आज की पहली बधाई बीजेपी को, जिसने बिहार में हारी हुई बाज़ी को भी आख़िरकार जीत में तब्दील कर लिया. 2015 की हार मामूली नहीं थी, लेकिन 20 महीने के भीतर उससे उबरते हुए राज्य की आधी सरकार हथिया लेना, अपने मुख्य विरोधी आरजेडी को वापस विपक्ष में ढकेल देना, नीतीश कुमार को ख़ुद की शरण में आने के लिए मजबूर कर कमज़ोर, नीति-विहीन, सिद्धांतहीन एवं कुर्सी-लोलुप साबित कर देना और भविष्य के लिए बिहार की राजनीति की चाबी अपने हाथ कर लेना - एक तीर से उसने ये चार निशाने साधे हैं, जो निश्चय ही बड़ी तीरंदाज़ी का काम है.
दूसरी बधाई तेजस्वी यादव को, जिन्होंने उम्र से अधिक परिपक्वता दिखाते हुए आज ख़ुद को बिहार में विपक्ष के सबसे बड़े नेता के तौर पर स्थापित कर लिया. विधानसभा के अंदर और बाहर अपनी बात को उन्होंने मैच्योर नेता की तरह रखा है. उपमुख्यमंत्री के तौर पर उनकी छवि लालू के बेटे के तौर पर थी और नीतीश की छाया में उभर नहीं पा रही थी, लेकिन आज से वे मैदान में आमने-सामने की लड़ाई में होंगे. जो केसेज़ उनपर हैं, उससे उनके मुस्लिम-यादव वोट-बैंक पर कोई असर नहीं पड़ने वाला. उल्टे अगर उन्हें जेल जाना पड़ा या इस लड़ाई को ठीक से लड़ा, तो उनके पिछड़े वोट बैंक का और विस्तार संभव है.
मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार जी को कोई बधाई इसलिए नहीं, क्योंकि उन्होंने विश्वास मत भले जीत लिया है, लेकिन नैतिक रूप से वे हार गए हैं. यूं भी, कल भी वे मुख्यमंत्री ही थे और आज भी मुख्यमंत्री ही हैं, तो कौन-सा तीर मार लिया? ऊपर से मोदी और आरएसएस के ख़िलाफ़ कौन-कौन से तांडव उन्होंने नहीं किये, लेकिन कुर्सी बचाने के लिए आज उन्हें वापस मोदी की गोदी में ही जाना पड़ा है. कहां तो मोदी के ख़िलाफ़ वे प्रधानमंत्री पद की लड़ाई लड़ने की हसरतें पाले बैठे थे, संघमुक्त भारत बनाने का सपना उछाल रहे थे, कहां उन्हीं के आगे अपनी लाज समर्पित करनी पड़ी. देखा जाए, तो यह उनकी बहुत बड़ी हार है.
नीतीश की ये जीत नहीं हार है...
जहां तक मेरी समझ है, मोदी और शाह ने फौरी तौर पर एक राजनीतिक खेल ज़रूर खेला है, लेकिन श्री नीतीश कुमार जी द्वारा अपने अपमान को भूल जाने वाले लोग वे नहीं हैं. नीतीश जी अगर सुविधा की राजनीति करने के एक्सपर्ट हैं, तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह भी कभी दुविधा की राजनीति नहीं करते. इसलिए 2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश का इस्तेमाल करके 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्हें पटक न दिया, तो कहिएगा. बिल्कुल महाराष्ट्र फॉर्मूले की तरह, जैसे शिवसेना को वहां पटका.
शिवसेना का तो महाराष्ट्र में फिर भी अच्छा जनाधार है, इसलिए वह टिकी हुई है, लेकिन नीतीश जी के पास बिहार में अपना जनाधार तो है ही नहीं. इसे 2014 के लोकसभा चुनाव में भी हम सब देख चुके हैं कि किस तरह वे 40 में से महज दो सीटें जीत पाए. उनमें भी उनकी घरेलू सीट नालंदा पर उनका प्रत्याशी हारते-हारते बचा. 2015 के विधानसभा चुनाव में भी अगर लालू के कंधे पर सवार नहीं हुए होते, तो 10 सीटें भी नहीं जीत पाते.
