दिग्विजय सिंह कांग्रेस को बार बार अलर्ट मोड में लाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन नेतृत्व है कि मानता ही नहीं! 2016 में भी विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद उन्होंने सर्जरी की बात कही थी. साल भार बाद भी वो अपनी राय पर कायम हैं क्योंकि हालात में कोई तब्दीली नहीं आई है. बकौल दिग्विजय, उनकी एक ही मजबूरी है - राहुल गांधी उनकी बात सुनते भी नहीं, ऊपर से गुस्सा भी हो जाते हैं.
कांग्रेस के नाम संदेश!
इंडिया टुडे कॉनक्लेव में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का भाषण ज्यादातर कांग्रेस के इतिहास के इर्द गिर्द घूमता रहा - जहां उनके राजनीतिक जीवन का लंबा वक्त गुजरा भी है. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने तमाम अनुभवों के बीच एक राय भी रखी, "देश को आगे बढ़ाने के लिए एक मजबूत सरकार के साथ-साथ मजबूत विपक्ष की जरूरत है."
अगर कांग्रेस नेतृत्व समझना चाहे तो इसमें बहुत बड़ा मैसेज है जिस पर वो विचार करे तो उसके लिए फायदेमंद साबित हो सकता है. कांग्रेस के लिए राष्ट्रपति मुखर्जी का ये संदेश उसके लिए संजीवनी बूटी बन सकता है, बशर्ते इसमें उसकी थोड़ी बहुत दिलचस्पी भी हो.
2014 के बाद कांग्रेस की उपलब्धियों में लोक सभा के एक उपचुनाव में जीत, बिहार चुनाव के बाद सत्ता में भागीदारी और पंजाब में सत्ता में वापसी दिखती भर है, पर हकीकत कुछ और है. बिहार चुनाव में महागठबंधन में जरूर कांग्रेस की भूमिका रही, लेकिन सत्ता में हिस्सेदारी का खाका पूरी तरह नीतीश कुमार की बदौलत तैयार हुआ.
पंजाब चुनाव में जीत की भी वजह कांग्रेस से ज्यादा खुद कैप्टन अमरिंदर सिंह रहे. हालात जरूर मददगार रहे लेकिन कैप्टन अगर कांग्रेस के भरोसे रहते तो सत्ता तक पहुंचना मुश्किल नहीं नामुमकिन ही था. चुनाव से बहुत पहले...
दिग्विजय सिंह कांग्रेस को बार बार अलर्ट मोड में लाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन नेतृत्व है कि मानता ही नहीं! 2016 में भी विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद उन्होंने सर्जरी की बात कही थी. साल भार बाद भी वो अपनी राय पर कायम हैं क्योंकि हालात में कोई तब्दीली नहीं आई है. बकौल दिग्विजय, उनकी एक ही मजबूरी है - राहुल गांधी उनकी बात सुनते भी नहीं, ऊपर से गुस्सा भी हो जाते हैं.
कांग्रेस के नाम संदेश!
इंडिया टुडे कॉनक्लेव में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का भाषण ज्यादातर कांग्रेस के इतिहास के इर्द गिर्द घूमता रहा - जहां उनके राजनीतिक जीवन का लंबा वक्त गुजरा भी है. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने तमाम अनुभवों के बीच एक राय भी रखी, "देश को आगे बढ़ाने के लिए एक मजबूत सरकार के साथ-साथ मजबूत विपक्ष की जरूरत है."
अगर कांग्रेस नेतृत्व समझना चाहे तो इसमें बहुत बड़ा मैसेज है जिस पर वो विचार करे तो उसके लिए फायदेमंद साबित हो सकता है. कांग्रेस के लिए राष्ट्रपति मुखर्जी का ये संदेश उसके लिए संजीवनी बूटी बन सकता है, बशर्ते इसमें उसकी थोड़ी बहुत दिलचस्पी भी हो.
2014 के बाद कांग्रेस की उपलब्धियों में लोक सभा के एक उपचुनाव में जीत, बिहार चुनाव के बाद सत्ता में भागीदारी और पंजाब में सत्ता में वापसी दिखती भर है, पर हकीकत कुछ और है. बिहार चुनाव में महागठबंधन में जरूर कांग्रेस की भूमिका रही, लेकिन सत्ता में हिस्सेदारी का खाका पूरी तरह नीतीश कुमार की बदौलत तैयार हुआ.
