गुजरात के वेरावल जिले के उना में गौवंश की कथित हत्या की घटनाओं को लेकर दलितों को सरेआम पीटा गया. यह बात आम गुजरातियों के लिये और गुजरात प्रशासन के लिये कोई मायने नहीं रखती अगर बहुजन समाजवादी पार्टी की नेता मायावती ने इस मुद्दे पर संसद में हंगामा नहीं किया होता. 11 जुलाई की इस घटना का वीडियो वायरल होने बाद भी गुजरात पुलिस और प्रशासन सोता रहा. मायावती ने इस मामले को जब संसद में उठाया तो उसके बाद भी गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबहन पटेल ने इस घटना की निंदा को ट्वीट करने से ज्यादा इसे कुछ नहीं समझा.
अभी तक भारत सहित पूरे विश्व में विकासशील गुजरात का जो चहेरा दिखाया जा रहा था, उसका उलटा चहेरा सामने आया है. गांधी की जन्म और कर्मभूमि रही गुजरात में धार्मिक कट्टरता और जातिवाद की जड़ें बहुत नीचे तक जा चुकी हैं. 2002 के दंगो के बाद नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाने के लिय भले ही मोर्चा खोला गया हो, आखिर नरेन्द्र मोदी खुद भी तो एक गुजराती हैं, और धर्म और जातिवाद के बारे में वे भी वैसा ही सोचते हैं जैसा एक आम गुजराती सोचता है. शायद यह बात किसी को अतिशयोक्तिपूर्ण भी लग सकती है. लेकिन 2005-2006 में किताब 'कर्मयोगी' में नरेंद्र मोदी ने लिखा है कि 'गटर में सफाई करने वाले व्यक्ति भी आध्यात्म का अनुभव करते हैं'. आज तक मुझे समझ नहीं आया कि गटरों में किस प्रकार की आध्यात्मिकता का अनुभव होता होगा.
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बात धार्मिक कट्टरता की हो, तो यह गुजरातियों की नस-नस में बसी है. आजादी के पहले भी और 1960 में गुजरात राज्यन के अस्तित्व में आने के बाद भी, तब से लेकर अब तक मुसलमानों को लेकर हिन्दू काफी संवेदनशील हैं. गुजरात में और खास-तौर पर अहमदाबाद में हिन्दू और मुस्लिम...
गुजरात के वेरावल जिले के उना में गौवंश की कथित हत्या की घटनाओं को लेकर दलितों को सरेआम पीटा गया. यह बात आम गुजरातियों के लिये और गुजरात प्रशासन के लिये कोई मायने नहीं रखती अगर बहुजन समाजवादी पार्टी की नेता मायावती ने इस मुद्दे पर संसद में हंगामा नहीं किया होता. 11 जुलाई की इस घटना का वीडियो वायरल होने बाद भी गुजरात पुलिस और प्रशासन सोता रहा. मायावती ने इस मामले को जब संसद में उठाया तो उसके बाद भी गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबहन पटेल ने इस घटना की निंदा को ट्वीट करने से ज्यादा इसे कुछ नहीं समझा.
अभी तक भारत सहित पूरे विश्व में विकासशील गुजरात का जो चहेरा दिखाया जा रहा था, उसका उलटा चहेरा सामने आया है. गांधी की जन्म और कर्मभूमि रही गुजरात में धार्मिक कट्टरता और जातिवाद की जड़ें बहुत नीचे तक जा चुकी हैं. 2002 के दंगो के बाद नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाने के लिय भले ही मोर्चा खोला गया हो, आखिर नरेन्द्र मोदी खुद भी तो एक गुजराती हैं, और धर्म और जातिवाद के बारे में वे भी वैसा ही सोचते हैं जैसा एक आम गुजराती सोचता है. शायद यह बात किसी को अतिशयोक्तिपूर्ण भी लग सकती है. लेकिन 2005-2006 में किताब 'कर्मयोगी' में नरेंद्र मोदी ने लिखा है कि 'गटर में सफाई करने वाले व्यक्ति भी आध्यात्म का अनुभव करते हैं'. आज तक मुझे समझ नहीं आया कि गटरों में किस प्रकार की आध्यात्मिकता का अनुभव होता होगा.
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बात धार्मिक कट्टरता की हो, तो यह गुजरातियों की नस-नस में बसी है. आजादी के पहले भी और 1960 में गुजरात राज्यन के अस्तित्व में आने के बाद भी, तब से लेकर अब तक मुसलमानों को लेकर हिन्दू काफी संवेदनशील हैं. गुजरात में और खास-तौर पर अहमदाबाद में हिन्दू और मुस्लिम की बीच हुई सामान्य तकरार भी दंगों में तब्दीतल होती रही है. जब 2002 के दंगों की बात आती है, तो भाजपा नेता बचाव करते हैं, कि क्या कांग्रेस के शासन में दंगे नहीं होते थे. लेकिन इस मामले में गुजरात की सभी पार्टियों का रवैया एक जैसा ही रहा है. क्योंकि जब धर्म की बात आती है तो कांग्रेस नेता भी पार्टी को भूलकर हिन्दू हो जाते हैं. 2002 के पहले गुजरात के इतिहास में सबसे बडे दंगे 1959 में हुए थे, तब कांग्रेस का शासन था और पांच हजार से ज्यादा मुस्लिमों के सरेआम हत्या हुई थी. उसके बाद 1980-1985 और 1993 के दंगे भी खौफनाक थे. तब भी कांग्रेस ही सत्ता में थी.
