दिल्ली नगर निगम चुनावों के अब तो परिणाम आ गए, और उन परिणामों की समीक्षाएं भी शुरू हो गईं. परिणामों का राजनीतिक असर भी दिखने लगा. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष पद से अजय माकन को इस्तीफा देना पड़ा, पार्टी के दिल्ली प्रभारी पीसी चाको ने भी इस्तीफा सौंप दिया. आम आदमी पार्टी के दिल्ली प्रदेश संयोजक दिलीप पांडे को भी आखिर नैतिक ज़िम्मेदारी लेनी ही पड़ी. अमूमन हार की समीक्षाओं में औपचारिकताएं ज्यादा निभाईं जाती है, व्यावहारिकता का पुट कम होता है. कुछ समीक्षा महज राजनीतिक होती है.
दिल्ली निगम के चुनाव परिणाम आने के बाद हारे हुए दलों की तरफ से जो प्रतिक्रियाएं दिखीं, वह व्यावहारिक कम, राजनीतिक ज्यादा थीं. कांग्रेस का दर्द अजय माकन को दुख इस बात का था कि कुछ लोग ऐन मौक़े पर पार्टी का साथ छोड़ गए, वरिष्ठ नेता चुनाव प्रचार से कन्नी काट लिए, कुछ सीनियर नेताओं ने उनके नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े किए. पर सच यह है कि मौजूदा राजनीतिक माहौल में, जहां पार्टी को हर चुनाव में निराशा हाथ लग रही थी, दिल्ली में दिलचस्पी सिर्फ इतनी ही थी कि क्या पार्टी अपने पुराने वोट बैंक को दोबारा हासिल करने में कामयाब हो पाती है या नहीं. दिल्ली की राजनीति में पार्टी जिंदा रहेगी या हमेशा के लिए खो जाएगी, बस इतना ही तय होना था. 2015 के विधानसभा चुनावों में शून्य तक पहुंचने वाली पार्टी के सामने चुनौती यह थी कि वह इस शून्य के कितने पायदान ऊपर चढ़ पाती है, क्योंकि और नीचे फिसलने के लिए अब स्थान नहीं बचा था.
2013 के विधानसभा चुनाव में करीब 20% वोट पाने वाली कांग्रेस को जब 2015 विधानसभा चुनावों में 8-7% वोट मिले, तब चर्चा यही थी कि क्या केजरीवाल के ताकतवर बने रहते, दिल्ली में कांग्रेस का पुर्नजन्म संभव है, क्योंकि आम आदमी पार्टी को कमोवेश वही वोट मिले, जो पहले कांग्रेस के पास थे. यानी झुग्गी, अनाधिकृत...
दिल्ली नगर निगम चुनावों के अब तो परिणाम आ गए, और उन परिणामों की समीक्षाएं भी शुरू हो गईं. परिणामों का राजनीतिक असर भी दिखने लगा. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष पद से अजय माकन को इस्तीफा देना पड़ा, पार्टी के दिल्ली प्रभारी पीसी चाको ने भी इस्तीफा सौंप दिया. आम आदमी पार्टी के दिल्ली प्रदेश संयोजक दिलीप पांडे को भी आखिर नैतिक ज़िम्मेदारी लेनी ही पड़ी. अमूमन हार की समीक्षाओं में औपचारिकताएं ज्यादा निभाईं जाती है, व्यावहारिकता का पुट कम होता है. कुछ समीक्षा महज राजनीतिक होती है.