पंजाब चुनाव में जीत की भी वजह कांग्रेस से ज्यादा खुद कैप्टन अमरिंदर सिंह रहे. हालात जरूर मददगार रहे लेकिन कैप्टन अगर कांग्रेस के भरोसे रहते तो सत्ता तक पहुंचना मुश्किल नहीं नामुमकिन ही था. चुनाव से बहुत पहले कैप्टन ने पहले तो सूबे में पार्टी की कमान अपने हाथ में ली फिर प्रशांत किशोर को हायर किया - और खुद जी जान से जुटे रहे. नतीजे सामने हैं - पंजाब के भी, और यूपी के भी.
जहां तक मौका मिलने के सवाल है, कांग्रेस के पास गोवा और मणिपुर में तो बेहतरीन मौका था. ऐसा भी नहीं है कि जिस तरह बीजेपी ने कांग्रेस के मुहं से सत्ता का निवाला छीन लिया - कांग्रेस को वो तरकीबें नहीं आतीं. कांग्रेस तो ऐसे सियासी दांव पेंच की माहिर खिलाड़ी रही है. फिर भी वो कैसे चूक गयी? कहीं न कहीं गड़बड़ी तो है. गड़बड़ी भी छोटी-मोटी नहीं भारी है.
नोटबंदी पर बहस के अलग अलग फलक हो सकते हैं, लेकिन ये तो साफ है कि कांग्रेस ने इसे अच्छे से हैंडल नहीं किया. दो मिनट के लिए लाइन में जाकर खड़े होना और बयान दे देना मीडिया के लिए तो काम का हो सकता है, लेकिन उतने भर से लोगों से कनेक्ट नहीं हुआ जा सकता. नोटबंदी पर नीतीश कुमार और ममता बनर्जी ने अपने अपने तरीके से रिएक्ट किया और उसका नफा नुकसान वे जानें, कांग्रेस के लिए अपना स्टैंड ही मायने रखता है. सर्जिकल स्ट्राइक को भी कांग्रेस नेताओं ने गलत तरीके से रिएक्ट किया. नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक के जरिये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना सियासी दांव चल दिया था. इन दोनों ही कदमों से लोगों में मोदी की एक मजबूत नेता के रूप में छवि निखरी. कांग्रेस ने उसे हल्के में ले लिया.
राहुल गांधी का मोदी पर हमलावर होना राजनीतिक तौर पर अच्छा हो सकता है, लेकिन शर्त ये है कि उन्हें आंख और कान भी खुले रखने चाहिये. आंख मूंद कर बल्ला घुमाने पर क्लीन बोल्ड होने का खतरा तकरीबन तय होता है.
राहुल गांधी खाट सभा करते हुए पूरे यूपी की यात्रा करके दिल्ली पहुंचे थे - और बोल दिया - 'आप खून की दलाली करते हो!'
चीख चीख कर बोलते रहे कि बोलेंगे तो भूकंप आ जाएगा. कुछ देर के लिए लोगों को लगा भी, तभी अपनी चौकड़ी लेकर मोदी से मिलने पहुंच गये. मोदी को तो इसी बात का इंतजार था.
समझना क्यों नहीं चाहते?
आइडिया एक्सचेंज में इंडियन एक्सप्रेस के साथ दिग्विजय की बात पर गौर करें तो पता चलता है कि कांग्रेस की मौजूदा हालत के लिए नेतृत्व जिम्मेदार है. दिग्विजय सिंह ने कहा भी, "मेरी राहुल गांधी से यही शिकायत है कि वह निर्णायक रूप से काम नहीं कर रहे हैं."
हालांकि, दिग्विजय मानते भी हैं कि राहुल के अलावा कांग्रेस के पास कोई चारा भी नहीं है, "हम चाहते हैं एक नई कांग्रेस बने... ये राहुल गांधी से बेहतर कोई नहीं कर सकता, उन्हें काम करना ही पड़ेगा."
मुश्किल ये है कि दिग्विजय सिंह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते, "मैं कई बार उन्हें यह कहा है. वह इस पर बहुत बार नाराज भी हुए हैं कि मैं वही चीज बार-बार क्यों दोहराता रहता हूं."
