शायद वह कैंटीन ही है. लक्ष्य फिल्म का एक सीन है जहां... पत्रकार का किरदार निभा रही प्रीति जिंटा कह रही होती हैं... ''आई डॉन्ट अंडरस्टैंड... क्यों होती है जंग, क्यों मारे जाते हैं लोग इस तरह... कब समझेंगे लोग कि इंसान की मुसीबतों का इलाज जंग नहीं... अमन है, शांति है...'' और इस बात को सुन रहा एक सैनिक पूरे गुस्से में कहता है...''जस्ट शटअप... जस्ट शटअप. ये अमन और शांति पर लेक्चर देना है तो कहीं और जाओ. गेट लॉस्ट. तुमको अमन और शांति चाहिए... हमको भी अमन और शांति चाहिए. क्या करें... हाथ जोड़कर खड़े हो जाएं उनके सामने, थाली में सजाकर अपना मुल्क हवाले कर दें उनके... अमन और शांति...''
इस मुल्क ने आजादी के बाद से कई जंग देखीं. करगिल का युद्ध उनमें से एक था. घुसपैठिए पाकिस्तानी थे लेकिन उसके हुक्मरानों ने इसे नहीं माना. हमने अपने घर से घुसपैठियों का सफाया किया. हम नहीं गए थे उनसे लड़ने, लेकिन हम अपनी रक्षा भी न करें - इतने भी दुर्बल नहीं हैं. हमें अपने घर की सफाई करनी आती है. कीड़े-मकोड़े घर में घुस आए तो उनसे निपटना आता है. यह सब हम करते रहे हैं और करते रहेंगे. इन बातों पर समझौता नहीं होगी.
फौरी तौर पर मैं किसी प्रकार के युद्ध के खिलाफ हूं. युद्ध अपने आप में एक गंभीर मसला है. यह किसी मसाइल का हल नहीं है. युद्ध से पहले भी बात होती है. दोनों तरफ अविश्वास और गलतफहमियों का दौर चलता है. चार और मुल्क दोनों ओर से मसलों को हवा देते हैं. अपने-अपने देश के हथियार सप्लायरों को मौका देते हैं. पूरा बाजार सजता है. कमीशन से लेकर शुद्ध मुनाफे तक का हिसाब किताब होता है. फिर दोनों ओर से सिपाही बॉर्डर पर आमने सामने होते हैं. जंग के लिए. वार्ताओं का दौर चलता है. लगता है जैसे सब ठीक हो जाएगा. कभी लगता है 'जंग के बगैर' और 'जंग से कम कुछ भी नहीं' पर ही मानेंगे. बात नहीं बनती और फिर जंग के मैदान में उतर जाते हैं.
जंग चलती है. कभी महीनों तक तो कभी वर्षों तक. और कभी खत्म नहीं होने वाली जंग जारी रहती है एक व्यापार...
शायद वह कैंटीन ही है. लक्ष्य फिल्म का एक सीन है जहां... पत्रकार का किरदार निभा रही प्रीति जिंटा कह रही होती हैं... ''आई डॉन्ट अंडरस्टैंड... क्यों होती है जंग, क्यों मारे जाते हैं लोग इस तरह... कब समझेंगे लोग कि इंसान की मुसीबतों का इलाज जंग नहीं... अमन है, शांति है...'' और इस बात को सुन रहा एक सैनिक पूरे गुस्से में कहता है...''जस्ट शटअप... जस्ट शटअप. ये अमन और शांति पर लेक्चर देना है तो कहीं और जाओ. गेट लॉस्ट. तुमको अमन और शांति चाहिए... हमको भी अमन और शांति चाहिए. क्या करें... हाथ जोड़कर खड़े हो जाएं उनके सामने, थाली में सजाकर अपना मुल्क हवाले कर दें उनके... अमन और शांति...''
इस मुल्क ने आजादी के बाद से कई जंग देखीं. करगिल का युद्ध उनमें से एक था. घुसपैठिए पाकिस्तानी थे लेकिन उसके हुक्मरानों ने इसे नहीं माना. हमने अपने घर से घुसपैठियों का सफाया किया. हम नहीं गए थे उनसे लड़ने, लेकिन हम अपनी रक्षा भी न करें - इतने भी दुर्बल नहीं हैं. हमें अपने घर की सफाई करनी आती है. कीड़े-मकोड़े घर में घुस आए तो उनसे निपटना आता है. यह सब हम करते रहे हैं और करते रहेंगे. इन बातों पर समझौता नहीं होगी.
