बाकी मामलों में भले ही दूसरे पार्टी विद डिफरेंस जैसे दावे करें - कुछ मामलों में कांग्रेस का कोई सानी नहीं. हाल फिलहाल प्रशांत किशोर से बेहतर शायद ही किसी ने इस बात को बखूबी महसूस किया हो. चर्चा तो यही रही कि पीके अपने मेगा प्लान के साथ सबसे पहले राहुल गांधी से ही मिले थे - लेकिन नये आइडिया को तवज्जो मिली नरेंद्र मोदी के दरबार में. देखा देखी नीतीश ने भी वो नुस्खा आजमाया और कामयाब रहे.
पहली बार में ठुकरा दिये जाने के बावजूद पीके ने मोदी-नीतीश डबल सक्सेस के बाद कांग्रेस का ठेका भी ले ही लिया, लेकिन लगातार कांग्रेस नेताओं के आंखों की किरकिरी बने रहे - बावजूद इसके कि खुद राहुल गांधी उन्हें खासे पसंद करने लगे थे.
प्रियंका फैक्टर तो बस बहाना है
बात तब की है जब प्रशांत किशोर ने काम की शुरुआत की थी. उन्होंने पूरे यूपी से कुछ रिपोर्ट मंगाई. बाकी जगह से तो रिपोर्ट मिल गई लेकिन अमेठी और रायबरेली से रिपोर्ट नहीं मिली. पीके को एक तरह से मैसेज देने की कोशिश की गई कि वहां के काम खुद प्रियंका गांधी देखती हैं इसलिए वे अपनी हद में रहें और बात को समझ लें तो बेहतर होगा.
इसे भी पढ़ें: 'रायता विद राहुल' से बात शुरू होकर पहुंची 'खाट-सभा' तक
पीके भी कहां मानने वाले थे. चुपके से पीके की टीम की ओर से खबर लीक करा दी गई कि वो चाहते हैं कि राहुल गांधी नहीं तो कम से कम प्रियंका गांधी को यूपी में सीएम कैंडिडेट के तौर पर पेश किया जाये. इसकी चर्चा जितनी मीडिया में नहीं हुई उससे कहीं ज्यादा कांग्रेस नेता मैसेज और फोन पर चर्चा करते रहे. ये चैप्टर भी क्लोज तभी हुआ जब शीला दीक्षित को बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार प्रोजेक्ट किया गया. पीके ने कैंडिडेट की लिस्ट दी थी उसमें शीला दीक्षित का तीसरा नंबर था.
ताजा चर्चा ये है कि पीके...
बाकी मामलों में भले ही दूसरे पार्टी विद डिफरेंस जैसे दावे करें - कुछ मामलों में कांग्रेस का कोई सानी नहीं. हाल फिलहाल प्रशांत किशोर से बेहतर शायद ही किसी ने इस बात को बखूबी महसूस किया हो. चर्चा तो यही रही कि पीके अपने मेगा प्लान के साथ सबसे पहले राहुल गांधी से ही मिले थे - लेकिन नये आइडिया को तवज्जो मिली नरेंद्र मोदी के दरबार में. देखा देखी नीतीश ने भी वो नुस्खा आजमाया और कामयाब रहे.
पहली बार में ठुकरा दिये जाने के बावजूद पीके ने मोदी-नीतीश डबल सक्सेस के बाद कांग्रेस का ठेका भी ले ही लिया, लेकिन लगातार कांग्रेस नेताओं के आंखों की किरकिरी बने रहे - बावजूद इसके कि खुद राहुल गांधी उन्हें खासे पसंद करने लगे थे.
प्रियंका फैक्टर तो बस बहाना है
बात तब की है जब प्रशांत किशोर ने काम की शुरुआत की थी. उन्होंने पूरे यूपी से कुछ रिपोर्ट मंगाई. बाकी जगह से तो रिपोर्ट मिल गई लेकिन अमेठी और रायबरेली से रिपोर्ट नहीं मिली. पीके को एक तरह से मैसेज देने की कोशिश की गई कि वहां के काम खुद प्रियंका गांधी देखती हैं इसलिए वे अपनी हद में रहें और बात को समझ लें तो बेहतर होगा.
इसे भी पढ़ें: 'रायता विद राहुल' से बात शुरू होकर पहुंची 'खाट-सभा' तक
पीके भी कहां मानने वाले थे. चुपके से पीके की टीम की ओर से खबर लीक करा दी गई कि वो चाहते हैं कि राहुल गांधी नहीं तो कम से कम प्रियंका गांधी को यूपी में सीएम कैंडिडेट के तौर पर पेश किया जाये. इसकी चर्चा जितनी मीडिया में नहीं हुई उससे कहीं ज्यादा कांग्रेस नेता मैसेज और फोन पर चर्चा करते रहे. ये चैप्टर भी क्लोज तभी हुआ जब शीला दीक्षित को बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार प्रोजेक्ट किया गया. पीके ने कैंडिडेट की लिस्ट दी थी उसमें शीला दीक्षित का तीसरा नंबर था.
ताजा चर्चा ये है कि पीके चाहते हैं कि प्रियंका गांधी कम से कम तीन महीने तक यूपी में धुआंधार प्रचार करें - और सोनिया भी कम से कम 20 दिन तो लोगों के बीच रहें ही.
