प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मिशन 2019 के मंत्रों को देखकर विरोधियों में भी खलबली शुरू हो गई है. और इस खलबली की शुरूआत बिहार से हुई है. बिहार राजनैतिक प्रयोगशाल की भूमि है. नरेंद्र मोदी के खिलाफ हूई गोलबंदी अपना रंग बिहार के 2015 के विधानसभा चुनाव में दिख चुकी है. लेकिन अंतर ये है कि महागठबंधन के नेताओं ने विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार को नेता मानकर चुनाव लड़ा और सफलता पाई. पर क्या 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए वो नीतीश कुमार के नाम पर एकजुट होंगे. इसमें संदेह है, क्योंकि यहां बात राज्य चलाने की नहीं बल्कि देश चलाने की है.
ये बात सच है कि नरेन्द्र मोदी के खिलाफ देश भर में अगर कोई नेता खड़ा हो सकता है तो वो नीतीश कुमार ही हैं. कुशल नेतृत्व की क्षमता और अनुभव में वो सबसे आगे हैं और खास बात ये है कि उनपर कोई दाग नहीं है. पर क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार होगी, यह एक बडा सवाल है.
आरजेडी के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव पहले ही कह चुके हैं कि वो नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचाने में पूरी मदद करेंगे. हांलाकि इसके पीछे अपने बेटे को बिहार की बागडोर दिलवाना उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है. लेकिन कांग्रेस ने ऐसा कभी नहीं कहा. प्रदेश कांग्रेस के नेता भले ही उनके मंत्रिमंडल में शामिल हैं, उनको नेता मानते हैं, लेकिन जहां प्रधानमंत्री की बात आती है तो वो सिर्फ राहुल गांधी पर दाव लगाते हैं, उनकी मजबूरी भी है.
उत्तरप्रदेश चुनाव के बाद जो तस्वीर उभरी है उसमें राहुल गांधी के साथ-साथ अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव और मायावती की दावेदारी तो पहले ही खारिज हो चुकी है. पंजाब और गोवा में अपनी इज्जत गवांने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल में भी अब वो बात नहीं रही. रही बात बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उडीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की, तो...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मिशन 2019 के मंत्रों को देखकर विरोधियों में भी खलबली शुरू हो गई है. और इस खलबली की शुरूआत बिहार से हुई है. बिहार राजनैतिक प्रयोगशाल की भूमि है. नरेंद्र मोदी के खिलाफ हूई गोलबंदी अपना रंग बिहार के 2015 के विधानसभा चुनाव में दिख चुकी है. लेकिन अंतर ये है कि महागठबंधन के नेताओं ने विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार को नेता मानकर चुनाव लड़ा और सफलता पाई. पर क्या 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए वो नीतीश कुमार के नाम पर एकजुट होंगे. इसमें संदेह है, क्योंकि यहां बात राज्य चलाने की नहीं बल्कि देश चलाने की है.
ये बात सच है कि नरेन्द्र मोदी के खिलाफ देश भर में अगर कोई नेता खड़ा हो सकता है तो वो नीतीश कुमार ही हैं. कुशल नेतृत्व की क्षमता और अनुभव में वो सबसे आगे हैं और खास बात ये है कि उनपर कोई दाग नहीं है. पर क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार होगी, यह एक बडा सवाल है.
आरजेडी के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव पहले ही कह चुके हैं कि वो नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचाने में पूरी मदद करेंगे. हांलाकि इसके पीछे अपने बेटे को बिहार की बागडोर दिलवाना उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है. लेकिन कांग्रेस ने ऐसा कभी नहीं कहा. प्रदेश कांग्रेस के नेता भले ही उनके मंत्रिमंडल में शामिल हैं, उनको नेता मानते हैं, लेकिन जहां प्रधानमंत्री की बात आती है तो वो सिर्फ राहुल गांधी पर दाव लगाते हैं, उनकी मजबूरी भी है.
उत्तरप्रदेश चुनाव के बाद जो तस्वीर उभरी है उसमें राहुल गांधी के साथ-साथ अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव और मायावती की दावेदारी तो पहले ही खारिज हो चुकी है. पंजाब और गोवा में अपनी इज्जत गवांने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल में भी अब वो बात नहीं रही. रही बात बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उडीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की, तो ममता बनर्जी की टेम्पेरामेंट मैंच नहीं करता और नवीन पटनायक की उडीसा से बाहर जाने की ज्यादा रूचि नहीं दिखती.
ऐसे में देखा जाए तो नीतीश कुमार ही बचते हैं. जिसपर पूरा विपक्ष नरेंद्र मोदी के खिलाफ एकजुट हो सकता है. पर पिछले कुछ महीनों से नीतीश कुमार ने केन्द्र सरकार के खिलाफ कोई कड़ा रूख नहीं अपनाया है. बल्कि सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी और जीएसटी पर केन्द्र के फैसलों का समर्थन ही किया है. हांलाकि उत्तरप्रदेश के चुनाव में यह साफ हो गया कि नोटबंदी का विरोध करना सेकुलर पार्टियों को भारी पड गया. नीतीश कुमार ने भी कहा कि जरूरत से ज्यादा विरोध करने की वजह से नोटबंदी का मुद्दा बेअसर रहा.
लेकिन बिहार की राजनीति में जो ताजा हालात बन रहे हैं उसमें अभी कुछ कहना मुनासिब नहीं होगा. क्योंकि जिस मजबूती के साथ महागठबंधन ने 2015 में विधानसभा का चुनाव लड़ा था वो मजबूती और जोश अब दिखाई नहीं दे रहा है. कई मौकों पर महागठबंधन में पार्टियों की राय अलग-अलग देखी गई. उत्तरप्रदेश चुनाव का ही जिक्र करें तो महागठबंधन के शामिल कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा लेकिन उसे जबरदस्त पराजय का सामना करना पड़ा. आरजेडी ने चुनाव नहीं लड़ा लेकिन सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार किया.
रही बात जनता दल यू की, तो उसने न तो उत्तरप्रदेश में अपने उम्मीदवार उतारे और ना ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किसी के लिए प्रचार किया. इसलिए आरजेडी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह ने नीतीश कुमार पर सेकुलर पार्टियों की हार का ठीकरा फोड़ना चाहा. हालांकि आरजेडी ने मामले को सुलगने से रोकने की कोशिश की है. पर अब विधान परिषद में सभापति के चुनाव को लेकर आरजेडी और जनता दल यू आमने सामने हैं, ऐसे में यह तय करना मुश्किल है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार की राजनैतिक परिस्थितियां क्या करवट लेंगी.
हांलाकि आरजेडी और जनता दल यू के नेताओं का कहना है कि अभी 2019 के चुनाव में काफी समय है, तब तक चीजें स्पष्ट हो जायेंगी. लेकिन मोदी विरोधी चेहरा कौन होगा ये जब बिहार में तय नहीं तो फिर और जगह की क्या बात करें.
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