दिग्विजय इस बात से भी दुखी हैं 2014 में कांग्रेस की हार पर तैयार की गई एके एंटनी कमेटी की रिपोर्ट पर कुछ भी नहीं हुआ. दिग्विजय के अनुसार, वो रिपोर्ट 28 फरवरी 2015 को सौंपी गई थी और उसके हिसाब से एक नई कांग्रेस का मसौदा तैयार होना था. रिपोर्ट पर क्या हुआ या क्या होना है, ये भी राहुल गांधी ही जानते हैं - ऐसा कहना है खुद दिग्विजय सिंह का.
तो क्या कांग्रेस नेतृत्व को पार्टी को लेकर दिग्विजय जितनी भी फिक्र नहीं है? क्या गोवा और मणिपुर में सरकार बनाने को लेकर भी अंदरूनी मामला ऐसा ही कुछ रहा होगा?
गोवा को लेकर दिग्विजय सिंह ने ट्विटर पर लंबी सफाई दी है. दिग्विजय को सबसे बुरा इसलिए लगा क्योंकि उन्हें खलनायक समझा जाने लगा - और एक ट्वीट में उन्होंने यहां तक कहा कि इसका फैसला वो लोगों पर ही छोड़ रहे हैं.
यूपी में तो कांग्रेस को ऐसा कोई मौका मिला नहीं, अगर गोवा और मणिपुर पर फोकस करती तो काफी कुछ हासिल हो सकता था. सिर्फ दिल्ली में ही नहीं, गोवा और इंफाल में भी विपक्ष की भूमिका होती है. अब जितना वक्त वो कोर्ट कचहरी में बर्बाद करेंगे उससे कम में वो गोवा में बीजेपी सरकार के सामने मजबूत विपक्ष की मिसाल कायम कर सकते हैं.
दिल्ली में एमसीडी चुनावों के बाद कांग्रेस के पास एक और बड़ा मौका है - राष्ट्रपति चुनाव. कुछ नहीं तो अपने होने के मजबूत अहसास कराने का. राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी की कहानी मालूम नहीं लालकृष्ण आडवाणी की ही तरह सुषमा स्वराज तक पहुंची या चर्चाओं में कोई गंभीरता भी है. अमर वाणी तो यहां तक सुनने को मिली थी कि सुपर स्टार अमिताभ बच्चन भी पसंदीदा उम्मीदवार हो सकते हैं.
अगर आंकड़ों के आगे हाथ खड़े करने की बजाय कांग्रेस राष्ट्रपति चुनाव में भी ऐसा उम्मीदवार लेकर आये जिसे बीजेपी भी विरोध करने में हिचकिचाए तो हार भी उसके लिए जीत की तरह होगी. बाकियों की तरह सियासत भी खुली प्रतियोगिता है. नीतीश कुमार तैयार बैठे हैं. अरविंद केजरीवाल तो दिन रात एक किये ही हुए हैं - ममता बनर्जी भी हिंदी सीखने जैसे कठिन काम कर रही हैं.
अगर कांग्रेस को लगता है कि उसके लिए तो राजनीति का मतलब बस सत्ता है, फिर तो कोई बात नहीं. कांग्रेस शायद भूल गयी है कि लोकतंत्र में सत्ता पक्ष के साथ विपक्ष की भी बराबर की भूमिका होती है. जब दिग्विजय सिंह भी बेबस हों तो कांग्रेस नेतृत्व को कौन बताये कि विपक्ष तो रहेगा ही, बस पार्टी का नाम बदल जाएगा. जैसे ही कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी की भूमिका से दूर होगी - कोई और उसकी जगह ले लेगा. केजरीवाल और नीतीश कुमार उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. अब ये तो शाश्वत नियम है जो विपक्ष की भूमिका में आएगा - किसी दिन सत्ता पर भी काबिज होगा. भले ही उसका नाम कांग्रेस नहीं बल्कि कुछ और हो. वक्त रहते ये बात समझ में आ जाये तो बेहतर है, वरना दिग्विजय सिंह कुछ और ट्वीट करके मनमोहन सिंह की ही तरह खामोशी अख्तियार कर लेंगे.
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