29 सितंबर को जब यह खबर मिली की भारतीय सेना ने पीओके में घुसकर आतंकियों के कैंप को ध्वस्त कर दिया, तो इस देश का माहौल देखने वाला था. सेना ने जवाब पीओके में घुसकर दिया था और दूर छतीसगढ़ के बस्तर-जगदलपुर में सीआरपीएफ के जवान झूम रहे थे, और उनकी खुशी में शरीक था पूरा देश. जनभावना का वह उबाल उस कुंठा से निकलने की छटपटाहट का प्रतीक भी था, जहां देश यह मान बैठा था कि ऊरी या उस जैसी घटनाएं देश की नियति का हिस्सा बन चुकी हैं. आम धारणा यह बनती जा रही थी कि आतंकी यूं ही आएंगे, हमले करेंगे, निर्दोष लोग मारे जाएंगे, सुरक्षा जवानों की शहादतें होंगी, उनकी वीरता की चर्चाएं होंगी, पर इस बार कुछ अलग हो गया. पर, कुछ लोगों की बेचैनी बढ़ गई और उन्हें अब सबूत चाहिए.
हालांकि ये जाने-पहचाने चेहरे हैं, जिनका काम सवाल खड़े करना ही है. उनकी तरफ से कहा गया कि पाकिस्तान सवाल खड़े कर रहा है, विदेशी मीडिया में सवाल उठाए जा रहे हैं, इसलिए भारत सरकार को सबूत जारी करना चाहिए. ये चाहते हैं कि चूंकि पाकिस्तान 28 सितंबर को भारतीय सेना की कार्रवाई के दावे को खारिज कर रहा है, लिहाजा भारत को सबूत देना चाहिए. इसमें एक तो दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल हैं और दूसरे कांग्रेस के कुछ चेहरे हैं, जिनमें संजय निरूपम ज्यादा मुखर हैं. इनके व्यक्तित्व पर चर्चा ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है.
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29 सितंबर को जब यह खबर मिली की भारतीय सेना ने पीओके में घुसकर आतंकियों के कैंप को ध्वस्त कर दिया, तो इस देश का माहौल देखने वाला था. सेना ने जवाब पीओके में घुसकर दिया था और दूर छतीसगढ़ के बस्तर-जगदलपुर में सीआरपीएफ के जवान झूम रहे थे, और उनकी खुशी में शरीक था पूरा देश. जनभावना का वह उबाल उस कुंठा से निकलने की छटपटाहट का प्रतीक भी था, जहां देश यह मान बैठा था कि ऊरी या उस जैसी घटनाएं देश की नियति का हिस्सा बन चुकी हैं. आम धारणा यह बनती जा रही थी कि आतंकी यूं ही आएंगे, हमले करेंगे, निर्दोष लोग मारे जाएंगे, सुरक्षा जवानों की शहादतें होंगी, उनकी वीरता की चर्चाएं होंगी, पर इस बार कुछ अलग हो गया. पर, कुछ लोगों की बेचैनी बढ़ गई और उन्हें अब सबूत चाहिए.
हालांकि ये जाने-पहचाने चेहरे हैं, जिनका काम सवाल खड़े करना ही है. उनकी तरफ से कहा गया कि पाकिस्तान सवाल खड़े कर रहा है, विदेशी मीडिया में सवाल उठाए जा रहे हैं, इसलिए भारत सरकार को सबूत जारी करना चाहिए. ये चाहते हैं कि चूंकि पाकिस्तान 28 सितंबर को भारतीय सेना की कार्रवाई के दावे को खारिज कर रहा है, लिहाजा भारत को सबूत देना चाहिए. इसमें एक तो दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल हैं और दूसरे कांग्रेस के कुछ चेहरे हैं, जिनमें संजय निरूपम ज्यादा मुखर हैं. इनके व्यक्तित्व पर चर्चा ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है.
