यूपी के अंतिम जिले सहारनपुर में तनाव नित नए बहाने ढूंढ रहा है. कभी धर्म की आड़ में तो कभी जातीय संघर्ष की शक्ल में. कभी पुरानी घटनाओं के बहाने से तो कभी महापुरुषों की आड़ लेकर. आखिर इस हिंसा के पीछे मंशा क्या है? इसे रोकने में प्रशासन क्यों नाकाम है? इनमें शामिल राजनीतिक लोगों पर सख्ती क्यों नहीं? एक माह में हिंसा की लगातार 18 घटनाओं के पीछे सियासी हाथ को खुद शासन और प्रशासन स्वीकार कर रहा है.
दरअसल 23 जून को स्थानीय निकायों (नगर निगम, नगरपालिका और नगर पंचायत) का कार्यकाल समाप्त हो रहा है. शासन स्तर पर चुनावी तैयारियां शुरू हो चुकी हैं और सहारनपुर को इसकी प्रयोगशाला बनाया जा रहा है. इसलिए क्योंकि यह बसपा का गढ़ रहा है. कांशीराम यहीं से लोकसभा का चुनाव लड़े और मायावती यहीं से पहली बार चुनाव जीतकर सूबे की मुख्यमंत्री बनी थीं. 2012 में अखिलेश यादव को प्रचंड बहुमत मिला था, लेकिन इस जिले की सात में से चार सीटें बसपा के खाते में गई थीं. 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा यहां पूरी तरह से साफ हो गई. जाहिर है कि बसपा का आधार दलित वोट भाजपा के पाले में चला गया. कितने फीसदी गया? यह समीक्षा का विषय है, लेकिन जितना गया वह निर्णायक था.
2009 में गठित सहारनपुर नगर निगम का चुनाव पहली बार होना है. गणित को यूं समझिए कि सहारनपुर शहर विधानसभा सीट में सहारनपुर देहात विधानसभा सीट के 32 गांव को जोड़कर निगम बना है. ये सभी गांव दलित व मुस्लिम बाहुल्य हैं और मेयर पद पर जीत के लिए इन गांवों के 100 फीसदी दलितों का भाजपा को साथ चाहिए. शायद इसीलिए 20 अप्रैल को भाजपा सांसद राघव लखनपाल शर्मा ने सड़क दूधली में जबरन आंबेडकर शोभायात्रा निकाली और इस दौरान सांप्रदायिक हिंसा हो गई. लेकिन दलित जब भाजपा के...
यूपी के अंतिम जिले सहारनपुर में तनाव नित नए बहाने ढूंढ रहा है. कभी धर्म की आड़ में तो कभी जातीय संघर्ष की शक्ल में. कभी पुरानी घटनाओं के बहाने से तो कभी महापुरुषों की आड़ लेकर. आखिर इस हिंसा के पीछे मंशा क्या है? इसे रोकने में प्रशासन क्यों नाकाम है? इनमें शामिल राजनीतिक लोगों पर सख्ती क्यों नहीं? एक माह में हिंसा की लगातार 18 घटनाओं के पीछे सियासी हाथ को खुद शासन और प्रशासन स्वीकार कर रहा है.
दरअसल 23 जून को स्थानीय निकायों (नगर निगम, नगरपालिका और नगर पंचायत) का कार्यकाल समाप्त हो रहा है. शासन स्तर पर चुनावी तैयारियां शुरू हो चुकी हैं और सहारनपुर को इसकी प्रयोगशाला बनाया जा रहा है. इसलिए क्योंकि यह बसपा का गढ़ रहा है. कांशीराम यहीं से लोकसभा का चुनाव लड़े और मायावती यहीं से पहली बार चुनाव जीतकर सूबे की मुख्यमंत्री बनी थीं. 2012 में अखिलेश यादव को प्रचंड बहुमत मिला था, लेकिन इस जिले की सात में से चार सीटें बसपा के खाते में गई थीं. 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा यहां पूरी तरह से साफ हो गई. जाहिर है कि बसपा का आधार दलित वोट भाजपा के पाले में चला गया. कितने फीसदी गया? यह समीक्षा का विषय है, लेकिन जितना गया वह निर्णायक था.
