इतनी ताकत बढ़ा लो कि हमें किसी की जरूरत नहीं हो.’’ 11 जनवरी को जब बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बिहार बीजेपी कोर ग्रुप के नेताओं के साथ बैठक की तो इस मूल मंत्र के साथ उन्होंने सामाजिक समीकरण को साधने का नया फॉर्मूला भी थमाया. लेकिन जिस तरह दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी आखिरी वक्त तक एक अदद चेहरे के संकट से जूझती रही, कमोबेश बिहार में भी वही हालात हैं. लिहाजा शाह ने ‘‘गो अहेड (आगे बढ़िए)’’ के साथ-साथ प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं को ताकीद कर दी कि नेतृत्व को लेकर किसी भी तरह की बयानबाजी और विवाद को पार्टी अब बर्दाश्त नहीं करेगी.
दरअसल, बीजेपी ने बिहार में चुनावी तैयारी नीतीश कुमार की जेडी(यू) से गठबंधन टूटने के बाद ही शुरू कर दी थी, जिसमें लोकसभा चुनाव के नतीजों ने पार्टी के उत्साह को एक नई दिशा दी. लेकिन लोकसभा चुनाव में पस्त पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने दुश्मनी भुलाकर जिस तरह गलबहियां कीं, उससे बिहार एक बार फिर जातियों के जाल में उलझता दिखने लगा और लोकसभा के तीन महीने बाद ही हुए विधानसभा उपचुनाव में नरेंद्र मोदी लहर पर सवार बीजेपी को पटखनी खानी पड़ी. इस नतीजे से पार्टी ने क्या सबक लिया, बिहार बीजेपी के प्रभारी महासचिव भूपेंद्र यादव कहते हैं, ‘‘चुनाव के परिणाम किसी भी तरह के आएं, सबकी समीक्षा की जाती है और हम सबका विश्लेषण करके ही रणनीतियों का संचालन करते हैं’’. जातीय समीकरण के आधार पर बने नीतीश-लालू के महागठजोड़ से मुकाबले को बीजेपी ने कमर कस ली है. शाह ने कोर ग्रुप से ऐसी रणनीति बनाने को कहा है जिससे लालू-नीतीश की सबसे बड़ी ताकत उनकी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाए. बिहार बीजेपी के प्रवक्ता देवेश कुमार कहते हैं, ‘‘चुनावी आगाज से पहले ही पार्टी ने सामाजिक आधार पर बड़ी लामबंदी कर ली है.’’
सामाजिक समीकरण का नया गुलदस्ता- सवर्ण वोट बैंक में खासा आधार रखने वाली...
इतनी ताकत बढ़ा लो कि हमें किसी की जरूरत नहीं हो.’’ 11 जनवरी को जब बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बिहार बीजेपी कोर ग्रुप के नेताओं के साथ बैठक की तो इस मूल मंत्र के साथ उन्होंने सामाजिक समीकरण को साधने का नया फॉर्मूला भी थमाया. लेकिन जिस तरह दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी आखिरी वक्त तक एक अदद चेहरे के संकट से जूझती रही, कमोबेश बिहार में भी वही हालात हैं. लिहाजा शाह ने ‘‘गो अहेड (आगे बढ़िए)’’ के साथ-साथ प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं को ताकीद कर दी कि नेतृत्व को लेकर किसी भी तरह की बयानबाजी और विवाद को पार्टी अब बर्दाश्त नहीं करेगी.
दरअसल, बीजेपी ने बिहार में चुनावी तैयारी नीतीश कुमार की जेडी(यू) से गठबंधन टूटने के बाद ही शुरू कर दी थी, जिसमें लोकसभा चुनाव के नतीजों ने पार्टी के उत्साह को एक नई दिशा दी. लेकिन लोकसभा चुनाव में पस्त पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने दुश्मनी भुलाकर जिस तरह गलबहियां कीं, उससे बिहार एक बार फिर जातियों के जाल में उलझता दिखने लगा और लोकसभा के तीन महीने बाद ही हुए विधानसभा उपचुनाव में नरेंद्र मोदी लहर पर सवार बीजेपी को पटखनी खानी पड़ी. इस नतीजे से पार्टी ने क्या सबक लिया, बिहार बीजेपी के प्रभारी महासचिव भूपेंद्र यादव कहते हैं, ‘‘चुनाव के परिणाम किसी भी तरह के आएं, सबकी समीक्षा की जाती है और हम सबका विश्लेषण करके ही रणनीतियों का संचालन करते हैं’’. जातीय समीकरण के आधार पर बने नीतीश-लालू के महागठजोड़ से मुकाबले को बीजेपी ने कमर कस ली है. शाह ने कोर ग्रुप से ऐसी रणनीति बनाने को कहा है जिससे लालू-नीतीश की सबसे बड़ी ताकत उनकी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाए. बिहार बीजेपी के प्रवक्ता देवेश कुमार कहते हैं, ‘‘चुनावी आगाज से पहले ही पार्टी ने सामाजिक आधार पर बड़ी लामबंदी कर ली है.’’
