ये मान कर तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी चल रहा है - 2019 में बीजेपी के खिलाफ विपक्षी पक्के तौर पर पार्टियां मोर्चेबंदी करेंगी. उसी हिसाब से संघ बीजेपी के साथ मिल कर तैयारी भी कर रहा है.
फिलहाल देश में महागठबंधन की जोर शोर से पहले नीतीश कुमार कर रहे हैं. नीतीश ने यूपी चुनाव में भी बिहार जैसे महागठबंधन की कोशिश की थी, लेकिन सफल नहीं हो पाये.
अब नीतीश चाहते हैं कि ये पहले कांग्रेस की तरफ से हो क्योंकि वो सबसे बड़ी पार्टी है - और लेफ्ट साथ आये. क्या नीतीश नयी पहल कामयाब हो पाएगी या ये भी चुनावी सीजन में उगने वाले तीसरे मोर्चे की तरह मुरझा जाएगा?
नीतीश की पहल
पिछले डेढ़ दशक में हर चुनाव से पहले दिल्ली में विपक्षी दलों के नेताओं की एक-दो बैठक जरूर होती थी जिनमें कुछ क्षेत्रीय क्षत्रप भी शुमार होते रहे. पहले तो सब अच्छी अच्छी बातें करते लेकिन जैसे ही बात प्रधानमंत्री पद पर पहुंचती कोई किसी को नेता मानने को तैयार ही नहीं होता. तीसरे मोर्चे की गुंजाइश तब तक बनी रही जब तक राष्ट्रीय राजनीति में एनडीए और यूपीए दो मुख्य धड़े होते रहे. 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उभार और अब यूपी में योगी सरकार बनने के बाद बस एक ही मोर्चे की जगह बच रही है.
नीतीश का कहना है कि उन्होंने वाम दलों सीपीएम और सीपीआई इस बारे में बात की है, लेकिन वो चाहते हैं आगे की पहल कांग्रेस खुद करे. नीतीश का कहना है, 'बिहार जैसे महागठबंधन के लिए कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों को शुरुआती कदम उठाने चाहिए. कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है इसलिए उसे ही इस बारे में आगे बढ़कर सोचना चाहिए. राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन महासफल होगा.'
नीतीश की दलील कुछ इस तरह है कि अगर यूपी में गठबंधन समाजवादी...
ये मान कर तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी चल रहा है - 2019 में बीजेपी के खिलाफ विपक्षी पक्के तौर पर पार्टियां मोर्चेबंदी करेंगी. उसी हिसाब से संघ बीजेपी के साथ मिल कर तैयारी भी कर रहा है.
फिलहाल देश में महागठबंधन की जोर शोर से पहले नीतीश कुमार कर रहे हैं. नीतीश ने यूपी चुनाव में भी बिहार जैसे महागठबंधन की कोशिश की थी, लेकिन सफल नहीं हो पाये.
अब नीतीश चाहते हैं कि ये पहले कांग्रेस की तरफ से हो क्योंकि वो सबसे बड़ी पार्टी है - और लेफ्ट साथ आये. क्या नीतीश नयी पहल कामयाब हो पाएगी या ये भी चुनावी सीजन में उगने वाले तीसरे मोर्चे की तरह मुरझा जाएगा?
नीतीश की पहल
पिछले डेढ़ दशक में हर चुनाव से पहले दिल्ली में विपक्षी दलों के नेताओं की एक-दो बैठक जरूर होती थी जिनमें कुछ क्षेत्रीय क्षत्रप भी शुमार होते रहे. पहले तो सब अच्छी अच्छी बातें करते लेकिन जैसे ही बात प्रधानमंत्री पद पर पहुंचती कोई किसी को नेता मानने को तैयार ही नहीं होता. तीसरे मोर्चे की गुंजाइश तब तक बनी रही जब तक राष्ट्रीय राजनीति में एनडीए और यूपीए दो मुख्य धड़े होते रहे. 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उभार और अब यूपी में योगी सरकार बनने के बाद बस एक ही मोर्चे की जगह बच रही है.
