तिनके की अहमियत वही जानता है जो डूब रहा होता है. दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ चुनाव में NSI की जीत कांग्रेस के लिए कुछ ऐसी ही है. इसीलिए कांग्रेस इसे खास तवज्जो दे रही है.
डूसू में मिली जीत के चलते कांग्रेस को अपनी बात कहने का मौका तो मिल ही गया है - फिर, लगे हाथ, कांग्रेस उपाध्यक्ष को क्रेडिट देने में भी उसे फायदा ही दिख रहा है.
राहुल ने दिलायी जीत?
कांग्रेस नेताओं का कहना है कि डूसू चुनावों में NSI को मिली जीत की वजह राहुल गांधी हैं. कांग्रेस नेता अजय माकन समझा रहे हैं कि जिस लाइन पर राहुल गांधी काम कर रहे हैं वो आइडिया काम करने लगा है.
कांग्रेस नेता कह रहे हैं कि डूसू के रिजल्ट कांग्रेस के फेवर से कहीं ज्यादा बीजेपी और आरएसएस के विरोध में हैं. तो कांग्रेस नेता ये मान कर चल रहे हैं कि बीजेपी से लोग इतने खफा हो चुके हैं कि वे तंग आकर कांग्रेस को वोट देगें. शायद कुछ उसी तरह जैसे कांग्रेस के शासन में भ्रष्टाचार से परेशान होकर उन्होंने बीजेपी को दे दिया.
कांग्रेस अब भी इसे गोलमोल तरीके से समझा रही है. ज्यादा ठीक ये कहना होगा कि कांग्रेस अपने आइडिया में उलझा रही है. हो सकता है कांग्रेस नेताओं को फर्क ही समझ न आ रहा हो.
ये सही है कि बाहर की राजनीति का कैंपस पॉलिटिक्स पर असर पड़ता है. उसी तरह अंदर की राजनीति का भी कुछ न कुछ असर बाहर भी होता है. लेकिन अगर कोई ये समझता है को दोनों तरफ बराबर असर होता है तो उसकी समझ का पता सिर्फ नतीजों से ही लग सकता है.
बीजेपी और आरएसएस के आइडिया को लेकर किसी भी कैंपस से बाहर तो कोई विरोध नजर नहीं आ रहा है. हाल के चुनावों पर गौर करें तो यूपी चुनाव, दिल्ली के दो-दो उपचुनाव और एमसीडी के नतीजे बीजेपी के पक्ष में...
तिनके की अहमियत वही जानता है जो डूब रहा होता है. दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ चुनाव में NSI की जीत कांग्रेस के लिए कुछ ऐसी ही है. इसीलिए कांग्रेस इसे खास तवज्जो दे रही है.
डूसू में मिली जीत के चलते कांग्रेस को अपनी बात कहने का मौका तो मिल ही गया है - फिर, लगे हाथ, कांग्रेस उपाध्यक्ष को क्रेडिट देने में भी उसे फायदा ही दिख रहा है.
राहुल ने दिलायी जीत?
कांग्रेस नेताओं का कहना है कि डूसू चुनावों में NSI को मिली जीत की वजह राहुल गांधी हैं. कांग्रेस नेता अजय माकन समझा रहे हैं कि जिस लाइन पर राहुल गांधी काम कर रहे हैं वो आइडिया काम करने लगा है.
कांग्रेस नेता कह रहे हैं कि डूसू के रिजल्ट कांग्रेस के फेवर से कहीं ज्यादा बीजेपी और आरएसएस के विरोध में हैं. तो कांग्रेस नेता ये मान कर चल रहे हैं कि बीजेपी से लोग इतने खफा हो चुके हैं कि वे तंग आकर कांग्रेस को वोट देगें. शायद कुछ उसी तरह जैसे कांग्रेस के शासन में भ्रष्टाचार से परेशान होकर उन्होंने बीजेपी को दे दिया.
कांग्रेस अब भी इसे गोलमोल तरीके से समझा रही है. ज्यादा ठीक ये कहना होगा कि कांग्रेस अपने आइडिया में उलझा रही है. हो सकता है कांग्रेस नेताओं को फर्क ही समझ न आ रहा हो.
ये सही है कि बाहर की राजनीति का कैंपस पॉलिटिक्स पर असर पड़ता है. उसी तरह अंदर की राजनीति का भी कुछ न कुछ असर बाहर भी होता है. लेकिन अगर कोई ये समझता है को दोनों तरफ बराबर असर होता है तो उसकी समझ का पता सिर्फ नतीजों से ही लग सकता है.
बीजेपी और आरएसएस के आइडिया को लेकर किसी भी कैंपस से बाहर तो कोई विरोध नजर नहीं आ रहा है. हाल के चुनावों पर गौर करें तो यूपी चुनाव, दिल्ली के दो-दो उपचुनाव और एमसीडी के नतीजे बीजेपी के पक्ष में गये हैं. कैंपस के अंदर जरूर ऐसा हुआ है कि जेएनयू के चारों और डूसू के दो पद बीजेपी के छात्र संगठन को गंवाने पड़े हैं.
हैदराबाद यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला की आत्महत्या से लेकर जेएनयू और यहां तक कि दिल्ली विश्वविद्यालय के मामले में भी बवाल के केंद्र में बीजेपी और आरएसएस का छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ही रहा. तकरीबन तीनों ही मामलों में एबीवीपी के रोल पर ही उंगली उठी. डूसू में हार की ये वजह हो सकती है, लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं कि NSI ने चारों पदों पर जीत हासिल कर ली. दो पदों पर उसे शिकस्त भी मिली.