सामाजिक समीकरण का नया गुलदस्ता- सवर्ण वोट बैंक में खासा आधार रखने वाली बीजेपी को लोकसभा में मोदी के अति पिछड़े वर्ग से होने का सीधा फायदा मिला. बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता नंदकिशोर यादव दावा करते हैं कि मोदी फैक्टर की वजह से इस वर्ग में पार्टी की पहुंच 70-75 फीसदी तक पहुंच गई. इस वोट बैंक को बरकरार रखने के मकसद से पार्टी की रणनीति का खुलासा बिहार विधान परिषद में विपक्ष के नेता सुशील कुमार मोदी करते हैं, ‘‘हमने हर जिले में अति पिछड़ा मंच बनाया है. इस वर्ग को नीतीश कुमार अपना वोट बैंक मानते थे, लेकिन हमने पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की जयंती को इस मंच के जरिए हर जिले में मनाया है.’’ कर्पूरी ठाकुर अति पिछड़ों के आदर्श नेता और दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे थे. इस वर्ग के वोटरों की संख्या करीब 30 फीसदी है.
बिहार बीजेपी के उपाध्यक्ष और प्रवक्ता संजय मयूख का कहना है, ‘‘कर्पूरी ठाकुर जो कांग्रेस विरोध की धुरी थे, उसे नीतीश-लालू भूल गए हैं लेकिन बीजेपी उन्हें याद कर रही है.’’ इसके अलावा पार्टी ने चुनाव का औपचारिक आगाज करने के लिए दलितों के मसीहा माने जाने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर की जयंती यानी 14 अप्रैल को चुना है. इस मौके पर पार्टी ने कोई जनसभा करने की बजाए पटना के गांधी मैदान में बूथ स्तर से लेकर ऊपर तक के 2 लाख कार्यकर्ताओं का सम्मेलन आयोजित करने की रणनीति अपनाई है. बीजेपी ने यादव वोट बैंक पर भी फोकस किया है. प्रभारी महासचिव भूपेंद्र यादव और केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव इसकी बानगी हैं.
महागठजोड़ या विलय से फायदा? आरजेडी और जेडी(यू) के महागठजोड़ ने भले उपचुनावों में बीजेपी की चूलें हिला दी हों, लेकिन बीजेपी को इस गठजोड़ में मच रही उठापटक में अपना फायदा दिख रहा है. पार्टी के रणनीतिकारों का मानना है कि मुस्लिम और यादव (माई) वोट अब भी काफी हद तक लालू यादव के साथ एकजुट है. लेकिन नीतीश की रणनीति इसमें कुर्मी, महादलित और अति पिछड़ा वर्ग को जोड़कर सामाजिक समीकरण का एक नया गुलदस्ता तैयार करने की है. बीजेपी लोकसभा चुनाव के वक्त ही उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी और रामविलास पासवान की एलजेपी को एनडीए में शामिल कर सामाजिक समीकरण मजबूत कर चुकी है. प्रदेश में लोकसभा की 40 में से 31 सीटों पर एनडीए को जीत मिली थी. यानी 243 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी गठबंधन को 171 सीटों पर बढ़त हासिल थी. हालांकि आरजेडी-जेडी(यू) अपने-अपने वोट शेयर को जोड़कर बिहार की जनता का रुझान अपने रुख में दिखाने की कोशिश कर रही है. इतना ही नहीं, बिहार में यादव और कुर्मी समुदाय के बीच हमेशा वर्चस्व की लड़ाई रहती है. अगर पिछले विधानसभा चुनाव के लिहाज से देखें तो 89 सीटों पर आरजेडी और जेडी(यू) सीधे मुकाबले में थी, जबकि बीजेपी का मुकाबला ज्यादातार गैर आरजेडी सीटों पर रहा है. बिहार बीजेपी के अध्यक्ष मंगल पांडे इंडिया टुडे से कहते हैं, ‘‘विलय की खबरों से आरजेडी और जेडी(यू) में अंतर्कलह मची हुई है और 50 से ज्यादा विधायक हमारे संपर्क में हैं जो कभी भी पाला बदल सकते हैं.’’ केंद्रीय दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद भी कहते हैं, ‘‘लालू-नीतीश का गठजोड़ बेमेल है क्योंकि नीतीश की राजनीति लालू विरोध पर ही थी. लेकिन अब फिर से लालू के साथ आ जाने से जंगलराज सामने आ गया है.’’ बीजेपी हाल में हुए मुजफ्फरपुर दंगे को कानून-व्यवस्था की नाकामी बता रही है.