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सवाल यह कि पाकिस्तान ने अब तक स्वीकार क्या किया? क्या पाकिस्तान ने आज तक आतंकवाद को खुले तौर पर स्वीकार किया? क्या पाकिस्तान ने कभी स्वीकार किया था कि अमेरिका के 9/11 घटना का जिम्मेदार ओसामा बिन लादेन अबोटाबाद में छिपा बैठा है, दुनिया को तब पता चला, जब अमेरिकी नेवी सील कमांडो पाकिस्तान सीमा में घुसकर अपने मिशन को अंजाम देकर वापस लौट आए. क्या पाकिस्तान ने कभी माना कि दाऊद इब्राहिम और उसकी पलटन पाकिस्तान में छिपे बैठे हैं? क्या पाकिस्तान ने कभी स्वीकार भी किया कि कारगिल में रेगुलर पाक आर्मी के जवान घुसपैठ कर बैठे हुए थे. भारत की जवाबी कार्रवाई में जिन पाकिस्तान जवानों के शव पहाड़ियों में मिले, मुल्क के प्रशासन ने शर्मिंदगी से बचने के लिए उन शवों को स्वीकार करने तक से मना कर दिया, लिहाजा उनका अंतिम संस्कार भी भारतीय जवानों को ही करना पड़ा. क्या पाकिस्तान ने कभी यह स्वीकार किया कि पीओके में आतंकी कैंप हैं और बकायदा ट्रेनिंग सेंटर चल रहे हैं? तो क्या केजरीवाल और संजय निरूपम या दिग्विजय सिंह सरीखे राजनेता भारत से इस बात का भी सबूत मागेंगे कि भारत पहले साबित करे कि पाकिस्तान में आतंकवादी कैंप है और पाकिस्तान आतंकवाद को प्रश्रय दे रहा है? क्या इन सवालों के कोई मायने हैं?
मैंने अबोटाबाद ऑपरेशन की चर्चा की. आज तक किसी ने अमेरिका से यह नहीं पूछा कि उसने लादेन का मारने का वीडियो जारी क्यों नहीं किया? क्यों ऑपरेशन को अंजाम देकर चुपचाप उसके शव को समुद्र में दफन कर आए. जाहिर है, जिस लादेन को ढूंढने में अमेरिकी इंटेलीजेंस नेटवर्क कई साल तक जूझता रहा, अमेरिकी प्रशासन चाहता तो गाजे-बाजे के साथ सब कुछ दिखा सकता था, पर ऐसा नहीं किया गया. केवल एक आधिकारिक सूचना देकर ऑपरेशन की पुष्टि की गई. पाकिस्तान को तब भी सांप सूघ गया था, उसे समझ में तब भी नहीं आ रहा था कि इस घटना को किस तरह से स्वीकार किया जाए.
केजरीवाल और संजय निरूपम को दर्द इस बात का है कि पाकिस्तान भारत को झूठा साबित करने में लगा है. यही केजरीवाल है कि कुछ दिनों पहले तक अखबार के एक आलेख को ट्वीट कर यह दिखाने में जुटे थे कि भारतीय डिप्लोमेसी नाकाम हो चुकी है, उलटे पाकिस्तान भारत को अलग-थलग करने में सफल हो गया है. अब उनकी डिप्लोमेटिक समझ का आधार क्या था, यह तो वह ही बता सकते हैं, पर सब महसूस कर रहे हैं कि किस तरह भारत ने न सिर्फ सार्क में, बल्कि संयुक्त राष्ट्र की बैठक में पाकिस्तान को हाशिए पर ला खड़ा किया. हालात ऐसे बने कि सर्जिकल स्ट्राइक की घटना के बाद चीन भी खुलकर पाकिस्तान के साथ खड़ा होने से कतरा रहा है. आज पाकिस्तान सार्क देशों में पूरी तरह से अलग-थलग पड़ा हुआ है और मजबूर होकर नवंबर में होने वाले सार्क बैठक को रद्द करने की शर्मिदंगी भी झेलनी पड़ी है.
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केजरीवाल, संजय निरूपम और दिग्विजय सिंह जैसे लोगों का यह भी दावा है कि उन्हें भारतीय सेना पर गर्व है, पर सरकार पर थोड़ा शक है. सर्वप्रथम, अगर भारतीय सेना पर गर्व और भरोसा है तो सर्जिकल स्ट्राइक की घोषणा सरकार या उसके किसी मंत्री ने तो नहीं किया, डीजीएमओ रणबीर सिंह ने किया, जिस पर अब इन लोगों को शक है. अगर वाकई भारतीय सेना पर भरोसा है, तो जरा इन्हें इटावा से शहीद नितिन के परिवार वालों को गौर से सुनना चाहिए था.