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1993 तक कांग्रेस के शासन में हुए दंगों का नरेन्द्र मोदी ने खूब फायदा उठाया. तब वे गुजरात भाजपा के महामंत्री थे. उन्होंने अपने भाषणों से आम हिन्दुओं को यह समझा दिया कि कांग्रेस यानी मुस्लिमों की पार्टी. मोदी अपने प्रचार में सफल हुए और 1995 के चुनाव में भाजपा को बहुमत मिला और कांग्रेस आज तक सत्ता से दूर है. 2002 के दंगो में वे खुद मुख्य मंत्री थे. उन पर आरोप लगाया गया कि उन्हीं के ईशारे पर दंगे हुए. लेकिन वे कुछ नहीं बोले. कारण उन्हें मालूम था. कांग्रेस और मानवाअधिकार संगठन उन्हें जिस मुद्दे पर कठघरे में खड़ा करते रहे, उससे उन्हें और भाजपा को फायदा हुआ. और वैसा ही आज तक हो रहा है.
नरेंद्र मोदी और आनंदीबहन पटेल |
2016 के गुजरात पंचायत चुनाव के दौरान यह माना जाता था, कि गुजरात में आरक्षण की मांग कर रहा पटेल समुदाय भाजपा से नाराज है. और भाजपा को उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा. लेकिन परिणाम उसके विपरीत इसी कारण आए कि गुजरात का मतदाता भाजपा से भले ही नाराज हो लेकिन बात जब धर्म की आती है, तो वह कांग्रेस को मुस्लिमों की पार्टी मानता है. और भाजपा कितनी भी निकम्मीा पार्टी क्यों न हो, उसे हिन्दू विचारधारा वाली पार्टी मानकर आम मतदाता उसका समर्थन करता है.
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जब बात हिन्दू-मुस्लिम से हटती है तो हिन्दुओं में ऊंची जाति और पिछड़ी जाति की बीमारी बाहर आती है. पिछड़ी जाति को आज भले ही कानून के कारण सुरक्षा मिली है, लेकिन आज भी लोगों के दिमाग पर उसी पुरानी सोच का कब्जा है. मैं जब भी दलितों पर हो रहे अन्याय की बात करता हूं तो मेरे ही कुछ साथी विरोध करते हुए कहते हैं कि यह सब बातें गांवों तक सीमित हैं. दलितों पर अत्याचार का मतलब सिर्फ पिटाई नहीं है, ऊंची जाति के लोगों के व्यवहार में भी दलितो के प्रति उनके रवैए को देखा जाना चाहिए.
मैं अहमदाबाद में रहने वाले ऐसे दस से ज्यादा आईएएस और आईपीएस अफसरों को जानता हूं, जिन्हें दलित होने कारण अलग तरीके से सताया जाता रहा. अहमदाबाद में कोई ऊंची जाति वाला उन्हेंू घर बेचने को तैयार नहीं था. इसी कारण उन्होंने अपने सरनेम बदलकर पटेल, शाह और अमीन जैसे सरनेम लगा लिए. गुजरात में यह सरनेम ऊंची जाति वालों के होते हैं. मेरा मानना है कानुन सुरक्षा दे सकता है, लेकिन कानून मानस नहीं बदल सकता. मैं एक ऐसे दलित आईपीएस अफसर को जानता हूं जिनके 24 घंटे साथ रहेने वाल उनका ऊंची जाति वाला कमान्डो उनके घर का पानी नहीं पीता.
नरेन्द्र मोदी और भाजपा सरकार विकासशील गुजरात का नारा लगाते हैं. लेकिन उंची ईमारतें, बड़े रास्ते, पोर्ट, एयरपोर्ट, साइंस सिटी, स्मा र्ट सिटी और बड़े उद्योग होने के बाद भी अगर इंसान जाति के आधार पर अन्य किसी से व्यवहार करता है तो ऐसे विकास का क्या मतलब है? गांवों की स्थिति तो कई गुना बदतर है. गुजरात के कई गांवों में आज भी दलितों के साथे गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता है. केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने गुजरात के उना के विषय पर बोलते हुए संसद में कहा था कि दलितों पर अत्याचार की घटना में कमी आई है.
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लेकिन गुजरात सरकार के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 15 साल में दलितों पर अत्याचार के 14,532 मुकदमे दर्ज हुए. जिसमें 272 दलितों की हत्या के हैं और 540 मुकदमें दलित महिलाओं के साथ दुष्कर्म के हैं. पिछले पांच साल में ही गंभीर प्रकार के कुल 1500 मुकदमे दर्ज हुए. लेकिन पुलिस की जांच इतनी कमजोर थी कि 1500 केस में सिर्फ 29 अभियुक्तों को ही सजा हुई. हाल ही में दलित आंदोलन चला रहे उना दलित अत्याचार समिति के समन्वियक रीज्ञेश मेवाणी का मानना है कि दलितों पर अत्याचार के मामले में कांग्रेस और भाजपा दोनों एक जैसे ही हैं. किसी पर भरोसा नहीं कर सकते.
मेरा व्यकितगत मानना है, उना की घटना में प्रशासन के द्वारा लापरवाही बरती गई. लेकिन गुजरात की एक सामाजिक समस्या है. जब एक आम गुजराती विकासशील गुजरात में रहने का गौरव लेता है तब उसी गुजरात में आज दलित सरपंचो को ऑफिस में बैठने के लिए कुर्सी नहीं मिलती है, गांवों में पीने के पानी के कुएं भी अलग हैं. और यह भेदभाव मरने के बाद तक कायम रहता है. क्योंकि यहां दलितो के शमशान में अलग हैं.
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