फौरी तौर पर मैं किसी प्रकार के युद्ध के खिलाफ हूं. युद्ध अपने आप में एक गंभीर मसला है. यह किसी मसाइल का हल नहीं है. युद्ध से पहले भी बात होती है. दोनों तरफ अविश्वास और गलतफहमियों का दौर चलता है. चार और मुल्क दोनों ओर से मसलों को हवा देते हैं. अपने-अपने देश के हथियार सप्लायरों को मौका देते हैं. पूरा बाजार सजता है. कमीशन से लेकर शुद्ध मुनाफे तक का हिसाब किताब होता है. फिर दोनों ओर से सिपाही बॉर्डर पर आमने सामने होते हैं. जंग के लिए. वार्ताओं का दौर चलता है. लगता है जैसे सब ठीक हो जाएगा. कभी लगता है 'जंग के बगैर' और 'जंग से कम कुछ भी नहीं' पर ही मानेंगे. बात नहीं बनती और फिर जंग के मैदान में उतर जाते हैं.
जंग चलती है. कभी महीनों तक तो कभी वर्षों तक. और कभी खत्म नहीं होने वाली जंग जारी रहती है एक व्यापार की तरह. भावनाओं के सौदागर युद्ध लड़ने वाले दोनों मुल्कों में होते हैं. आरोप प्रत्यारोप के बीच शहीदों की गिनती बढ़ती जाती है. सुहाग उजड़ते जाते हैं. बच्चे यतीम होते जाते हैं. और यह सिलसिला अगली बातचीत तक जारी रहता है. फिर एक तीसरा मुल्क बीच में दखल देता है. तीसरी संस्था बीच में आती है. जंग थमती है. दोनों मुल्कों के लोग लंबी सांसें छोड़ते हैं. बात होती है और फिर युद्ध विराम भी. यह एक पूरी प्रक्रिया है एक युद्ध के शुरू होने से लेकर अंत होने तक की. मारने वाला और मरने वाला - दोनों सिपाही ही होते हैं लेकिन मुल्क के नाम से जाने जाते हैं. मेरे सिपाही अमुक मुल्क से जंग में शहीद हो गये, उसे किसी जंग ने नहीं मारा. यही कहते हैं. यही कहने की परंपरा रही है. यही हमने जाना और सीखा है. हमें किसी ने यह नहीं बताया कि इसे दूसरे तरीके से भी कह सकते हैं. और जब किसी ने इसे कहा नहीं तब हम कैसे कहते.
गुरमेहर बनने का डर था. और आज गुरमेहर कह गई तो जैसे पूरी सियासी कौम ही जंग के मैदान में कूद पड़ी. सब के सब चुनावी फायदे और नुकसान के अनुसार व्याख्या करने में जुट गये. लोग पॉलिटिकल कनेक्शन तलाशने में जुट गये. लोगों ने साबित भी कर दिया कि अमुक पार्टी से जुड़ा मामला है. और इसमें वह सवाल सवाल ही बनकर रह गया जिस पर बात होने की गुंजाइश थी. बौद्धिक वर्ग से उम्मीद की जा रही थी कि इस मसले पर चर्चा होती. कोई संदेश लोगों के बीच जाता. जब देश का युवा किसी सवाल का जवाब तलाशता है तो उसे जवाब देने की जिम्मेदारी उस देश के बौद्धिक वर्ग को उठानी चाहिए. इसके पक्ष और विपक्ष दोनों को समझना और समझाना चाहिए. बजाए इसके इस सवाल पर भी जंग हो गई.
यह संभव है कि गुरमेहर के बयान देने से पहले कुछ तैयारी की गई हो. उसके बाद की रणनीति बनाई गई हो. हो सकता है इस बयान पर चुनावी रोटी सेंकने के फायदे नुकसान भी देखे गए होंगे. सब मुमकिन है. लेकिन क्या हम जंग के बगैर नहीं जी सकते? क्या हम अभी इतने समझदार नहीं बन पाए हैं कि जमीन पर किसी को यतीम होने और किसी के सुहाग लुटने से बचा सके? गरीबी और भुखमरी के मसलों का हल तलाश सकें? हम लोगों ने ये सब हासिल नहीं किया है इसलिए जंग जारी है. जंग किसी मसले का हल नहीं होता यह हमारी नाकामयाबी का प्रतीक है. ऐसा क्यों होना चाहिए कि जब कोई परमाणु हमला हो तभी हम पूरी दुनिया में इसके खिलाफ अभियान चलाए और माफी मांगते हुए घुमते फिरे? जंग को समझने के लिए जापान और अमेरिका बनना क्या जरूरी है?
गुरमेहर की समझ पर जंग करना जरूरी है? इसी मुल्क में समान विचार रखने वाले हजारों युवा रह रहे हैं तो फिर गुरमेहर के सवाल पर बवाल क्यों? समझ है तो गुरमेहर को समझाइए. कुछ लोग जो रेप की धमकी और निर्भयाकांड जैसे कृत्य को करने की धमकी दे रहे हैं वो अपनी मानसिक स्थिति का ही परिचय दे रहे हैं. इस समाज और इस देश के लिए ऐसे लोग गुरमेहर से ज्यादा खतरनाक हैं.
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