उस प्रधानमंत्री के लिए जिसका ये कहना हो कि मुख्यधारा का मीडिया उसके बारे में क्या कहता है उसकी वो परवाह नहीं करता, उसकी सरकार मीडिया पर नियंत्रण करने पर आमादा है. अगर पार्टी के मीडिया मैनजरों का वश चले तो टीवी चैनल वही कंटेंट उठाएं जो सरकारी अफसरों द्वारा ट्विटर और फेसबुक पर डाला जाता है और उसे ही भक्तिभाव से प्राइम टाइम का हिस्सा बनाएं और प्रचार करें. और अब सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ओर से तीन चैनलों को भेजा गया शो कॉज मीडिया को घुटने टेकने के लिए धमकी भरा एक भौंडा प्रयास है.
मिसाल के तौर पर एनडीटीवी के नोटिस की बात करते हैं. सरकार को एनसीपी नेता माजिद मेमन की टिप्पणियों पर गंभीर आपत्ति है. मेमन के हवाले से नोटिस में कहा गया है, "उस्मान जान खान इस केस में अप्रूवर है जो (सरकारी गवाह) नंबर 2 है. अब (उस) उस्मान जान खान को माफ कर दिया गया है, अगर आप इस माफी को भारत से बाहर, ब्रिटेन, अमेरिका या दुनिया में आपराधिक मामलों के किसी जानकार को दिखाएंगे तो वे आप पर हंसेंगे. वे कहेंगे क्या यही इंसाफ है? पूरे ऑपरेशन में उस्मान जान खान की याकूब के मुकाबले दस गुणा ज्यादा भूमिका है, उसे माफी मिल गई... लेकिन मुझे गलत नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि मैं याकूब के केस से जुड़ा हूं, और न ही मैंने कोई निष्कर्ष निकाला है, या सर्वोच्च अदालत के निर्णय की आलोचना कर रहा हूं, जिसके सामने मुझे ससम्मान झुकना चाहिए. और मैं तो यह कह रहा हूं कि मैं सुप्रीम कोर्ट को सलाम करता हूं कि कम से कम उसने तीन बजे भोर में उसकी सुनवाई तो की."
सरकारी नोटिस में न्यूज चैनलों को 15 दिन की मोहलत दी गई है और केबल टीवी एक्ट के सेक्शन 20, जिसमें सरकार केबल टीवी नेटवर्क के संचालन पर पाबंदी लगा सकती है, उसके तहत कड़े प्रावधान लागू करने की धमकी दी गई है. कारण बताओ नोटिस में लिखा है, "पाया गया है कि एनडीटीवी 24x7 ने ऐसे कंटेंट का प्रसारण किया, जिसने न सिर्फ भारतीय न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़े किए बल्कि ब्रिटेन और अमेरिकी न्याय व्यवस्था के बराबर न बताते हुए उस संस्थान को नीचा...
उस प्रधानमंत्री के लिए जिसका ये कहना हो कि मुख्यधारा का मीडिया उसके बारे में क्या कहता है उसकी वो परवाह नहीं करता, उसकी सरकार मीडिया पर नियंत्रण करने पर आमादा है. अगर पार्टी के मीडिया मैनजरों का वश चले तो टीवी चैनल वही कंटेंट उठाएं जो सरकारी अफसरों द्वारा ट्विटर और फेसबुक पर डाला जाता है और उसे ही भक्तिभाव से प्राइम टाइम का हिस्सा बनाएं और प्रचार करें. और अब सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ओर से तीन चैनलों को भेजा गया शो कॉज मीडिया को घुटने टेकने के लिए धमकी भरा एक भौंडा प्रयास है.