दिल्ली निगम के चुनाव परिणाम आने के बाद हारे हुए दलों की तरफ से जो प्रतिक्रियाएं दिखीं, वह व्यावहारिक कम, राजनीतिक ज्यादा थीं. कांग्रेस का दर्द अजय माकन को दुख इस बात का था कि कुछ लोग ऐन मौक़े पर पार्टी का साथ छोड़ गए, वरिष्ठ नेता चुनाव प्रचार से कन्नी काट लिए, कुछ सीनियर नेताओं ने उनके नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े किए. पर सच यह है कि मौजूदा राजनीतिक माहौल में, जहां पार्टी को हर चुनाव में निराशा हाथ लग रही थी, दिल्ली में दिलचस्पी सिर्फ इतनी ही थी कि क्या पार्टी अपने पुराने वोट बैंक को दोबारा हासिल करने में कामयाब हो पाती है या नहीं. दिल्ली की राजनीति में पार्टी जिंदा रहेगी या हमेशा के लिए खो जाएगी, बस इतना ही तय होना था. 2015 के विधानसभा चुनावों में शून्य तक पहुंचने वाली पार्टी के सामने चुनौती यह थी कि वह इस शून्य के कितने पायदान ऊपर चढ़ पाती है, क्योंकि और नीचे फिसलने के लिए अब स्थान नहीं बचा था.
2013 के विधानसभा चुनाव में करीब 20% वोट पाने वाली कांग्रेस को जब 2015 विधानसभा चुनावों में 8-7% वोट मिले, तब चर्चा यही थी कि क्या केजरीवाल के ताकतवर बने रहते, दिल्ली में कांग्रेस का पुर्नजन्म संभव है, क्योंकि आम आदमी पार्टी को कमोवेश वही वोट मिले, जो पहले कांग्रेस के पास थे. यानी झुग्गी, अनाधिकृत कॉलोनी और मुसलमानों के मत. 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से ये वोट खिसककर आम आदमी के पल्ले चले गए और इसका परिणाम सबके सामने था. इस बार कांग्रेस के पास मौका था. आम आदमी को लेकर लोगों में नाराजगी थी. अनाधिकृत कालोनियों में बुनियादी सुविधाओं को लेकर कुछ काम नहीं हो पाया, नक्शा पास कर इन कॉलोनियों में रजिस्ट्री की शुरूआत का वादा कागजी रह गया. आटो यूनियन, ई-रिक्शा यूनियनों को लेकर जो वादे किए गए, वह हवाई साबित हुए. ठेके पर काम कर रहे शिक्षक और अन्य लोगों को पक्का करने का वादा भी कमेटियों में उलझ कर रह गया. ऊपर से, लचर प्रशासन, भ्रष्टाचार के बढ़ते मामले, आए दिन एलजी और केंद्र से टकराव से ऊबी जनता को वापस लाने के मौका कांग्रेस के पास था. लेकिन अंदरूनी कलह, आपस में एक-दूसरे के निपटाने की पुरानी बीमारी और अहं के टकराव के कारण जो होना था, आखिर वही हुआ. जिस शीला दीक्षित ने इस दिल्ली पर 15 साल शासन किया, वह खामोश रहीं, क्योंकि पार्टी को उनकी सेवाओं की जरूरत ही महसूस नहीं हुई. नतीजा यह था कि शीला के करीबी रहे नेताओं ने ऐन चुनावों के बीच ही माकन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. बाहर के राज्यों के नेता प्रचार कर रहे थे और हारून युसूफ, एके वालिया जैसे वरिष्ठ नेता घर बैठ गए. दुविधा के शिकार कैडर बंट गए, कुछ छोड़ गए और कुछ ने उम्मीद छोड़ दी, लिहाजा वही हुआ, जो होना था.