हैरानी होती है, जब नीतीश कुमार जी ईमानदारी और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ ज़ीरो टॉलरेंस की बात करते हैं. क्योंकि जब लालू से महागठबंधन बनाया, तो वे भ्रष्टाचार के मामले में एक सज़ायाफ्ता मुजरिम थे. कांग्रेस को भी जनता ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही खारिज किया था. इतना ही नहीं, स्वयं नीतीश जी के राज में भी करप्शन कभी कम नहीं रहा. बच्चों की साइकिलों, पोशाकों और मिड-डे मील तक में घोटाले हुए. ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिए तो उनके कई नेता और अधिकारी कुख्यात ही थे. उनके प्रशासन के लोग शराब माफिया से 10-10 करोड़ की मांग करते हुए बेनकाब हुए.
इसलिए, मेरे ख्याल से नीतीश जी ने आज साबित कर दिया कि नरेंद्र मोदी ने उनके डीएनए के बारे में कुछ भी ग़लत नहीं कहा था. उनका डीएनए कैसा है, ज़रा ठीक से समझ लीजिए-
1. इमरजेंसी के दौर से करीब 40 साल तक कांग्रेस का विरोध करते रहे, लेकिन कुर्सी के लिए एक दिन हंसते-हंसते कांग्रेस की गोदी में बैठ गए.
2. बाबरी-विध्वंस की घटना के बाद 17 साल तक बीजेपी की गोदी में बैठे रहे, लेकिन पीएम बनने की महत्वाकांक्षा में एक दिन अचानक सांप्रदायिकता के नारे के सहारे उसे गाली देना शुरू कर दिया.
3. गुजरात दंगों के बाद वे न सिर्फ़ वाजपेयी कैबिनेट में बने रहे, बल्कि नरेंद्र मोदी की तारीफ़ भी करते थे और उनसे गुजरात से बाहर निकलकर देश का नेतृत्व करने की अपील भी करते थे, लेकिन दंगों के कई साल बाद एक दिन अचानक उन्हें कोई स्वप्न आया और मोदी उन्हें दंगाई नज़र आने लगे.
4. 17 साल तक लालू यादव को गाली देते रहे, उनके राज को जंगलराज कहते रहे, लेकिन कुर्सी के लिए एक दिन उनके साथ भी गठबंधन कर लिया.
5. बीजेपी से शादी करके वे कांग्रेस से इश्क लड़ाते हैं. कांग्रेस से शादी करके वे बीजेपी से इश्क लड़ाते हैं. बीजेपी से जी भर गया, तो कांग्रेस का हाथ थाम लिए. कांग्रेस से जी भर गया, तो बीजेपी का हाथ थाम लिए.
6. 2013 में उन्होंने बिहार की जनता के 2010 के आदेश का उल्लंघन किया. 2017 में उन्होंने बिहार की जनता के 2015 के आदेश का उल्लंघन किया.
7. तेजस्वी का यह सवाल भी उनके डीएनए की सटीक व्याख्या करता है कि अगर वापस मोदी की गोदी में ही जाना था, तो चार साल में चार सरकारें क्यों बनाई, सेक्युलरिज़्म का इतना ढोंग क्यों रचा, संघमुक्त भारत का नारा क्यों लगाया, दलित नेता जीतनराम मांझी का अपमान क्यों किया, बिहार की जनता को इतना परेशान क्यों किया, सरकारी खजाने पर इतना बोझ क्यों डाला?
इसीलिए मुझे लगता है कि जैसे 2013 की गलती का अहसास नीतीश कुमार जी को 2017 आते-आते हो गया, वैसे ही 2017 की गलती का अहसास 2020 जाते-जाते हो जाएगा. और उसके बाद राजनीति उन्हें कितने मौके देगी या नहीं देगी, इसके बारे में अभी से क्या बात करें?
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