प्लीज दे दो जाट भाइयों को आरक्षण. ये खून-खराबा, आगजनी-पथराव, गोलीबारी-बमबारी मत करो. तुम्हें क्या अपनी जेब में से कुछ देना है? उनका हक है. उसी में से वे कुछ मांग रहे हैं. दे दो. पटेलों और कापुओं को भी दे दो. और कोई मांगने आए तो उसे भी दे दो. ये रोज-रोज का झगड़ा खत्म हो, इसीलिए मैं बार-बार कहता हूं 100 प्रतिशत आरक्षण कर दो. जिसकी जितनी आबादी, उसको उतना आरक्षण.
100 प्रतिशत आरक्षण कर दोगे, तो सबसे पहले तो जातिवादियों की दुकानें बंद हो जाएंगी. जाति के नाम पर राजनीति करते कुकुरमुत्ते सूख जाएंगे. हमें नहीं मिला...हमें नहीं मिला... सभी जातियों की ये शिकायतें भी खत्म हो जाएंगी.
जहां तक योग्यता का सवाल है, तो यह एक भ्रम मात्र है. न कोई योग्य है, न कोई अयोग्य है. जब अंगूठा छापों को मंत्री, मुख्यमंत्री, विधायक, सांसद बनने देते हो, तब कहां चला जाता है तुम्हारे योग्यता का पैमाना? सारी योग्यता तुम्हें चपरासियों, क्लर्कों और बाबुओं के लिए ही देखनी है? या इंजीनियरों, डॉक्टरों के लिए भी क्या करोगे योग्यता देखकर? मूर्ख मुख्यमंत्री चलेगा, तो इन-इफीसिएंट इंजीनियर, डॉक्टर क्यों नहीं चलेंगे?
डफर डॉक्टरों को मत लगाना प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के दिमाग और सीने की सर्जरी में. सर्दी-खांसी-छींक-बुखार का भी वे इलाज नहीं कर सकते क्या? सबसे ज्यादा लोग तो इन्हीं बीमारियों से बीमार होते हैं. फिर भी अगर तुम्हें अपनी जान का डर है, तो डॉक्टरी पेशे के लिए खत्म कर दो आरक्षण. मुझे यकीन है कि लोग इसपर सहमत हो जाएंगे. जो आरक्षण मांग रहे हैं, उन्हें भी जान का डर तो लगता ही होगा.
जब संविधान बनाए जाते समय कहा जा रहा था कि आरक्षण एक आग है, मत धधकाओ इसे. धधकने लगेगी, तो बुझाना मुश्किल हो जाएगा. तब समझ नहीं आया? मंडल की सिफारिशें लागू करते समय भी बुद्धि बिलाई हुई थी? अगर सामाजिक न्याय है, तो यह महज कुछ जातियों के लिए ही क्यों होगा? अगर सामाजिक न्याय है, तो फिर जिस-जिस जाति को लगेगा कि उसे न्याय नहीं मिल रहा, तो उसको भी देना होगा. अधूरा न्याय नहीं...
प्लीज दे दो जाट भाइयों को आरक्षण. ये खून-खराबा, आगजनी-पथराव, गोलीबारी-बमबारी मत करो. तुम्हें क्या अपनी जेब में से कुछ देना है? उनका हक है. उसी में से वे कुछ मांग रहे हैं. दे दो. पटेलों और कापुओं को भी दे दो. और कोई मांगने आए तो उसे भी दे दो. ये रोज-रोज का झगड़ा खत्म हो, इसीलिए मैं बार-बार कहता हूं 100 प्रतिशत आरक्षण कर दो. जिसकी जितनी आबादी, उसको उतना आरक्षण.
100 प्रतिशत आरक्षण कर दोगे, तो सबसे पहले तो जातिवादियों की दुकानें बंद हो जाएंगी. जाति के नाम पर राजनीति करते कुकुरमुत्ते सूख जाएंगे. हमें नहीं मिला...हमें नहीं मिला... सभी जातियों की ये शिकायतें भी खत्म हो जाएंगी.