ईवीएम के सहारे आप
आम आदमी पार्टी के सामने चुनौतियां कुछ और ही थी. कुछ कांग्रेस से मिलती-जुलती और कुछ अपनी खास. उम्मीदों की लहरों पर सवार प्रचंड बहुमत के साथ 2015 में सत्ता में आई यह पार्टी, पिछले दो साल में अपनी उपलब्धियों के लिए कम, विवादों को लेकर ज्यादा सुर्खियों में रही. लोगों ने देखा कि किस तरह साल भर के अंदर कई वरिष्ठ या तो बाहर कर दिए गए या अंदर ही ख़ामोश कर दिए गए. लोगों की मानें तो आधे विधायकों के कामकाज को लेकर जहां स्थानीय स्तर पर नाराज़गी थी, तो आधे विधायक पार्टी नेतृत्व के काम काज के तौर तरीकों से नाराज थे. आंतरिक लोकतंत्र के लेकर मयंक गांधी से लेकर अन्य कइयों ने सवाल खड़ा किए, तो उन्हें भी बाहर जाने की छूट दे दी गई. एक तरफ एलजी और केंद्र से टकराव के कारण विकास ठप पड़ा था, वहीं निगम में बीजेपी से टकराव के कारण पिछले एक साल के दौरान जो हालात पैदा हुए, उसे लेकर भी लोगों में नाराज़गी थी. इस बीच पार्टी की बढ़ती महात्वाकांक्षा और पार्टी विस्तार के फैसले से फायदा कम, नुकसान ज्यादा हुआ.
सभी ने देखा कि किस तरह 2013 में दिल्ली डेंगू और चिकनगुनिया से जूझ रही थी और लोगों के मरने की खबरें आ रही थीं, केजरीवाल अपने इलाज के लिए दिल्ली से बाहर थे, उप मुख्यमंत्री सिसोदिया फ़िनलैंड में थे, स्वास्थ्य मंत्री गोवा में प्रचार में लगे थे, गोपाल राय छतीसगढ़ में कार्यकताओं के वर्कशॉप में गए थे. ले-देकर एक कपिल मिश्रा बतौर मंत्री दिल्ली में मौजूद थे. मामला बढ़ा और मीडिया ने सवाल पूछने शुरू किए, तब एलजी ने मनीष सिसोदिया को फ़िनलैंड से तलब किया, स्वास्थ्य मंत्री गोवा से भागे-भागे आए और फिर बैठकों का दौर शुरू हुआ. लोगों ने देखा कि किस तरह केंद्र से दिल्ली के हक़ का टैक्स का पैसा मांगने वाली आम आदमी सरकार दिल्ली के टैक्स देने वालों के पैसे का दुरूपयोग अपने प्रचार के लिए पंजाब, गोवा और अन्य राज्यों में कर रही थी. आज उन्हीं प्रचारों पर ख़र्च 97 करोड़ की वसूली का फरमान मुंह बाए खड़ा है.
सच यह भी है कि पिछले एक साल से केजरीवाल ऩॉन रेज़ीडेंट सीएम के नाम से जाने जा रहे थे. ऐसे में एमसीडी चुनावों के दौरान डेंगू-चिकनगुनिया को मुद्दा बनाने का दांव केजरीवाल के लिए नुकसानदेह ज्यादा साबित हुआ. साफ-सुथरा और ईमानदार प्रशासन के वायदे के बल पर सत्ता में आई इस पार्टी के तीन मंत्री किस तरह नैतिक और चारित्रिक भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए और उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी, यह भी दिल्ली ने देखा. पर इन तथ्यों को हार के कारणों के तौर पर स्वीकार करना साहस का काम होता. ऐसे में चाहे पंजाब हो या दिल्ली नगर निगम के चुनाव, हार के लिए ईवीएम के दोषी मानना ज़्यादा आसान काम था.
