उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं. भारतीय जनता पार्टी में अभी तक प्रदेश अध्यक्ष ढूंढा जा रहा है. पार्टी को अभी ऐसा सर्वमान्य चेहरा नहीं मिल रहा है जो सत्तारूढ़दल और मुख्यविपक्षी पार्टी के मुखिया से टक्कर ले सके. पार्टी पुराने नेताओं पर दांव लगाने पर भी ऊहापोह में है. क्योंकि सपा, बसपा ऐसे चेहरे हैं जो दलित और पिछड़ा दोनों की जगह भरने की क्षमता रखते हैं. कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अस्तित्व की लड़ाई लड़ती नजर आ रही है.
भाजपा के पुराने अध्यक्षों पर नजर डाले तों वह भी पार्टी के लिए कुछ खास नहीं कर सके हैं. भाजपा के लिए यह निराशा की बात है. जनसंघ के बाद 1980 में भाजपा का जन्म हुआ. उस समय के अध्यक्ष माधव प्रसाद त्रिपाठी आजीवन अध्यक्ष रहे. वह समय अलग था. जनसंघ वैचारिक आधार पर मजबूत था, लेकिन उसे सत्ता की दौड़ में नहीं माना जाता था. कल्याण सिंह ही ऐसे अध्यक्ष रहे जो सर्वमान्य थे. जन्मभूमि आन्दोलन के वह नायक थे. देखते ही देखते पार्टी मुख्य मुकाबले में आ गई. लेकिन पार्टी कल्याण का फिर विकल्प कभी नहीं तलाश सकी. उनके एक ललकार में पब्लिक झूम जाती थी. उनके विधानमण्डल दल में जाने के कारण पार्टी उस प्रकार का चार्म नहीं बरकार रख सकी. इसके बाद राजेन्द्र गुप्ता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बने. उनके बनने के बाद प्रत्याशी उन्हीं के घर और विधानसभा क्षेत्र के आस-पास ही गणेश परिक्रमा करता रहता था. वह कभी किसी भी विधान सभा में चुनाव प्रचार के लिए नहीं गये. कलराज मिश्रा भी पार्टी के कुछ खास नहीं कर सके. यहां तक उन्होंने अपना पहला चुनाव 2014 में लोकसभा का लड़ा. वह जनाधार विहीन ही रहे. पिछड़े वर्ग के नेता रहे विनय कटियार अध्यक्ष बनते ही कानपुर छोड़ अयोध्या चुनाव लड़ने पहुंचे, वहां भी चुनाव हार कर चले आए. फिर लखीमपुर खीरी में दांव अजमाया जहां चैथे नम्बर पर रहे. ज्यादा कुछ न कर पाने के बावजूद भी राष्ट्रीय स्तर पर मनोनित हो गये. नम्बर आया ओमप्रकाश सिंह का वह प्रदेश स्तर पर कभी अपना जनाधार नहीं बना सके. जनाधार के मामले में उनकी छवि चुनाव के आस-पास तक सीमित रही.
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं. भारतीय जनता पार्टी में अभी तक प्रदेश अध्यक्ष ढूंढा जा रहा है. पार्टी को अभी ऐसा सर्वमान्य चेहरा नहीं मिल रहा है जो सत्तारूढ़दल और मुख्यविपक्षी पार्टी के मुखिया से टक्कर ले सके. पार्टी पुराने नेताओं पर दांव लगाने पर भी ऊहापोह में है. क्योंकि सपा, बसपा ऐसे चेहरे हैं जो दलित और पिछड़ा दोनों की जगह भरने की क्षमता रखते हैं. कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अस्तित्व की लड़ाई लड़ती नजर आ रही है.
भाजपा के पुराने अध्यक्षों पर नजर डाले तों वह भी पार्टी के लिए कुछ खास नहीं कर सके हैं. भाजपा के लिए यह निराशा की बात है. जनसंघ के बाद 1980 में भाजपा का जन्म हुआ. उस समय के अध्यक्ष माधव प्रसाद त्रिपाठी आजीवन अध्यक्ष रहे. वह समय अलग था. जनसंघ वैचारिक आधार पर मजबूत था, लेकिन उसे सत्ता की दौड़ में नहीं माना जाता था. कल्याण सिंह ही ऐसे अध्यक्ष रहे जो सर्वमान्य थे. जन्मभूमि आन्दोलन के वह नायक थे. देखते ही देखते पार्टी मुख्य मुकाबले में आ गई. लेकिन पार्टी कल्याण का फिर विकल्प कभी नहीं तलाश सकी. उनके एक ललकार में पब्लिक झूम जाती थी. उनके विधानमण्डल दल में जाने के कारण पार्टी उस प्रकार का चार्म नहीं बरकार रख सकी. इसके बाद राजेन्द्र गुप्ता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बने. उनके बनने के बाद प्रत्याशी उन्हीं के घर और विधानसभा क्षेत्र के आस-पास ही गणेश परिक्रमा करता रहता था. वह कभी किसी भी विधान सभा में चुनाव प्रचार के लिए नहीं गये. कलराज मिश्रा भी पार्टी के कुछ खास नहीं कर सके. यहां तक उन्होंने अपना पहला चुनाव 2014 में लोकसभा का लड़ा. वह जनाधार विहीन ही रहे. पिछड़े वर्ग के नेता रहे विनय कटियार अध्यक्ष बनते ही कानपुर छोड़ अयोध्या चुनाव लड़ने पहुंचे, वहां भी चुनाव हार कर चले आए. फिर लखीमपुर खीरी में दांव अजमाया जहां चैथे नम्बर पर रहे. ज्यादा कुछ न कर पाने के बावजूद भी राष्ट्रीय स्तर पर मनोनित हो गये. नम्बर आया ओमप्रकाश सिंह का वह प्रदेश स्तर पर कभी अपना जनाधार नहीं बना सके. जनाधार के मामले में उनकी छवि चुनाव के आस-पास तक सीमित रही.