2009 में गठित सहारनपुर नगर निगम का चुनाव पहली बार होना है. गणित को यूं समझिए कि सहारनपुर शहर विधानसभा सीट में सहारनपुर देहात विधानसभा सीट के 32 गांव को जोड़कर निगम बना है. ये सभी गांव दलित व मुस्लिम बाहुल्य हैं और मेयर पद पर जीत के लिए इन गांवों के 100 फीसदी दलितों का भाजपा को साथ चाहिए. शायद इसीलिए 20 अप्रैल को भाजपा सांसद राघव लखनपाल शर्मा ने सड़क दूधली में जबरन आंबेडकर शोभायात्रा निकाली और इस दौरान सांप्रदायिक हिंसा हो गई. लेकिन दलित जब भाजपा के पक्ष में खड़े नहीं हुए तो यह लड़ाई शब्बीरपुर में जातीय रूप ले बैठी.
4800 की आबादी वाले शब्बीरपुर में दो साल पहले सामान्य जाति की प्रधान सीट पर दलित शिव कुमार निर्वाचित हुए थे. यहां ठाकुर 60 फीसदी और दलित 35 फीसदी हैं. गांव में अपनी सरकार मानकर दलितों ने चार माह पूर्व रविदास मंदिर में आंबेडकर प्रतिमा स्थापित करने की ठानी, प्रशासनिक अनुमति नहीं मिली तो यह मामला टल गया. लेकिन 5 मई को गांव में बिना अनुमति महाराणा प्रताप जयंती के जुलूस से उन्हें खुद के दलित होने का अहसास हुआ. विरोध करने पर उनके घर फूंक दिए गए, लेकिन ठाकुर पक्ष का एक युवक भी मारा गया. 9 मई को स्थानीय संगठन ‘भीम आर्मी’ ने 9 जगहों पर पुलिस के खिलाफ हिंसा की तो दलितों को चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ के रूप में एक मसीहा दिखाई दिया.
चंद्रशेखर और बसपा के पूर्व विधायक रवींद्र कुमार मोल्हू के खिलाफ मुकदमे हुए. लेकिन चंद्रशेखर ने 21 मई को दिल्ली के जंतर मंतर पर ऐलानिया भीड़ जुटाकर बसपा की नींद उड़ा दी. 23 मई को बसपा सुप्रीमो मायावती शब्बीरपुर पहुंच गई. भारी फोर्स के बावजूद उनके आने से करीब एक घंटा पूर्व ‘भीम आर्मी’ ने ठाकुरों के घरों पर धावे बोले. लेकिन मायावती के जाने के बाद घरों को लौट रहे दलितों पर रास्तों में हमले हुए और एक दलित युवक मारा गया.
हिसाब होता तो यहीं बराबर हो जाता, लेकिन इसके पीछे तो राजनीति है जो बराबरी पर भी तय नहीं हो सकती. एक पक्ष दलितों को बसपा और दूसरा पक्ष मुस्लिमों के साथ देखना चाहता है, जबकि तीसरा पक्ष इन्हें भाजपा के साथ निरंतर चाहता है.
2014 के लोकसभा के चुनाव के बाद से दलितों में यह अहसास तो रहा कि भाजपा की केंद्र सरकार में उनके अच्छे दिन आएंगे, लेकिन देश भर में दलित विरोधी हिंसा की खबरों ने इन्हें बेचैन किए रखा. 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद यकायक यह बेचैनी फूट पड़ी है. उन्हें लगता है कि बसपा की तरह ही भाजपा भी उन्हें सियासी तौर पर अपनाती है, व्यवहारिक तौर पर नहीं.
इन हिंसाओं से यूपी की भाजपा सरकार और सियासत को सीधे चुनौती मिली है. सरकार ने प्रमुख सचिव (गृह), एडीजी (कानून व्यवस्था), डीएम, एसएसपी से लेकर डीआइजी और कमिश्नर तक को हटा दिया. हालात फिर भी काबू में नहीं आए तो इंटरनेट सेवाएं बंद करा दीं. ठीक उसी तरह जैसे किसी सड़क पर लगातार लूट होने के बाद लुटेरों को पकड़ने के बजाए सड़क को आवागमन के लिए बंद कर दिया जाए. सरकार के तमाम आला अफसर सहारनपुर में डेरा डाले हैं, लेकिन कबीलों की तर्ज हिंसा और तनाव बरकरार है.
कानून बैकफुट पर है और सियासत फ्रंट फुट पर. मायावती के दौरे के बाद सरकार ने नेताओं के सहारनपुर आगमन पर रोक लगा दी है, लेकिन शनिवार को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी शब्बीरपुर पहुंचने का ऐलान कर दिया है. ऐसे में रमजान के पहले दिन राहुल का दौरा प्रशासन की अग्नि परीक्षा से कम नहीं रहेगा.
ये भी पढ़ें-
सहरानपुर में लचर प्रशासन है दोषी No.1
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.