नीतीश का कहना है कि उन्होंने वाम दलों सीपीएम और सीपीआई इस बारे में बात की है, लेकिन वो चाहते हैं आगे की पहल कांग्रेस खुद करे. नीतीश का कहना है, 'बिहार जैसे महागठबंधन के लिए कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों को शुरुआती कदम उठाने चाहिए. कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है इसलिए उसे ही इस बारे में आगे बढ़कर सोचना चाहिए. राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन महासफल होगा.'
नीतीश की दलील कुछ इस तरह है कि अगर यूपी में गठबंधन समाजवादी पार्टी और बीएसपी को मिलाकर बना होता तो नतीजे बिहार जैसे ही हो सकते थे. इसके लिए नीतीश वोट शेयर का तर्क देते हैं.
मुमकिन कैसे हो?
अब तक तो यही होता रहा है कि कभी ममता बनर्जी की ओर से तो कभी अरविंद केजरीवाल की ओर से मोर्चेबंदी के प्रयास होते हैं - लेकिन कभी शरद पवार की वजह से केजरीवाल बंक मार देते हैं तो कभी किसी और वजह से अखिलेश यादव - और बात वहीं की वहीं रह जाती है.
अगर पंजाब या गोवा या दोनों चुनावों में केजरीवाल जीत गये होते तो शायद नीतीश और ममता से बढ़ कर उनकी दावेदारी बन पाती, लेकिन इस मामले में अभी वो नीतीश से काफी पीछे हैं. हालांकि, ममता के मुकाबले उनकी स्वीकार्यता ज्यादा हो सकती है और उसकी वजह शायद ममता का पश्चिम बंगाल से बाहर लोगों से कम कनेक्ट होना है.
नीतीश जिसे महागठबंधन नाम देना चाहते हैं हकीकत में वो पुराने असफल प्रयासों का तीसरा मोर्चा ही है. तीसरे मोर्चे के औंधे मुहं गिरने की वजह हमेशा एक से ज्यादा नेताओं के प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश रही है. निश्चित तौर पर नीतीश फिलहाल बाकियों के मुकाबले बीस हैं, लेकिन कांग्रेस के लिए तो राहुल गांधी के आगे उन्नीस ही हैं. केजरीवाल के पास एक और
मौका है - गुजरात चुनाव. अगर गुजरात में केजरीवाल बीजेपी को पटखनी दे देते हैं तो उनकी दावेदारी बन सकती है. लेकिन ये अभी ये सिर्फ ख्याली पुलाव ही होगा, अगर कहीं आप नेताओं के मन में भी है तो भी.
बिहार में कांग्रेस ने ही नीतीश कुमार को महागठबंधन का नेता और सीएम कैंडिडेट बनवाया था. बिहार से बाहर भी वैसा मॉडल मुमकिन है लेकिन वो कांग्रेस को हरगिज मंजूर नहीं होगा.
जैसे सोनिया गांधी की जगह मनमोहन सिंह को पीएम बनाने पर कांग्रेस राजी हो गयी, अगर उसी तरह एक बार फिर राहुल गांधी की जगह नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के लिए तैयार हो जाये - फिर तो महागठबंधन खड़ा हो जाएगा, वरना - तीसरे मोर्चे का इतिहास सबने देखा ही है.
कभी कमल का फूल बनाकर तो कभी नोटबंदी का सपोर्ट कर - और कभी बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन की गुहार लगा कर नीतीश कुमार की सियासत के कई रंग देखने को मिले हैं. कभी नीतीश और लालू के बीच तनातनी तो कभी बीजेपी से नजदीकियों को लेकर सुर्खियां बदलती रहती हैं, लेकिन एक बात हमेशा कायम रहती है - नीतीश कुमार की प्रधानमंत्री पद पर अर्जुन की तरह नजर की. क्या कभी नीतीश कुमार का किस्मत कनेक्शन मजबूत हो पाएगा? मुमकिन है, बशर्ते कांग्रेस नयी पहल करते हुए नीतीश को मनमोहन मान ले. मुश्किल ये भी है कि नीतीश भी कभी मनमोहन नहीं बन सकते.
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