मिसाल के तौर पर एनडीटीवी के नोटिस की बात करते हैं. सरकार को एनसीपी नेता माजिद मेमन की टिप्पणियों पर गंभीर आपत्ति है. मेमन के हवाले से नोटिस में कहा गया है, "उस्मान जान खान इस केस में अप्रूवर है जो (सरकारी गवाह) नंबर 2 है. अब (उस) उस्मान जान खान को माफ कर दिया गया है, अगर आप इस माफी को भारत से बाहर, ब्रिटेन, अमेरिका या दुनिया में आपराधिक मामलों के किसी जानकार को दिखाएंगे तो वे आप पर हंसेंगे. वे कहेंगे क्या यही इंसाफ है? पूरे ऑपरेशन में उस्मान जान खान की याकूब के मुकाबले दस गुणा ज्यादा भूमिका है, उसे माफी मिल गई... लेकिन मुझे गलत नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि मैं याकूब के केस से जुड़ा हूं, और न ही मैंने कोई निष्कर्ष निकाला है, या सर्वोच्च अदालत के निर्णय की आलोचना कर रहा हूं, जिसके सामने मुझे ससम्मान झुकना चाहिए. और मैं तो यह कह रहा हूं कि मैं सुप्रीम कोर्ट को सलाम करता हूं कि कम से कम उसने तीन बजे भोर में उसकी सुनवाई तो की."
सरकारी नोटिस में न्यूज चैनलों को 15 दिन की मोहलत दी गई है और केबल टीवी एक्ट के सेक्शन 20, जिसमें सरकार केबल टीवी नेटवर्क के संचालन पर पाबंदी लगा सकती है, उसके तहत कड़े प्रावधान लागू करने की धमकी दी गई है. कारण बताओ नोटिस में लिखा है, "पाया गया है कि एनडीटीवी 24x7 ने ऐसे कंटेंट का प्रसारण किया, जिसने न सिर्फ भारतीय न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़े किए बल्कि ब्रिटेन और अमेरिकी न्याय व्यवस्था के बराबर न बताते हुए उस संस्थान को नीचा दिखाने की भी कोशिश की.
बतौर प्रमुख वकील, राजनेता और नागरिक होने के नाते मेमन को सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना का अधिकार है. देश का कानून किसी भी फैसले की आलोचना का अधिकार देता है जब तक कि जजों की नीयत पर सवाल न उठाया गया हो. अपने बयान में मेमन ने सुप्रीम कोर्ट के जजों के बयान पर सवाल नहीं उठाया है. इसलिए सरकार को न्यायपालिका के नाम पर आक्रामक होने का कोई मतलब नहीं बनता. मेमन ने तो भोर तक याकूब मेमन की फरियाद सुनने और फांसी के सजायाफ्ता को हर मौका देने के लिए जजों की तारीफ की है. सरकार का ये कहना बेतुका है कि एनडीटीवी द्वारा इस टिप्पणी का प्रसारण उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई का आधार बनता है.
ये बात समझ में नहीं आ रही कि जिन तीन चैनलों को नोटिस थमाया गया है वे अपेक्षाकृत निष्पक्ष हो कर मोदी सरकार की परफॉरमेंस को कवर कर रहे हैं. इंडिया टीवी जैसे चैनल, जो बीजेपी के प्रचार का टूल बने हुए हैं, उनके खिलाफ नोटिस नहीं जारी हुआ है जबकि छोटा शकील का वही इंटरव्यू वहां भी दिखाया गया. आरोप तो हास्यास्पद हैं ही, तरीका भी पक्षपातपूर्ण अपनाया गया है.
सूचना और प्रसारण मंत्रालय के नोटिस को लेकर चौतरफा छीछालेदर के बाद अब सरकार की ओर से सफाई भी पेश की गई है, "इस रिपोर्टिंग का नतीजा यह हुआ है कि याकूब जिस समुदाय का था, उसका एक बड़ा तबका उसे पीड़ित मानने लगा है. यही वजह रही कि उसे दफनाए जाने के वक्त वहां हजारों लोग पहुंचे और मुंबई में तनाव का माहौल बना." याकूब के अंतिम संस्कार के वक्त मैं मुंबई के बड़ा कब्रिस्तान में मौजूद था. शास्त्री भवन में बैठा कोई नौकरशाह ये नहीं फरमा सकता कि किसी फांसी को लेकर लोग क्या सोचेंगे. ये सच है कि याकूब के लिए हजारों लोग वहां इकट्ठा हुए. लेकिन मैंने किसी के मुंह से ये बात नहीं सुनी जो किसी आतंकवादी को फांसी की आलोचना करता हो. जो बात नौजवानों की भीड़ को नागवार गुजर रही थी वो ये कि फांसी की सजा पाकर वे बच जा रहे हैं, जिन्हें राजनीतिक सपोर्ट हासिल है.