जिस दिन दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ के चुनाव थे उसी दिन राहुल गांधी ने एक अमेरिकी यूनिवर्सिटी में भाषण दिया. कांग्रेस नेता कह रहे हैं कि राहुल के उस भाषण से प्रभावित होकर युवाओं ने कांग्रेस के पक्ष में वोट दिये.
अगर ऐसी बात है फिर तो राहुल गांधी के भाषण पर एक बार फिर गौर करना चाहिये. तो ये भी जान लीजिए राहुल गांधी ने ऐसा कहा क्या?
युवाओं को संबोधन
राहुल गांधी के जिस भाषण का जिक्र कांग्रेस नेता कर रहे हैं, उससे एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री मोदी ने भी युवाओं को संबोधित किया था. कांग्रेस का एक आरोप ये भी है कि प्रधानमंत्री के भाषण का कार्यक्रम और उसे लाइव दिखाने का फरमान भी कांग्रेस के खिलाफ साजिश रही.
स्वामी विवेकानंद की 125वीं जयंती पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि जिस उम्र में विवेकानंद ने शिकागो सम्मेलन में भाषण दिया देश में उसी उम्र के 65 फीसदी नौजवान हैं - जो चाहें तो क्या नहीं कर सकते. प्रधानमंत्री का ये भाषण युवाओं में जोश भरने वाला था. मोदी द्वरा कही गयी तकरीबन हर बात पर ताली बजती रही.
बाद में जब राहुल गांधी ने अमेरिकी यूनिवर्सिटी में युवाओं को संबोधित किया तो माना भी कि मोदी बेहतरीन कम्यूनिकेटर हैं. वो लोगों तक अपना मैसेज आसानी से पहुंचा लेते हैं. राहुल गांधी ने मोदी के स्वच्छता अभियान की भी तारीफ की. लगे हाथ राहुल ने ध्रुवीकरण की राजनीति को खतरनाक बताया और कहा कि उदारवादी पत्रकारों को गोली मार दी जा रही है.
इस भाषण में मुख्य तौर पर राहुल ने युवाओं को लेकर इतना ही कहा कि वो जूनियर और सीनियर लोगों के बीच ब्रिज बनाने की कोशिश कर रह हैं. राहुल ने कहा कि सीनियर लोगों को एकदम से साइड तो नहीं किया जा सकता. राहुल के ये कहने के पीछे दो बातें हो सकती हैं - एक, वो अपने साथियों को मैसेज देना चाहते हों कि वे भी बुजुर्गों का सम्मान करें और दो, राहुल को भी लगने लगा हो कि बगैर अनुभवी नेताओं की सलाह से चले नाव पार नहीं लग सकती. वैसे भी कई मौकों को पर कांग्रेस की फजीहत ने इसे साबित भी कर दिया है.
लेकिन ये सब राहुल क्यों कर रहे हैं? उन्हें अमेरिका जाकर देश के युवाओं को मैसेज देने की जरूरत क्यों पड़ी? आज तक की एक रिपोर्ट के अनुसार कांग्रेस में ये सब राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की कवायद का हिस्सा है.
तो ताजपोशी में बस थोड़ी सी देर है, अंधेर नहीं
आज तक की रिपोर्ट के अनुसार महीने भर के भीतर राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान औपचारिक तौर पर सौंपी जा सकती है. राहुल की ताजपोशी से पहले कांग्रेस ने उनके पक्ष में माहौल बनाने की तैयारी कर रखी है.
फिर तो राहुल गांधी ने कांग्रेस की रणनीति के हिसाब से ही कहा है कि अगर पार्टी चाहती है तो वो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने को तैयार हैं. मुश्किल ये है कि राहुल गांधी ने अपने अंदर ये आत्म विश्वास लाने में काफी देर कर दी है. इस देर का मतलब अंधेर तो नहीं, लेकिन उनके संघर्ष की राह काफी कठिन हो चुकी है.
वो कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार तो कभी भी हो सकते हैं, लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या विपक्षी दलों में भी उनकी स्वीकार्यता हो जाएगी. नीतीश के एनडीए में चले जाने से उनकी चुनौती कम तो हो गयी है, लेकिन खत्म नहीं हुई है. ये ठीक है कि अखिलेश यादव उनके लिए चुनौती नहीं हैं इसलिए सपोर्ट में खड़े हैं. शरद यादव भी राहुल गांधी से मुलाकात के बाद ही विरोध का बिगुल लेकर बिहार दौरे पर निकले, यानी उन्हें राहुल गांधी को लेकर कोई ऐतराज नहीं है. लालू यादव की तो राहुल का नेतृत्व स्वीकार करना मजबूरी ही है.
लेकिन क्या ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और शरद पवार जैसे नेताओं को भी राहुल गांधी का नेतृत्व मंजूर हो पाएगा. वैसे ममता बनर्जी ने अब तक ऐसे संकेत नहीं दिये हैं जिससे पता चले कि राहुल को लेकर फिलहाल उनका क्या स्टैंड है. पहले ये जरूर माना जाता रहा है कि ममता को सोनिया से तो कभी परहेज नहीं रही लेकिन राहुल को उन्होंने कभी स्वीकार भी नहीं किया.
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