भगत सिंह और कुछ और क्रांतिकारियों को आतंकवादी बताए जाने पर विवाद तो खड़ा होगा ही. दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल एक किताब में भगत सिंह को एक 'क्रांतिकारी आतंकवादी' बताया गया है. इससे अधिक अफसोसजनक बात कुछ नहीं हो सकती. दरअसल वामपंथी इतिहासकारों बिपिन चन्द्रा और मृदुला मुखर्जी द्वारा 'स्वतंत्रता के लिए भारत का संघर्ष' शीषर्क से लिखी इस पुस्तक के 20वें अध्याय में भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सूर्य सेन और अन्य को 'क्रांतिकारी आतंकवादी' बताया गया है.
हैरानी इसलिए और भी हो रही है कि यह पुस्तक दो दशकों से अधिक समय से दिल्ली यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम का हिस्सा रही है. और तो और इसमें चटगांव आंदोलन को भी 'आतंकी कृत्य' करार दिया गया है, जबकि अंग्रेज पुलिस अधिकारी सैंडर्स की हत्या को 'आतंकी कार्रवाई' कहा गया है. मजे कि बात यह है कि आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपे इस पुस्तक के पहले संस्करण में हमारे महान शहीदों को सीधे-सीधे 'आतंकवादी' शब्द से संबोधन किया गया है. वह तो बाद में विवाद बढ़ने पर बाद के लेखकों ने छलपूर्वक आतंकवादी के पहले क्रांतिकारी शब्द जोड़ दिया.
किताब का विवादित अंश |
बेशक, आजादी के 68 साल के बाद भी देश को आजाद कराने में अपने जीवन का बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों के लिए क्रांतिकारी आतंकवादी जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाना शर्मनाक है. एक बार तो क्रांतिकारी आतंकवादी जैसे शब्द सुनकर लगता है मानो बात ओसामा बिन लादेन या भिंडरावाला की हो रही है.
कत्ल करोड़ों का...
जरा यह भी देखिए और गौर कीजिये कि भगत सिंह को वामपंथी इतिहासकार आतंकवादी क्रांतिकारी बता रहे हैं. जब इनसे...
भगत सिंह और कुछ और क्रांतिकारियों को आतंकवादी बताए जाने पर विवाद तो खड़ा होगा ही. दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल एक किताब में भगत सिंह को एक 'क्रांतिकारी आतंकवादी' बताया गया है. इससे अधिक अफसोसजनक बात कुछ नहीं हो सकती. दरअसल वामपंथी इतिहासकारों बिपिन चन्द्रा और मृदुला मुखर्जी द्वारा 'स्वतंत्रता के लिए भारत का संघर्ष' शीषर्क से लिखी इस पुस्तक के 20वें अध्याय में भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सूर्य सेन और अन्य को 'क्रांतिकारी आतंकवादी' बताया गया है.
हैरानी इसलिए और भी हो रही है कि यह पुस्तक दो दशकों से अधिक समय से दिल्ली यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम का हिस्सा रही है. और तो और इसमें चटगांव आंदोलन को भी 'आतंकी कृत्य' करार दिया गया है, जबकि अंग्रेज पुलिस अधिकारी सैंडर्स की हत्या को 'आतंकी कार्रवाई' कहा गया है. मजे कि बात यह है कि आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपे इस पुस्तक के पहले संस्करण में हमारे महान शहीदों को सीधे-सीधे 'आतंकवादी' शब्द से संबोधन किया गया है. वह तो बाद में विवाद बढ़ने पर बाद के लेखकों ने छलपूर्वक आतंकवादी के पहले क्रांतिकारी शब्द जोड़ दिया.
किताब का विवादित अंश |
बेशक, आजादी के 68 साल के बाद भी देश को आजाद कराने में अपने जीवन का बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों के लिए क्रांतिकारी आतंकवादी जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाना शर्मनाक है. एक बार तो क्रांतिकारी आतंकवादी जैसे शब्द सुनकर लगता है मानो बात ओसामा बिन लादेन या भिंडरावाला की हो रही है.
कत्ल करोड़ों का...