अकाली दल के नेताओं की वजह से पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह का कातिल, बलवंत सिंह राजोआना अब तक फांसी के फंदे की पहुंच से बाहर है. बादल को खुश करने के लिए राजोआना की फांसी रोकने की क्या जरूरत थी. इस मामले में कार्रवाई कर मोदी सरकार, बजाए चैनलों को निशाना बनाने के, अल्पसंख्यकों की चिंता कम कर सकती थी और संभव था अगली बार कम ही लोग किसी आतंकवादी के अंतिम संस्कार में पहुंचने के बारे में सोचते.
सरकार प्रोग्राम एंड एडवर्टाइजिंग कोड ऑफ द केबल टेलीविजन नेटवर्क रूल्स, 1994 के प्रावधानों का इस्तेमाल कर रही है. प्रोग्राम कोड का रूल 6 इतना अस्पष्ट है कि सरकार किसी भी चैनल को छोटा बहाना बनाकर भी ऑफ-एयर कर सकती है. इसके अलावा, कोड कहता है, "ऐसा कोई भी प्रोग्राम नहीं दिखाया जा सकता जिससे सुरुचि या मर्यादा को ठेस पहुंचती हो, जिसमें मित्र देशों की आलोचना हो, देश विरोधी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता हो, देश की अखंडता को प्रभावित करता हो, जो किसी भी व्यक्ति या किसी समूह सामाजिक वर्ग, देश की नैतिकता या लोगों की आलोचना करता हो, नुकसानदेह हो या निंदा करता हो."
प्रोग्राम कोड इतना हास्यास्पद है सरकारी अफसरों को यह अधिकार दे देता है कि सरकार और किसी देश के बीच हुए किसी सौदे की आलोचना पर चैनल बंद करा सकता है. 'सुरुचि', 'मर्यादा', 'आलोचना' और 'छवि बिगाड़ना' ऐसे शब्द हैं, जिन्हें परिभाषित करना काफी दुरूह है, जिस पर आईटी एक्ट की धारा 66-ए खत्म करने के दौरान जम कर बहस हुई. सौभाग्यवश, किसी भी सरकार ने प्रोग्राम कोड को उसी रूप में लागू करने की कोशिश नहीं की और पिछले 20 साल में इस कानून के क्रूर प्रावधानों को न के बराबर लागू किया गया.
इसका मतलब यह नहीं कि न्यूज चैनलों से कभी गलती होती ही नहीं और उन्हें संविधानेत्तर शक्तियां मिलनी चाहिए. 24-7 खबरों के दौर में जहां पल भर में फैसला लेना हो, रिपोर्टर, प्रोड्यूसर और संपादकों से गलतियां होती हैं और करते हैं. चैनलों और संपादकों को इस बात का अहसास भी कराया जाना चाहिए ताकि भविष्य में गलतियों पर लगाम लग सके. लेकिन चैनल कौन सा कंटेंट लेंगे यह फैसला लेनेवाला कोई सरकारी बाबू नहीं होना चाहिए. यह निष्पक्षता वही स्वतंत्र जज बनाए रख सकता है जिसका सरकारी ढांचे से कोई लेना देना न हो. अमूमन ऐसे बाबुओं का बॉस भी वही होता है जो खुद भी खफा पक्षकार होता है. कोई भी अफसर जो किसी राजनेता के मातहत काम करता हो, उसका भविष्य उसके हाथ में हो, उससे कैसे ये अपेक्षा की जा सकती है कि चैनल के कंटेंट पर वह निष्पक्ष फैसला ले पाएगा.