केसरीनाथ त्रिपाठी को ब्राह्मण होने के नाते सवर्ण को संगठित करने की जिम्मेदारी मिली लेकिन वह कुछ खास नहीं कर सके. और हमेशा विवादों में ही रहे. राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने. लेकिन उस समय की सफलता का श्रेय कल्याण सिंह को ही देना चाहिए था. राजनाथ के कार्यकाल में पार्टी 178 से 70 पर ही रह गई. उनके बारे में लोगों ने एक कहावत भी प्रचालित की है- जब-जब पार्टी का कद घटा है, तो राजनाथ का कद बढ़ा है. रामरमापति त्रिपाठी तो बिल्कुल जनाधार विहीन नेता रहे. आज तक वह पार्टी के लिए कुछ खास नहीं कर सके। सूर्य प्रताप शाही अध्यक्ष तो बने लेकिन भूमिहार वोटों को भी एकत्रित नहीं कर सके. मौजूदा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेई अनुशासन और त्वारित बयानों के वजह से सुर्खियों में तो बने रहे. पर संगठन कितना मजबूत हुआ यह सभी जानते है. अब जो अध्यक्ष पद की दौड़ में उनमें सबसे पहले स्वतंत्र देव सिंह आज तक कोई चुनाव नहीं जीत पाये. उनका जनाधार अपने ही क्षेत्र में नहीं प्रदेश के फलक तक कैसे आगे बढ़ेगें यह भविष्य के गर्त में है. दिनेश शर्मा लखनऊ से महापौर है. उन्हें गांवों में कौन पहचानता है. धर्मपाल सिंह राजनाथ सिंह के खास होने की वजह से चर्चा में तो है. उन्हें भी अपनी पहचान के लिए संघर्ष करना होगा.
अगर सूत्रों की की मानें तो भाजपा लोकसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करने के बाद भी अभी विधानसभा चुनावों के लिए बहुत ज्यादा कमजोर है. भाजपा के पास प्रदेश में अभी ऐसा कोई चेहरा नहीं बन पाया है, जिसके बदौलत 2017 का चुनाव लड़ा जा सके. एक कार्यकर्ता ने बताया कि कल्याण सिंह के बाद से अब तक ऐसा कोई नेता नहीं हुआ जिसके नाम पर भाजपा जानी जाए. राष्ट्रीय नेतृत्व भी प्रदेश में नए कल्याण सिंह की तलाश में जो पार्टी को उचाइयों पर ले जा सके. भाजपा का शीर्ष नेतृत्व बिहार चुनाव जतिगत समीकरण न समझ पाने की वजह से ही चुनाव हारा है. वह ऐसा कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहता जिससे भाजपा को पुनः वही स्थित को देखना पड़े भाजपा को ऐसे कल्याण की जरुरत है जो पार्टी को बुलंदियों पर पहुंचा दे.
प्रदेश अध्यक्ष बनने की रेस में लक्ष्मीकांत बाजपेयी सहित 7 लोगों के नाम शामिल हैं. गौरतलब है कि लक्ष्मीकांत बाजपेयी बीजेपी के मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष हैं और उनका कार्यकाल दिसंबर के बीच में ही खत्म हो गया है. इस पद के लिए पर्यटन मंत्री महेश शर्मा और मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री राम शंकर कठेरिया के नाम जोर-शोर से चर्चा में हैं. महेश शर्मा बीजेपी और आरएसएस के बड़े नेताओं के बेहद करीबी माने जाते हैं. इसके साथ ही शर्मा ने कई गंभीर मुद्दों पर बीजेपी का बचाव भी किया है. राम शंकर कठेरिया पश्चिमी यूपी के दलित नेता है जिन्होंने मायावती के दलित वोटबैंक को तोड़ने पर जोर दिया है. सूत्रों ने बताया है कि कठेरिया को बीजेपी का आदर्श कैंडिडेट माना जा रहा है वह हमेशा ही चुनाव जीतते रहे हैं साथ ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह की गुड बुक में भी उनका नाम शामिल है.
इन नामों के बावजूद भाजपा हाईकमान की परेशानी कम नहीं है. चेहरों की कमी नहीं लेकिन मुलायम, अखिलेश और मायावती को सीधी चुनौती देने वाले जनाधार युक्त नेता का उतना ही अभाव है. इधर स्मृति ईरानी के नाम की चर्चा शुरू हुई लेकिन उनके साथ बाहरी होने का मुद्दा जुड़ सकता है, तब सपा-बसपा इसी मुद्दे को तूल देगी. योगी अदित्यनाथ का नाम भी चर्चा में है। लेकिन उन पर फैसला नरेन्द्र मोदी के लिए आसान नहीं होगा.
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