सोनिया, राहुल, प्रियंका, मेनका और वरुण में ‘गांधी’ एक अहम कॉमन फैक्टर है. इन सबके बीच दूसरा अहम फैक्टर है उत्तर प्रदेश. सभी को राजनीतिक जमीन कमोवेश विरासत में यहीं मिली है. सभी उत्तर प्रदेश से लोकसभा सांसद है सिवाए प्रियंका को जिनका राजनीतिक भंवर में कूदना अभी बाकी है. इनमें कौन किसका क्या है यह पूरा देश तो जानता है लेकिन उत्तर प्रदेश में इनका रिश्ता गणित के पहाड़े की तरह बच्चे-बच्चे की जुबान पर रहता है. शायद इसीलिए राज्य में लोकसभा चुनाव हो या फिर विधानसभा चुनाव, कांग्रेस और बीजेपी के साथ-साथ यहां क्षेत्रीय समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की नजर भी किसी न किसी गांधी पर टिकी रहती है. एक बार फिर 2017 में चुनाव का बिगुल बजने को तैयार है, कांग्रेस मांग रही है प्रियंका लाओ प्रदेश बचाओ और बीजेपी में अबकी बार वरुण सरकार का नारा गूंज रहा है.
सोनिया और मेनका |
खासतौर से उत्तर प्रदेश की राजनीति में ‘गांधी’ किसी राजनीतिक ड्रामे से कम नहीं है. राज्य में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी आज तीन-चार दशकों से ‘गांधी’ का नाम लेकर इमरजेंसी, जेपी और लोहिया पर लगातार ड्रामा कर रही है. वहीं बामसेफ के जरिए बनी बहुजन समाज पार्टी ने ‘गांधी’ को दलितों की स्थिति के लिए एक मात्र जिम्मेदार ठहराते हुए अपने लिए एक नया राजनीतिक ड्रामा खड़ा कर लिया है. खुद कांग्रेस, बीते दो दशकों से अधिक समय तक राज्य में अस्तित्व गंवा देने के बाद हर चुनाव के पहले और नतीजों के बाद ‘गांधी’ का नारा बुलंद कर देती है. ‘गांधी’ लाओ देश बचाओ का नारा भी किसी राजनीतिक ड्रामे का एक्ट वन और सीन वन ही लगता है. अब बची मौजूदा वक्त में केन्द्र की सत्ता पर काबिज बीजेपी. यहां तो ‘गांधी’ के नाम पर एक साथ दो-दो ड्रामे का मंचन किया जा रहा है. पहला तो पार्टी ने देश बचाने के लिए ‘गांधी’ को खत्म करने की कमस खा रखी है और दूसरा...
सोनिया, राहुल, प्रियंका, मेनका और वरुण में ‘गांधी’ एक अहम कॉमन फैक्टर है. इन सबके बीच दूसरा अहम फैक्टर है उत्तर प्रदेश. सभी को राजनीतिक जमीन कमोवेश विरासत में यहीं मिली है. सभी उत्तर प्रदेश से लोकसभा सांसद है सिवाए प्रियंका को जिनका राजनीतिक भंवर में कूदना अभी बाकी है. इनमें कौन किसका क्या है यह पूरा देश तो जानता है लेकिन उत्तर प्रदेश में इनका रिश्ता गणित के पहाड़े की तरह बच्चे-बच्चे की जुबान पर रहता है. शायद इसीलिए राज्य में लोकसभा चुनाव हो या फिर विधानसभा चुनाव, कांग्रेस और बीजेपी के साथ-साथ यहां क्षेत्रीय समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की नजर भी किसी न किसी गांधी पर टिकी रहती है. एक बार फिर 2017 में चुनाव का बिगुल बजने को तैयार है, कांग्रेस मांग रही है प्रियंका लाओ प्रदेश बचाओ और बीजेपी में अबकी बार वरुण सरकार का नारा गूंज रहा है.
