शायद इसीलिए अब ग्राहकों को बटोरने के लिए पूरे साल मुफ्त वाली स्कीमें तैयार की जाती हैं.
2009 में यूपीए सरकार की वापसी में भी मनरेगा की बड़ी भूमिका मानी गई. 100 दिन रोजगार की गारंटी वाली ये स्कीम के जरिये कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन ने खूब वोट बटोरे थे.
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चुनाव के ऐन पहले जयललिता ने 100 यूनिट मुफ्त बिजली, मोपेड खरीदने पर सब्सिडी और शादी के मौके पर मंगलसूत्र के लिए आठ ग्राम सोने की घोषणा कर विपक्षी दलों की सारी कोशिशों पर पानी ही फेर दिये.
वैसे अम्मा कैंटीन से लेकर अम्मा सीमेंट और नमक तक जयललिता ने ढेरों रेंज लाकर चुनावी बाजार पहले से ही पाट रखे थे.
ममता तो जयललिता से भी दो कदम आगे निकलीं और तकरीबन हर तबके के लिए कुछ न कुछ मुफ्त में दिया. जया ने वोटरों की शादी में सोना चमकाया तो ममता ने कैश. इसी तरह बेरोजगारों को भत्ता तो इमामों और दुर्गा पूजा पंडालों को भी कैश बांटे.
साइकल की सवारी |
मजदूर के दिवस के मौके पर अखिलेश यादव भी समाजवादी कैंटीन की शुरुआत कर चुके हैं जिसके तहत मजदूरों को 10 रुपये में लंच परोसा जाता है. उद्घाटन के मौके पर खुद अखिलेश यादव ने भी मजदूरों के साथ खाना खाया. लेकिन बात जब दलितों की आती है तो कहते हैं, “इसके पहले भी एक नेता दलितों के घर बिसलरी की बोतल के साथ खाना खा चुके हैं... हम दलितों के घर भोजन करने का ढोग नहीं करते.” अखिलेश एक ही साथ अमित शाह और राहुल गांधी दोनों को टारगेट करते हैं.
वोट बैंक
अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव दोनों मिल कर यही कोशिश करेंगे कि किसी भी सूरत में एक भी यादव वोट दूसरे के हाथ न लगने पाये. यादव के बाद उनकी सबसे बड़ी चुनौती मुस्लिम वोट है. बीजेपी को छोड़ कर मुस्लिम वोट के दो-दो दावेदार हैं. पहली दावेदार इस बार मायावती हैं जो दलित-मुस्लिम गठजोड़ के फॉर्मूले पर रणनीति तैयार कर रही हैं. मायावती के बाद कांग्रेस अपना पुराना जनाधार जुटाने में जुटी हुई है.
इनके अलावा पिछड़े और अति पिछड़ों में पहुंच कायम रखने के लिए भी कोशिशें जारी हैं.
घर वापसी
बेनी प्रसाद वर्मा की समाजवादी पार्टी में वापसी के पीछे भी बड़ा कारण वोट बैंक ही है. बाराबंकी और आस पास के इलाकों में उनका प्रभाव तो माना ही जाता है यूपी के दूसरे क्षेत्रों में भी उनके जरिये कुर्मी वोटों को साधने में मदद मिल सकती है.
अमर सिंह की घर वापसी औपचारिक रूप से भले ही दल में न हुई हो, लेकिन इस बात की सार्वजनिक घोषणा तो हो ही चुकी है कि वो नेताजी के दिल में समा चुके हैं. दिल के इस रिश्ते पर इस बार कई हॉर्स पावर का चुनावी दबाव होगा.
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इन सब के अलावा अखिलेश यादव इस बार ब्रांडिंग पर भी जोर दे रहे हैं. इस मामले में वो मायावती से प्रेरित नजर आ रहे हैं. यूपी में जगह जगह साइकल ट्रैक बनाए गये हैं. लखनऊ और नोएडा के अलावा कई शहरों में कार्य प्रगति पर है. मौका देख कर मुफ्त में साइकल बांटी भी जा रही हैं. मजदूर दिवस पर 1000 साइकल बांटी गईं. बताया गया कि इसके मजदूरों को काम पर आने जाने में सुविधा होगी.
चुनाव से कुछ ही महीने पहले चेन्नई में आई बाढ़ को लेकर सिस्टम की लापरवाही की बात हुई तो कोलकाता में फ्लाईओवर गिरने पर मायावती पर खूब हमले हुए - लेकिन चुनावों में इनसे दोनों में से किसी पर फर्क नहीं पड़ा. न तो जया के विरोधी लोगों को उनकी जेल यात्रा की याद दिला सके न ममता के राजनीतिक दुश्मन उनके साथियों के स्टिंग में फंसने की बात समझा सके.
वैसे अखिलेश के सामने फिलहाल ऐसी चुनौती तो नहीं है लेकिन यूपी में शराबबंदी का मुद्दा जरूर गर्मा सकता है. हाल ही में अखिलेश सरकार ने शराब पर लगने वाली एक्साइज ड्यूटी में 25 फीसदी की रियायद दे रखी है.
हालांकि, शराबबंदी के बारे में पूछने पर अखिलेश कहते हैं, “शराब नहीं पीनी चाहिए. जो लोग दवा समझ कर इसे पी रहे हैं, उन्हें भी इसे छोड़ देनी चाहिए.”
साथ ही, अखिलेश दादरी, मथुरा और मुजफ्फरनगर जैसे मसलों से कैसे निबटते हैं ये उनकी काबिलियत पर निर्भर करता है. ऐसे और भी मुद्दे उठ सकते हैं इसके लिए भी उन्हें पहले से तैयार रहना होगा.
साफ है कि पिछली बार की तरह इस बार भी अखिलेश यादव साइकल यात्रा पर चुनाव प्रचार के लिए निकलेंगे ही, ये बात अलग है कि इस बार चमचमाते साइकल ट्रैक रेड कार्पेट की तरह नजर आ रहे हैं. अब एक ही बात का डर है, कहीं चुनाव आयोग मायावती के पत्थर के हाथियों की तरह साइकल और ट्रैक ढकने का आदेश न जारी कर दे.
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