दरअसल ईवीएम को लेकर सवाल कांग्रेस ने भी उठाया, बीएसपी ने भी उठाया, इसलिए उस सुर में अपना सुर जोड़ने में आम आदमी को भी परेशानी महसूस नहीं हुई. दरअसल, दर्द एक ही था, बाहर इलाज दिखा नहीं तो उपाय कहें या बहाना, सब आपस में ही तय कर लिया गया. इस मसले में 13 राजनीतिक दलों के प्रतिनिधिमंडल राष्ट्रपति से मिल चुका है, लेकिन यह समूह अब तक कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर पाया, जिसके आधार पर यह कहा जाए कि ईवीएम में खोट है. सच यह भी है कि पूरे प्रचार के दौरान, अधिकतर विधायक अपने प्रत्याशियों के साथ नहीं दिखे, क्योंकि उनका आरोप यह था कि टिकट बंटवारे में उनकी नहीं सुनी गई और प्रत्याशी हेडक्वार्टर से तय किए गए. कुमार विश्वास जैसे नेता प्रचार में ही नहीं उतरे और जो कुछ उतरे भी, उनमें केजरीवाल के अलावा कोई असरदार नहीं था. बिजली हाफ और पानी माफ़ के अलावा उपलब्धियों के नाम पर पार्टी के पास बताने को कुछ खास था भी नहीं, लिहाज़ा विपक्ष, ख़ासकर बीजेपी के पास हमला करने के मौक़े ज्यादा थे. लिहाज़ा केजरीवाल की रैलियां भी कम कर दी गईं.
राजौरी गार्डन विधानसभा के जो परिणाम आए, वो माहौल को बताने के लिए काफी थे. अमूमन परिणाम वैसे ही आए, जो चर्चा में थे. अगर ईवीएम में दोष निकालने के बजाय पंजाब के बाद कुछ आत्मनिरीक्षण हो गया होता, तो शायद इतनी बुरी गत नहीं होती. ऐसा कम होता है जहां सरकार में बैठी पार्टी का विधायक इस्तीफा देकर उस पार्टी में शामिल हो जाए, जिसकी जल्द सरकार में आने की गुंजाइश नहीं दिख रही हो. आप के बवाना के विधायक ऐन चुनाव के दौरान बीजेपी में शामिल हो गए. इनका एक पूर्व विवादित मंत्री तो घूम-घूम कर बीजेपी प्रत्याशी का प्रचार करने लगे थे, जिसका खामियाजा भी बेचारे बीजेपी प्रत्याशी को भुगतना पड़ा. देवेन्द्र सेहरावत, असीम अहमद खान, तोमर, पंकज पुष्कर जैसे विधायक पहले से अलग-थलग पड़े हुए हैं. ऐसा नहीं था कि पार्टी को इस संभावित हार का अंदाज़ा नहीं था. इसलिए ईवीएम के ही बहाने, पर चुनाव को रोकने या टालने की कोशिशें कम नहीं हुई. बीच चुनाव में पेपर बैलेट से चुनाव की मांग की गई, बहाना यूपी और भिंड का लिया गया, जिन पर चुनाव आयोग पहले ही स्थिति स्पष्ट कर चुका था. बात वहां नहीं बनी तो सरकार हाई कोर्ट भागी और एक महीने के लिए चुनाव स्थगित करने की मांग की गई, पर बात वहां भी नहीं बनी. ऐसे में बेमन से चुनाव लड़ने की स्थिति थी, और परिणाम वहीं आए, जो तय थे.
अगर ईवीएम में दोष होते तो बीजेपी का मत प्रतिशत 2012 की तुलना में कम क्यों हुआ, कांग्रेस का मत प्रतिशत 8 फीसदी से बढ़कर 21 फीसदी क्यों हुआ. सच यह है कि बीजेपी का मत प्रतिशत 2012 की तुलना में घटा है, 2012 में जहां पार्टी को 36.81 फीसदी मत मिले थे, वह इस बार 36.18 फीसदी रहे. अगर कांग्रेस की जीती हुई सीटों पर नजर डाले तो पता चलेगा कि किस तरह मुस्लिम बहुल इलाकों में पार्टी जीती है. मुस्तफाबाद, जामा मस्जिद, बाजार सीताराम, दिल्ली गेट, ज़ाकिर नगर जैसी सीटों पर कांग्रेस की जीत से यह तो स्पष्ट है कि मुस्लिम मत बड़ी संख्या में पार्टी में लौटे. पूर्वांचल मत और अनाधिकृत कॉलोनियों के मत अधिक मात्रा में बीजेपी के पास गए, यूथ और मीडिल क्लास का मत भी वापस बीजेपी की तरफ़ लौटे. ऐसे में बेचारा ईवीएम क्या कर लेता.