सोनिया और मेनका |
खासतौर से उत्तर प्रदेश की राजनीति में ‘गांधी’ किसी राजनीतिक ड्रामे से कम नहीं है. राज्य में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी आज तीन-चार दशकों से ‘गांधी’ का नाम लेकर इमरजेंसी, जेपी और लोहिया पर लगातार ड्रामा कर रही है. वहीं बामसेफ के जरिए बनी बहुजन समाज पार्टी ने ‘गांधी’ को दलितों की स्थिति के लिए एक मात्र जिम्मेदार ठहराते हुए अपने लिए एक नया राजनीतिक ड्रामा खड़ा कर लिया है. खुद कांग्रेस, बीते दो दशकों से अधिक समय तक राज्य में अस्तित्व गंवा देने के बाद हर चुनाव के पहले और नतीजों के बाद ‘गांधी’ का नारा बुलंद कर देती है. ‘गांधी’ लाओ देश बचाओ का नारा भी किसी राजनीतिक ड्रामे का एक्ट वन और सीन वन ही लगता है. अब बची मौजूदा वक्त में केन्द्र की सत्ता पर काबिज बीजेपी. यहां तो ‘गांधी’ के नाम पर एक साथ दो-दो ड्रामे का मंचन किया जा रहा है. पहला तो पार्टी ने देश बचाने के लिए ‘गांधी’ को खत्म करने की कमस खा रखी है और दूसरा प्रदेश में राजनीतिक हकीकत को देखते हुए खुद के लिए अपना ‘गांधी’ तैयार कर रही है.
राहुल और प्रियंका |
उत्तर प्रदेश में चुनाव अब से कुछ महीनों में होने जा रहे हैं. कांग्रेस ने अबकी बाजी पलटने के लिए चुनाव एक्सपर्ट प्रशांत किशोर को खरीद लिया है. प्रदेश में राजनीति की अपने ढंग से टोह लेने के बाद किशोर ने आलाकमान से साफ कह दिया है कि राज्य में कांग्रेस बचानी है तो जरिया प्रियंका को बनाया जा सकता है. इन अटकलों के बीच असम फैक्टर का हवाला देकर बीजेपी में फायरब्रांड वरुण गांधी को जिम्मेदारी देने की कवायद जोर पकड़ रही है. अप्रैल से अभी तक राज्य में कराए गए कई सर्वे वरुण गांधी को बतौर मुख्यमंत्री बीजेपी का सबसे प्रबल दावेदार बता रहे हैं. वहीं अन्य पार्टियों की तुलना में भी वरुण को सम्मानजनक स्थिति में दिखाया जा रहा है. हालांकि, दोनों ही स्थिति में पूरा मामला किसी राजनीतिक ड्रामे से कम नहीं दिखता. उत्तर प्रदेश की राजनीति में 1990 के दशक में पहले कमंडल फिर मंडल और फिर कांशीराम ने कांग्रेस को पर्मानेंटली हाशिए पर पहुंचा दिया. हालांकि इन सभी ने समय-समय पर गांधी फैक्टर को जिंदा रखने में सहयोग करते हुए अमेठी (राहुल गांधी) और रायबरेली (सोनिया गांधी) को कभी अपने नक्शे पर नहीं रखा. बदले में इन गांधियों की तरफ से भी कभी प्रदेश में अपनी कोर राजनीतिक जमीन का विस्तार करने की कोई महत्वाकांक्षी योजना नहीं बनाई गई.
वरुण |
वहीं केन्द्र की सत्ता में कांग्रेस को पटखनी देने वाली बीजेपी ने राज्य में अपनी जमीन तैयार करने के लिए अपना खुद का गांधी (पहले मेनका गांधी और फिर वरुण गांधी) तैयार कर लिया. आज बीजेपी को नई बीजेपी कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि जिस पुरानी बीजेपी ने अपना गांधी तैयार किया था उसकी जरूरत अब नई बीजेपी को महसूस नहीं होती. नई बीजेपी को हर तरह के गांधी से पोलिटिकल एलर्जी है. यही वजह है कि नई बीजेपी अपने गांधी को कांग्रेस के गांधी से कम नहीं समझती. और शायद इसीलिए चुनाव नजदीक आने पर जब एक तरफ प्रियंका गांधी को लाकर प्रदेश बचाने की मांग जोर पकड़ रही है तो वहीं अबकी बार वरुण सरकार का भी नारा बुलंद किया जा रहा है.
अबकी बार वरुण गांधी की मांग के साथ रेल रोकते समर्थक |
अब गांधी पर इस राजनीतिक ड्रामेबाजी को और कितने दिन तक खींचा जाएगा. जब बीते कई दशकों से राज्य की राजनीति में यह अहम किरदार रहे हैं तो क्यों नहीं देश की दोनों अहम पार्टियां एक बार राज्य में गांधी-बनाम-गांधी का खेल करा लेती जिससे नतीजों के बाद इस ड्रामेबाजी को या तो पूरी तरह से खत्म किया जा सके और नतीजे कुछ और कहते हैं तो राज्य को उनका अपना गांधी मिल जाएगा. इस स्थिति में भी कम से कम गांधी पर हो रहे ड्रामे का पर्दा गिर जाएगा.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.