जरा यह भी देखिए और गौर कीजिये कि भगत सिंह को वामपंथी इतिहासकार आतंकवादी क्रांतिकारी बता रहे हैं. जब इनसे आप किसी मसले पर तार्किक विवाद कि बात करो तो ये आपको तुरंत 'असहिष्णु' होने का खिताब दे देंगे. जरा इनकी राय से अलग बात करने का साहस तो दिखाइये. ये वामपंथी उसी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं, जिसके तहत पूर्व सोवियत संघ, चीन, वियतनाम, उत्तर कोरिया, पूर्वी यूरोप, अफगानिस्तान वगैरह में करीब दस करोड़ लोगों को 1925 से 1990 तक इनके आकाओ ने बेरहमी से मौत के घाट उतारा था. इसलिए क्योंकि उन्हीं के मूल विचारधारा वाले देशों में कम्युनिस्ट शासकों का अत्याचार हद से बाहर हो गया और लोगों अपने सरकारों की नीतियों को चुनौती देने की हिमाकत की थी.
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भगत सिंह और बाकी शिखर क्रांतिकारियों को लेकर उठे ताजा बवाल के आलोक में कुछ समय पहले प्रकाशित पुस्तक 'डार्क कम्युनिज्म- क्राइम, टेरर, रिपरेशन' का यहां पर जिक्र करना जरूरी होगा. इसमें रूस, चीन, पोलैंड, नार्थ कोरिया जैसे देशों में वामपंथी सरकारों/शासकों से इतर राय रखने वालों का किस तरह से कत्लेआम हुआ, उसका दिल-दहलाने वाला खुलासा किया गया है. मजे कि बात यह है कि इस पुस्तक में निबंध उन्हीं लोगों ने लिखे हैं, जिन्होंने अपने-अपने देशों में सारे घटनाक्रमों को अपनी नजरों से देखा था. रूस से लेकर चीन की कम्युनिस्ट व्यवस्था को आदर्श बताने वाले बिपिन चंद्रा से लेकर मृदुला मुखर्जी ने कभी ये नहीं बताया कि किस तरह से स्टालिन के सोवियत संघ में पौने तीन करोड़, चीन में 6 करोड़, नार्थ कोरिया में 20 लाख, वियतनाम में 10 लाख, 30 लाख पूर्व यूरोप के देशों जैसे पोलैंड, रोमानिया, चेकोस्लावाकिया में, 20 लाख अफगानिस्तान वगैरह में लोग मार डाले गए.
मतलब, कम्युनिस्ट देशों में साल 1990 तक सरकारों/ शासकों से अलग राय रखने वाले 9.80 करोड़ लोग कत्ल कर दिए गए. दूसरे विश्व महायुद्ध में 40 लाख लोग मारे गए थे. इसमें हिरोशिमा और नागासाकी में एटम बम विस्फोट की विभीषिका में मारे गए लोग भी थे. यानी विश्व युद्ध से बीस गुना ज्यादा लोग तो कम्युनिस्ट देशों में मारे गए. अब किसी ज़माने में कम्युनिस्ट व्यवस्था को ही सबसे उत्तम व्यवस्था बताने वाले भगत सिंह को भी ये ही कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आतंकवादी कह रहे हैं. सवाल ये है कि जिन विभूतियों को देश का जनमानस स्वत: स्फूर्त भाव से शहीद और शहीद-ए-आजम मानता है, उनके प्रति अपमान का भाव रखने की अनुमति कैसे दी जाती रही.
भगत सिंह को फांसी की सज़ा मिलने के बाद कानपुर से निकलने वाले 'प्रताप' और इलाहाबाद से छपने वाले 'भविष्य' जैसे अखबारों ने उनके नाम से पहले शहीद-ए-आजम लिखना शुरू कर दिया था. जनमानस ने उन्हें अपने स्तर पर ही शहीदे-ए-आजम कहना शुरू कर दिया था. जब भगत सिंह को शहीद-ए-आजम अवाम कहने लगा तो कुछ वामपंथी इतिहासकार उन्हें पहले तो सीधे-सीधे आतंकवादी और अब विरोध होने पर क्रांतिकारी आतंकवादी बता रहे हैं. इनकी बुद्धि पर तरस के सिवा क्या किया जाये.