जहां तक योग्यता का सवाल है, तो यह एक भ्रम मात्र है. न कोई योग्य है, न कोई अयोग्य है. जब अंगूठा छापों को मंत्री, मुख्यमंत्री, विधायक, सांसद बनने देते हो, तब कहां चला जाता है तुम्हारे योग्यता का पैमाना? सारी योग्यता तुम्हें चपरासियों, क्लर्कों और बाबुओं के लिए ही देखनी है? या इंजीनियरों, डॉक्टरों के लिए भी क्या करोगे योग्यता देखकर? मूर्ख मुख्यमंत्री चलेगा, तो इन-इफीसिएंट इंजीनियर, डॉक्टर क्यों नहीं चलेंगे?
डफर डॉक्टरों को मत लगाना प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के दिमाग और सीने की सर्जरी में. सर्दी-खांसी-छींक-बुखार का भी वे इलाज नहीं कर सकते क्या? सबसे ज्यादा लोग तो इन्हीं बीमारियों से बीमार होते हैं. फिर भी अगर तुम्हें अपनी जान का डर है, तो डॉक्टरी पेशे के लिए खत्म कर दो आरक्षण. मुझे यकीन है कि लोग इसपर सहमत हो जाएंगे. जो आरक्षण मांग रहे हैं, उन्हें भी जान का डर तो लगता ही होगा.
जब संविधान बनाए जाते समय कहा जा रहा था कि आरक्षण एक आग है, मत धधकाओ इसे. धधकने लगेगी, तो बुझाना मुश्किल हो जाएगा. तब समझ नहीं आया? मंडल की सिफारिशें लागू करते समय भी बुद्धि बिलाई हुई थी? अगर सामाजिक न्याय है, तो यह महज कुछ जातियों के लिए ही क्यों होगा? अगर सामाजिक न्याय है, तो फिर जिस-जिस जाति को लगेगा कि उसे न्याय नहीं मिल रहा, तो उसको भी देना होगा. अधूरा न्याय नहीं चलेगा.
अगर आरक्षण से प्रॉब्लम है, तो जब भागवत बोलते हैं कि आरक्षण की समीक्षा करो, तो बिलबिला क्यों उठते हो? और अगर आरक्षण से प्रॉब्लम नहीं है, तो चाहे पटेल मांगें, कापू मांगें, जाट मांगें, देने में गणितज्ञ क्यों बनने लगते हो? आरक्षण की समस्या के दो ही हल हैं. या तो जातीय आरक्षण पूरी तरह से खत्म कर दो. या फिर उन सबको आरक्षण दे दो, जो-जो इसकी मांग करें. कल समस्या न उठे, इसलिए उन्हें भी दे दो, जो आज नहीं मांग रहे.
पहला हल अब संभव है नहीं, क्योंकि तुमने अपने लोकतंत्र की बुनियाद ही जाति और धर्म के आधार पर रख ली. धर्म के नाम पर तुमने देश का बंटवारा कबूल कर लिया और जाति के नाम पर तुमने आरक्षण कबूल कर लिया. इसलिए अब सिर्फ और सिर्फ दूसरा हल बचता है- सबको आरक्षण दे देने का. 100 प्रतिशत आरक्षण का. 50 प्रतिशत की सीलिंग समाप्त कर देने का. जिसकी जितनी आबादी है, उसे उतना हिस्सा दे देने का.
घर में खाने की टेबुल पर सबकी थालियां क्या अलग-अलग तरह की सजाते हो? जब बाजार से मिठाई लाते हो, तो सभी बच्चों में बराबर-बराबर बांट देते हो कि नहीं? और अगर बराबर-बराबर नहीं बांटोगे, तो झगड़ा होगा कि नहीं?
वैसे भी बात जब हिस्सेदारी पर आ जाए, तो सबको बराबर मिले- यही उचित है. जब तक चार भाई साथ होते हैं, कौन कितना खर्च करता, कोई नहीं देखता, पर जब बंटवारा होता है, तो एक-एक धुर जमीन बराबर-बराबर बांट दी जाती है.
तुमने जाति और धर्म के आधार पर बंटवारे वाला लोकतंत्र चुना. सिर्फ दिखाने के लिए अपने संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़े. लेकिन दिखावा और सच्चाई में फर्क है प्यारे, इसलिए सबको आरक्षण दे दो. शांति और सौहार्द्र के लिए यही जरूरी है. आरक्षण मजबूरी है. लेने वालों के लिए भी और देने वालों के लिए भी!
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.