अगर सरकार को समाचार चैनलों पर याकूब की फांसी के कवरेज से इतनी ही चिढ़ थी तो वो एनबीएसए यानी न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी, जो न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन की स्वनियामक संस्था है, को अपनी शिकायत भेज सकती थी. एनबीएसए पूर्व मुख्य न्यायाधीश स्व. जेएस वर्मा के नेतृत्व में बनाया गया था और इस वक्त जस्टिस केवी रवींद्रन इसके अध्यक्ष हैं. इससे पहले, यूपीए सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने कई मौकों पर अपनी शिकायतें एनबीएसए को भेजी थी. बतौर संपादकीय सदस्य मैं तीन साल तक एनबीएसए का सदस्य रहा हूं और कई मामलों में देखा है कि किस तरह एनबीएसए ने दोषी न्यूज चैनलों के खिलाफ आदेश पारित किए.
एनबीएसए के सदस्य, ऐसे प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी होते हैं, जिनका सार्वजनिक जीवन में उत्कृष्ट रिकॉर्ड रहा हो. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी, अर्थशास्त्री नितिन देसाई, पूर्व उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार लीला पोन्नप्पा और दूरदर्शन के पूर्व निदेशक विजयलक्ष्मी छाबड़ा एनबीएसए के मौजूदा सदस्य हैं. सीनियर न्यूज एडिटर जिन्हें न्यूज चैनल के संचालन की गहरी समझ होती है, वे सदस्यों की मदद करते हैं. मैंने खुद देखा है कि किस तरह एडिटर्स अपने प्रोफेशनल मतभेदों को दरकिनार कर एनबीएसके की आचार संहिता को लागू करने के लिए तत्पर रहते हैं.
ये दलील दी जा सकती है कि एनबीएसए के दंडात्मक प्रावधानों को ताकतवर बनाया जाए और सभी न्यूज चैनलों को उसके दायरे में लाया जाना चाहिए. फिलहाल एनबीएसए की सदस्यता लेना पूरी तरह इच्छा पर आधारित है और कई क्षेत्रीय न्यूज चैनल और कुछ राष्ट्रीय चैनल इसके सदस्य नहीं हैं. जी न्यूज जैसे कुछ चैनलों ने तो उनके खिलाफ आदेश पारित होने पर सदस्यता ही छोड़ दी. सरकार को इस बात का उपाय करना चाहिए कि सभी न्यूज चैनल एनबीएसए की आचार संहिता को मानें और संस्था द्वारा जो भी आदेश पारित हों, उन पर अमल करने के लिए बाध्य हों.
मौजूदा सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली आपातकाल की उपज हैं और गाहे बगाहे स्वनियमन की वकालत करते रहे हैं. वे पिछली सरकारों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नियंत्रण के खिलाफ आवाज भी उठाते रहे हैं. अब अपनी ही बातों पर अमल की उनकी बारी है.
सेल्फ रेग्युलेशन को प्रभावी बनाया जाए, एनबीएसए के दंडात्मक प्रावधानों को मजबूत बनाया जाए, चैनलों को एनबीएसए के आदेशों पर अमल के लिए बाध्य किया जाए और खुद जज बनने से बाज आएं.
लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल के दौरान पत्रकारों की भूमिका की आलोचना की थी. उन्होंने महसूस किया कि जब उन्हें झुकने के लिए कहा गया तो वे रेंगने लगे थे. सरकार ने गैरजिम्मेदाराना नोटिसों से न्यूज चैनलों को झुकने का फरमान जारी किया है. लेकिन प्रधानमंत्री को इस बात का अहसास होना चाहिए कि आपातकाल गुजरे जमाने की बात है. और टीवी पत्रकारों की नई पीढ़ी न तो रेंगनेवाली है और न ही झुकनेवाली.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.