जीवनकाल में लीजेंड
निश्चित रूप से भगत सिंह अपने जीवन काल में ही लीजेंड बन गए थे. उनकी फांसी की खबर के बारे में जैसे ही देश को मालूम चला तब पूरा का पूरा देश गुस्से में उबलने लगा था. अंग्रेजों के खिलाफ आक्रोश चरम पर पहुंच गया. भगत सिंह जैसे राष्ट्र भक्त सदियों में एक बार जन्म लेते हैं. उन्हें शहीद हुए एक अरसा गुजर चुका हैं. उसके बाद भी वे देश के नौजवानों को प्रेरित करते हैं. मुझे याद है कि कुछ साल पहले एक प्रमुख अंग्रेजी पत्रिका ने एक सर्वेक्षण किया था. सवाल पूछा गया कि जनता सबसे अधिक किस स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी शख्सियत से प्रभावित है. उस पोल में भगत सिंह अन्य सब पर भारी पड़े थे.
भगत सिंह की तरह से गांधी जी भी तो एक प्रकार से शहीद ही हुए थे. पर उन्हें कोई शहीद या शहीदे-ए-आजम नहीं कहता. इससे उनका कद छोटा नहीं हो जाता. गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, डॉ राजेंद्र प्रसाद, अम्बेडकर जैसी शख्सियतों को किसी के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है कि वे क्या थे. कम्युनिस्टों के प्रमाण पत्र की तो हरगिज नहीं जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम का खुलकर विरोध किया था और अंग्रेजों कि मुखबिरी कि थी. भगत सिंह को वो महान वामपंथी आतंकवादी बता रहे हैं, जो चीन के साथ 1962 की जंग में भारत की बजाय शत्रु के साथ खड़े थे. तब केरल और पश्चिम बंगाल में कई वामपंथी नेताओं को युद्ध के बाद गिरफ्तार तक किया गया. ये ही तब कह रहे थे कि भारत ने चीन पर हमला बोला है. यानी ये उल्टी गंगा बहा रहे थे. इसी बिरादरी से संबंध रखते हैं बिपिन चंद्रा और मृदुला मुखर्जी.
साल 1962- बसु से कन्हैया तक
जरा इतिहास के पन्नों को खंगालिए तो मालूम चल जाएगा कि जिस समय हमारे योद्धा चीनी फौजों से लोहा ले रहे थे रणभूमि में, तब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी कथित विचारधारा को देश के हित से ऊपर माना था. और तो और केरल में एकाधछोटे वामपंथी नेताओं ने भारतीय जवानों के लिए रक्त दान की अपील की तो उन्हें पार्टी संगठन में पैदल कर दिया गया. ज्योति बसु, ईएमएस नंबूदरिपाद, हरकिन सिंह सुरजीत सब चीन के साथ खड़े थे. उसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए अब जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कह रहे हैं कि कश्मीर में भारतीय सेना वहां की औरतों के साथ रेप कर रही है.
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देश में अभिव्यक्ति पर हमला होता देखने वाले वामपंथी देश में इमरजेंसी के दौर में इंदिरा गांधी के साथ थे. क्या देश उनके उस कृत्य को भूल सकता है? इंदिरा गांधी ने प्रेस को जकड़ लिया था. तब यही वामपंथी उनके साथ थे. आपको याद होगा कि आपातकाल के दौरान वामपंथियों का सरकार पर दबदबा रहा. उन्होंने उस दौर में इंदिरा गांधी की सरकार को जो सहयोग दिया उसके बदले में उन्हें खूब मलाई खाने को मिली. बडे-बड़े पद मिले. इतिहास से छेड़छाड़ करने की छूट मिली. एनजीओ के नाम पर हजारों करोड के सरकारी प्रोजेक्ट मिले.
और अब पता चल रहा है कि ये वामपंथी एक खास एजेंडे के तहत भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद सरीखे क्रांतिकारियों को क्रांतिकारी आतंकवादी का प्रमाणपत्र दे रहे हैं. ये शर्मनाक है. भारत सरकार को चाहिए कि एसे तमाम मानसिक तौर पर विकृत तथाकथित इतिहासकारों के पुस्तकों पर देशभर में पाबन्दी लगाए.
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