भारत जैसे अधकचरे लोकतंत्र में सरकार में होना महत्तम जिम्मेदारी होती है, लेकिन विपक्ष में होना न्यूनतम जिम्मेदारी भी नहीं होती. इसलिए सरकार में बैठे लोगों को यह समझना होगा कि उनकी तरफ से न्यूनतम गलतियों की भी गुंजाइश नही होनी चाहिए, वरना विपक्ष की तरफ से महत्तम विरोध झेलने के लिए वे तैयार रहें.
परफॉर्म करना बहुत मुश्किल है. नॉन-परफॉरमेंस का आरोप अब तक की लगभग सभी सरकारों पर है. लेकिन आलोचना करना बहुत आसान है. आलोचना किसी भी चीज की की जा सकती है. आलोचना शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भी की जा सकती है और दो-चार सौ लोगों को मौत के घाट उतार देने वाले आतंकवादियों को मिली फांसी की भी की जा सकती है.
ऐसे भी बीजेपी हमेशा से अपने को बहुसंख्यकों की पार्टी मानने की भूल करती रही है, जबकि सच्चाई यह है कि वह अल्पसंख्यकों की पार्टी है. वह जिस आभिजात्य मध्यवर्ग और व्यापारियों-कारोबारियो की पार्टी मानी जाती है, देश की जनसंख्या में वह अल्पमत में है और अल्पसंख्यक है. जाति और संप्रदाय के गणित में देश की बहुसंख्य आबादी बीजेपी का समर्थन नहीं करती.
ऊपर से बीजेपी ने अपनी सरकार का मुखिया एक ऐसे व्यक्ति को बनाने का दुस्साहस किया, जिससे देश की उपरोक्त बहुसंख्य आबादी हमेशा से चिढ़ी हुई है. इसलिए एक तो- पहली बार पूर्ण बहुमत वाली उसकी सरकार, दूसरा- उसका मुखिया सबकी आंखों की किरकिरी है. ऐसे में यह अप्रत्याशित नहीं है कि उसकी जरा-सी चूक पर एकजुट विपक्षी दल और बुद्धजीवी उसे नोंच खाने को तैयार हो जाते हैं.
बीजेपी की सरकार के पास तमाम चक्रव्यूहों को तोड़ने का एक ही रास्ता था. कांग्रेस के दस साल के कुटिल शासन से त्रस्त जनता को फौरी राहत देने और चुनावी वादों पर तेजी से अमल करने का. लेकिन सत्ता में आते ही उसने जबर्दस्त यू-टर्न मारा. उसने दलील दी कि विकास के लिए पैसा चाहिए और पैसा जुटाने के नाम पर उसने लोगों की जेबें काटनी शुरू कर दीं.
उसने आते ही रेल किराये बढ़ाए और बार-बार बढ़ाए. पेट्रोल-डीज़ल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई और...
भारत जैसे अधकचरे लोकतंत्र में सरकार में होना महत्तम जिम्मेदारी होती है, लेकिन विपक्ष में होना न्यूनतम जिम्मेदारी भी नहीं होती. इसलिए सरकार में बैठे लोगों को यह समझना होगा कि उनकी तरफ से न्यूनतम गलतियों की भी गुंजाइश नही होनी चाहिए, वरना विपक्ष की तरफ से महत्तम विरोध झेलने के लिए वे तैयार रहें.
परफॉर्म करना बहुत मुश्किल है. नॉन-परफॉरमेंस का आरोप अब तक की लगभग सभी सरकारों पर है. लेकिन आलोचना करना बहुत आसान है. आलोचना किसी भी चीज की की जा सकती है. आलोचना शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भी की जा सकती है और दो-चार सौ लोगों को मौत के घाट उतार देने वाले आतंकवादियों को मिली फांसी की भी की जा सकती है.