मांझी के सहारे वैतरिणी पार करने की आस- नीतीश कुमार और मौजूदा मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के बीच मतभेद अब सार्वजनिक हैं. बीजेपी नेताओं का मानना है कि मांझी को हटाना अब नीतीश के लिए ही संभव नहीं है क्योंकि उन्होंने काफी तेजी से नौकरशाही में अपने लोगों को तरजीह दी है और वे महादलितों के बड़े स्थापित नेता के तौर पर उभर आए हैं. सूत्रों के मुताबिक, मांझी भी खुद को नीतीश से बेहतर साबित करने में कसर नहीं छोड़ रहे. मांझी समर्थकों की दलील है कि जिस बिहार पर फंड का इस्तेमाल नहीं करने का आरोप लगता रहा है, उसमें मांझी ने पिछले साल नीतीश के कार्यकाल के मुकाबले दोगुना बजट खर्च किया. नीतीश के मुकाबले मांझी ने बड़ी लकीर खींचकर जेडी(यू) की गले की हड्डी तो बन ही गए हैं. लेकिन बीजेपी चाहती है कि मांझी सरकार न गिरे और विपरीत परिस्थिति में उसे बचाने का प्रयास करने को तैयार है.
नेतृत्व की खींचतान मुसीबत- बीजेपी भले गुटबाजी की खबरों को खारिज कर रही हो, लेकिन बिहार में नेतृत्व को लेकर अंदरूनी खींचतान है. हालांकि अभी ज्यादातार नेता सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लडऩे की बात कर रहे हैं. लेकिन पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार सुशील कुमार मोदी कहते हैं, ‘‘नेता कौन होगा, यह मुद्दा नहीं है. अभी हमारे विरोधियों ने भी अपना नेतृत्व घोषित नहीं किया है. यह हमारी रणनीति का हिस्सा है और जब चुनाव नजदीक आएगा तो संसदीय बोर्ड फैसला करेगा.’’ लेकिन बिहार में सुशील मोदी के विरोधियों में पूर्व केंद्रीय मंत्री सी.पी. ठाकुर, भूमिहार नेता चंद्रमोहन राय, राजपूत नेता जनार्दन सिग्रीवाल और अश्विनी चौबे आदि माने जाते हैं. फिलहाल पार्टी में गुटबाजी शांत है, लेकिन राजनीति में कब पासा पलट जाए, दिल्ली बीजेपी में किरण बेदी की एंट्री एक बड़ी मिसाल है.
संगठनात्मक आधार बढ़ाने पर जोर- बीजेपी ने सदस्यता अभियान के लिए पहले 60 लाख का लक्ष्य रखा था जिसे बढ़ाकर 75 लाख कर दिया है. पहले मिशन-175 का लक्ष्य लेकर चल रही बीजेपी ने सर्वेक्षणों और फीडबैक के बाद इसे मिशन-185 कर दिया है. पार्टी पहली बार 243 में से 180-190 सीटों पर लड़ेगी, जबकि बाकी सीटें पासवान और कुशवाहा की पार्टी के लिए छोड़ी जाएंगी. नंदकिशोर यादव कहते हैं, ‘‘75 लाख सदस्य बनाने के लक्ष्य में हम समाज के हर वर्ग को शामिल करेंगे और एक आदमी अगर दो-ढाई वोट भी बूथ तक पहुंचाता है तो पार्टी को करीब पौने दो करोड़ वोट हासिल होंगे.’’ यह लोकसभा में बीजेपी को मिले 1,05,43,025 वोट से काफी आगे का लक्ष्य है. दूसरी तरफ पार्टी ने केंद्रीय स्तर के नेताओं का प्रवास झारखंड की तर्ज पर कर दिया है. जहां पूरी प्रदेश की कमान केंद्रीय इकाई ने सीधे संभाल रखी थी. शाह के अलावा सह संगठन मंत्री सौदान सिंह, प्रभारी महासचिव भूपेंद्र यादव का सघन दौरा शुरू हो चुका है तो केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान भी नेपथ्य से बिहार के मामले में सक्रिय हैं.
पार्टी अध्यक्ष शाह स्थानीय निकाय से लेकर, गुजरात विधानसभा और लोकसभा तक सारे चुनाव जीतते आए हैं. लेकिन इस साल उनके लिए बड़ी चुनौती है बिहार विधानसभा चुनाव.
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