चलो एक बार फिर से अजनबी... |
दरअसल, जब से सोनिया गांधी बनारस में रोड शो करके बीमार पड़ीं, तोहमत के लिए कांग्रेस कोटरी को एक अदद सिर की तलाश थी. आपस में सिर फुटौव्वल तो संभव है लेकिन कुर्बानी तो बाहरी की ही चलेगी. सोनिया की तबीयत बेहतर तो हो चुकी है लेकिन इतनी नहीं कि उतनी सक्रिय हो सकें. इसी कारण उन्हें कार्यकारिणी की मीटिंग छोड़नी पड़ी - और राहुल गांधी को पोजीशन लेनी पड़ी.
अब बताया जा रहा है कि प्रियंका को लेकर पीके का प्रपोजल आलाकमान से खारिज हो चुका है. फिर क्या था पीके विरोधी नेताओं की टोली फिर से सक्रिय है. बाहरी को बाहर करो. वैसे भी प्रियंका को लेकर राहुल से लेकर सोनिया तक यही कहते आ रहे हैं 'सक्रिय राजनीति में भूमिका' को लेकर प्रियंका फैसला खुद ही करेंगी.
वैसे कांग्रेस के भीतर एक तबका है जो प्रियंका के सक्रिय रोल में आने का पक्षधर है, लेकिन हवाओं का रुख भांप कर वो भी मनमोहन सिंह को गुरु मान लेता है.
पीके से प्रॉब्लम ही प्रॉब्लम
देखा जाये तो कांग्रेस की एक बड़ी जमात में पीके से प्रॉब्लम ही प्रॉब्लम है - लेकिन उन्हें पसंद करने के बावजूद राहुल गांधी कभी बोलते ही नहीं - 'डोन्ट वरी...'
कांग्रेस की हैपेनिंग पर बारीक नजर रखने वाले रशीद किदवई का एक लेख मामले की तह तक बड़े आराम से ले जाता है. एक पीस में किदवई ने लिखा है कि किस तरह एक टीवी शो के दौरान राज बब्बर ने पीके को एक साउंड रिकॉर्डिस्ट बता डाला और कहा - उनके नेता कोई और नहीं राहुल गांधी हैं.
एक और मिसाल है. किदवई बताते हैं कि एक बार प्रशांत किशोर का कोई बिल बुजुर्ग कांग्रेसी कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा के पास पहुंचा. भारी भरकम रकम देखते ही वो भड़क गये और पेमेंट के लिए बिल को आधा करने की सलाह दी. इतना ही नहीं, आधा करने के बाद भी पेमेंट इंस्टॉलमेंट में ही हो पाएगा. भला, प्रशांत किशोर उधार का बही खाता कब तक ढो पाते. जब उधार देने के बाद तगादा लेने में भी इतने पापड़ बेलने पड़ें.
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दबी जबान 'पीके को वापस भेजो' मुहिम के संयोजक नेताओं ने अब नया पैंतरा शुरू किया है. यूपी में महागठबंधन को लेकर मुलायम सिंह यादव से मुलाकात पर कई ऐसे हैं जो जोर जोर से छाती पीट रहे हैं. ये नेता बताना चाहते हैं कि पीके का ये कदम पार्टीलाइन के खिलाफ है.
अरे भई काहे की पार्टी लाइन. न तो पीके पार्टी के हैं न ही पार्टी की ये डेडलाइन है कि महागठबंधन नहीं होगा. कांग्रेस तो हर वो ऑप्शन तलाश रही है और हर वो तरीके आजमाना चाहती है जिसके जरिये सत्ता नहीं सही यूपी में किंगमेकर की हैसियत में तो आ ही जाये.
अगर पीके को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के कैंपेन में कामयाबी मिली तो उनमें उन्हें फ्री-हैंड भी मिले थे. लेकिन कांग्रेस में तो कैंडिडेट सेलेक्शन में उनका कोई रोल ही नहीं हो सकता.
तो भी क्या प्रशांत किशोर राहुल गांधी की किसान यात्रा को सुर्खियों में लाने के लिए सिर्फ तिकड़म करने के लिए हैं. खुद को असुरक्षित महसूस करने वाले कांग्रेस नेता माने न मानें प्रशांत किशोर ने और कुछ न सही काम शुरू करने के कुछ ही दिन के भीतर ही कांग्रेस को चर्चा में तो ला ही दिया था. यूपी से भी पहले प्रशांत के पंजाब में चुनाव प्रचार का काम लेने की खबर आई थी. तब ऐसा भी लगा था कि पीके का रोल सिर्फ पंजाब तक ही सीमित रहेगा. बीच बीच में कैप्टन अमरिंदर और प्रशांत किशोर के बीच मतभेद की बातें उछाली जा रही थीं, लेकिन कैप्टन इनकार करते रहे. एक बार फिर ऐसी बातों को हवा दी जा रही है.
सोनिया गांधी के बनारस में बीमार पड़ने और प्रियंका गांधी के नाम पर पीके को किनारे लगाने की कोशिशें तो जारी ही थीं, रीता बहुगुणा जोशी के बीजेपी ज्वाइन करने की तोहमत भी उन पर मढ़ने का प्रयास हो रहा है. इतना सब होने के बाद अगर माल उधार देना पड़े, पेमेंट भी आधी मिल - और वो भी किस्तों में फिर तो वक्त रहते किनारे हो लेना ही समझदारी है. अब बस उस घड़ी का इंतजार करना होगा जब दोनों पक्ष आपसी रजामंदी से अलग होने की बात को औपचारिक रूप दे दें.
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