हालात यह हुए कि 40 स्थानों पर आम आदमी पार्टी की जमानत ज़ब्त हुईं और 92 पर कांग्रेस की. बीजेपी के भी 5 प्रत्याशियों की ज़मानत ज़ब्त हुईं. दिल्ली के चुनावों में करीब 30,000 ईवीएम मशीनों का इस्तेमाल किया गया और केवल 18 मशीनों में शुरुआती गड़बड़ी पाई गए, जो तकनीकी और मशीनरी गड़बड़ियां थीं, पर इसे भी ईवीएम टैंपरिंग से जोड़कर मतदान के दिन सोशल मीडिया पर भ्रम फैलाने की कोशिश आम आदमी के बड़े नेताओं द्वारा हुई. मतदान के बाद चैनलों पर बहस एक्ज़िट पोल पर हो रहे थे, लेकिन एक्ज़िट पोल में भी ईवीएम की गड़बड़ी तलाशी जा रही थी. या तो पक्षकारों को एक्ज़िट पोल का तरीका ही पता नहीं था, या जानबूझकर अनजान बन सबको मूर्ख समझने की भूल कर रहे थे.
ईवीएम की हकीकत
ईवीएम पर पहले ही सवाल खड़ा हुए है, और चुनाव आयोग एक बार नहीं, कई बार विस्तार से बता चुका है कि भारत में बने ईवीएम को क्यों टैंपर करना असंभव है. जिन देशों में ईवीएम को लेकर सवाल उठे, वहां क्या कमियां थी, और भारत में ऐसी क्या व्यवस्था है जिनसे ईवीएम पूरी तरह से सुरक्षित माने गए, आराम से चुनाव आयोग से यहाँ वेबसाइट्स पर उपलब्ध हैं. पहला झूठ फैलाया गया कि ईवीएम जापान में बने हैं, चुनाव आयोग ने बताया कि ईवीएम भारत में ही डीआरडीओ की निगरानी में दो पीएसयू में ये तैयार है. इनमें वन टाइम प्रोग्रामिक चिप फ़िट होता है, जिन्हें परिस्थितियों या मौके के हिसाब से बार-बार रिराइट नहीं किया जा सकता. यह संभव ही नहीं है.
विदेशों के विपरीत यहां के ईवीएम पूरी तरह से वायरलेस हैं. यानि वाई-फ़ाई, इंटरनेट, ब्लूटूथ के ज़रिए छेड़छाड़ संभव नहीं है. पोलिंग बूथ पर पहले सारे पार्टी प्रतिनिधियों की मौजूदगी में मॉक ड्रिल के बाद मतदान शुरू होता है. अब इन्हें और पारदर्शी बनाने के लिए पिछले एक-दो साल से कुछ-कुछ जगहों पर पेपरट्रेल सिस्टम भी लगाया जा रहे हैं ताकि मतदाता को यह पता चले कि जहां उसने मत दिया, वोट उसी को पड़ा या नहीं. विवादों के बीच चुनाव आयोग मई के पहले हफ़्ते में एक सप्ताह तक एक वर्कशाप कराने की योजना पर भी कार्य कर रहा है, जिसमें तमाम पक्षों और एक्सपर्ट्स को एक प्रकार से भारतीय ईवीएम को हैक करने या टैंपरिंग साबित करने की चुनौती दी गई है. तब भी हार के मूल कारणों में जाने की बजाय ईवीएम के पीछे मुंह छिपाने की क़वायद कर और एक आसान रास्ते की तलाश से पार्टी किसका भला करना चाहती हैं, यह तो वही जाने, पर लोकतंत्र का भला नहीं होने वाला, यह तय है.
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