बारामूला की घटना में शहीद नितिन यादव का परिवार ही नहीं, पूरा गांव आज अपने को गौरवान्वित महसूस कर रहा है, भाई कहता है कि मौका मिले तो सेना को ज्वाइन करने को तैयार है. कांग्रेस के कुछ नेता यह भी जताने में जुटे हैं कि सेना पहले भी ऐसे कारनामों को अंजाम दे चुकी है, लेकिन तब ढिंढोरा नहीं पिटा गया. अब सेना के किसी पराक्रम को क्यों छिपाया गया, उसके पीछे क्या झिझक थी, उसके पीछे की मजबूरी कांग्रेस ही बता सकती है, पर सच यही है कि आज किसी भी शहर के चौराहे पर लोग सेना की इस आपरेशन की चर्चा कर रहे हैं, हर एक खबर पर निगाह टिकी हुई हैं. और वजह साफ है, देश महसूस कर रहा है कि सेना को एक बार खुली छूट मिलनी चाहिए.
झज्जर में आर्मी चीफ जनरल सुहाग के 80 साल के पिता रामफल सुहाग की आंखों में इस बात का गर्व है कि जो दौर उन्होंने देखा या महसूस किया, उस पीड़ा को उनके बेटे ने काफी हद तक कम कर दिया. रामफल सुहाग कहते हैं कि तब सीमा पर पाक सैनिक चिढ़ाया करते थे कि तुम्हें तो हर एक्शन के लिए दिल्ली की तरफ देखना पड़ता है, जबकि वो अपना आदेश अपने पाकेट में लिए घूमते हैं.
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अगर कांग्रेस के कुछ नेताओं को सरकार पर शक है, तो अब शंका क्यों पैदा हुई. 29 सितंबर को कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को खुद सुषमा और राजनाथ ने पूरी जानकारी दी थी. शाम को सर्वदलीय बैठक में खुद डीजीएमओ ने पूरी घटना का सिलसिलेवार ब्योरा दिया, तब तमाम दल सरकार का साथ खड़े नजर आए. अब तक परंपरा भी यही रही है. राजनीति अपनी जगह, लेकिन राष्ट्रहित के मसलों पर कभी टकराव नहीं दिखा. गनीमत है कि पार्टी की मुख्यधारा की सोच अपने ऐसे कुछ नेताओं से मेल नहीं खाती, वरना पार्टी के अंदर का यह खास वर्ग, पहले भी कई मौकों पर पार्टी को मुसीबत में डाल चुका है.
इन नेताओं को पाक का इनकार दिख रहा है, पर बेचैनी नहीं दिख रही. यह बेचैनी खुद इस बात की तस्दीक कर रही है, कुछ तो ऐसा हुआ है, जिसकी उन्हें उम्मीद नहीं थी. घटना के बाद नवाज शरीफ को कोई गौर से सुन ले तो मसला समझ में आ जाएगा. अमूमन सीमा पार से गोलाबारी पर प्रधानमंत्री बयान दें, ऐसा कभी नहीं देखा गया, पर नवाज शरीफ का बयान कि भारत ने हमले जैसा काम किया है और इसका कड़ा जवाब दिया जाएगा. सेना प्रमुख राहेल शरीफ को तलब कर लिया गया, मुर्शरफ कह रहे हैं कि पाक सेना सही समय पर जवाब देगी, हाफिज सईद बदले की गुहार लगा रहा है, मियांदाद शहादत देने की बात कर रहे हैं, भारतीय चैनलों पर प्रतिबंध लगा दिया गया. सेना के आला अधिकारी सीमा क्षेत्र का दौरा कर रहे है, बुधवार को पाकिस्तान में संसद का संयुक्त सत्र बुला लिया गया. इतनी प्रतिक्रिया सिर्फ सीमापार की गोलाबारी के कारण तो नहीं दिखती. पर भारत में यह जमात ऐसी है कि इन्हें वीडियो सबूत चाहिए. शादी का वीडियो देखेंगे, तब ही मानेंगे कि शादी हुई, पति-पत्नी की स्वीकृति कोई मायने नहीं रखती. कमाल के लोग हैं.
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