ऐसे भी बीजेपी हमेशा से अपने को बहुसंख्यकों की पार्टी मानने की भूल करती रही है, जबकि सच्चाई यह है कि वह अल्पसंख्यकों की पार्टी है. वह जिस आभिजात्य मध्यवर्ग और व्यापारियों-कारोबारियो की पार्टी मानी जाती है, देश की जनसंख्या में वह अल्पमत में है और अल्पसंख्यक है. जाति और संप्रदाय के गणित में देश की बहुसंख्य आबादी बीजेपी का समर्थन नहीं करती.
ऊपर से बीजेपी ने अपनी सरकार का मुखिया एक ऐसे व्यक्ति को बनाने का दुस्साहस किया, जिससे देश की उपरोक्त बहुसंख्य आबादी हमेशा से चिढ़ी हुई है. इसलिए एक तो- पहली बार पूर्ण बहुमत वाली उसकी सरकार, दूसरा- उसका मुखिया सबकी आंखों की किरकिरी है. ऐसे में यह अप्रत्याशित नहीं है कि उसकी जरा-सी चूक पर एकजुट विपक्षी दल और बुद्धजीवी उसे नोंच खाने को तैयार हो जाते हैं.
बीजेपी की सरकार के पास तमाम चक्रव्यूहों को तोड़ने का एक ही रास्ता था. कांग्रेस के दस साल के कुटिल शासन से त्रस्त जनता को फौरी राहत देने और चुनावी वादों पर तेजी से अमल करने का. लेकिन सत्ता में आते ही उसने जबर्दस्त यू-टर्न मारा. उसने दलील दी कि विकास के लिए पैसा चाहिए और पैसा जुटाने के नाम पर उसने लोगों की जेबें काटनी शुरू कर दीं.
उसने आते ही रेल किराये बढ़ाए और बार-बार बढ़ाए. पेट्रोल-डीज़ल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई और बार-बार बढ़ाई. सर्विस टैक्स बढ़ाया और बार-बार बढ़ाया. उसे अब तक यह समझ में नहीं आ रहा है कि आम गरीब जनता उसके ‘पहले नौ मन तेल होगा, फिर राधा नाचेगी’ वाले फॉर्मूले के लिए धैर्य नहीं रख सकती. उसने तो उसके ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ वाले नारे पर भरोसा किया था.
यह विडंबना ही है कि न तो लोगों को महंगाई से राहत मिली, न बेरोज़गारी का हल दिख रहा. बैंकों का एनपीए बोझ बढ़ता जा रहा है, रुपया गिरता जा रहा है. औद्योगिक उत्पादन भी प्रभावित हुआ है. सभी सेक्टरों में हाहाकार है. आम से लेकर खास तक सभी सिर धुन रहे हैं. काला धन नहीं आया, नहीं आया... पर पाकिस्तान भी तो पटरी पर नहीं आया, जिसे लेकर उसने बड़ी-बड़ी बातें की थीं.
यानी पौने दो साल हो गए, पर सरकार चुनावी वादों को पूरा करने की दिशा में फेल है. अगर इस बजट में भी उसने लोगों को राहत नहीं दी और उनके अच्छे दिनों की उम्मीद को आधार नहीं दिया, तो उसकी मुश्किलें बढ़ने वाली हैं. सिर्फ भावनात्मक मुद्दों पर दिन-रात टीवी डिबेट सुनकर जनता का पेट नहीं भरता. देशद्रोह का मुद्दा एक खास मध्यवर्ग को ज़रूर उद्वेलित करता है, लेकिन अन्य किसी को इससे फर्क नहीं पड़ता.
कुल मिलाकर, बीजेपी को सोचना होगा कि जब अपने समर्थक भी निराश हों, तो विरोधियों को कोई भी मौका देना आत्मघाती है. इसलिए उसे विवादास्पद मुद्दों से दूरी बनाए रखते हुए और अपने बेलगाम घोड़ों पर लगाम कसते हुए अधिक से अधिक परफॉर्मेंस पर ध्यान देना होगा, वरना उसका राम भी मालिक नहीं है, क्योंकि अब राम नाम के राजनीतिक इस्तेमाल की संभावनाएं भी समाप्त हो चुकी हैं.
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