डर के आगे जीत होती है कि नहीं, कहना मुश्किल है. हौसलाअफजाई की बात और है, लेकिन राजनीति, खासकर चुनावों में इसकी कोई भूमिका नहीं होती.
यूपी चुनाव में प्रचार देखें तो ऐसे लग रहा है जैसे गलाकाट प्रतियोगिता चल रही हो. रोज नये नये जुमले गढ़े जाते हैं और फिर बारी बारी सब उस पर अपनी अपनी दलील पेश करते हैं. कब्रिस्तान और कसाब से होते हुए मामला करंट पर पहुंच चुका है.
जीत के तो दावे सभी कर रहे हैं, बावजूद इसके ऐसा लगता है जैसे हर कोई डरा हुआ है.
वोटिंग में गिरावट
यूपी के पहले चरण के चुनाव में 64 फीसदी मतदान दर्ज किया गया और दूसरे फेज में एक फीसदी इजाफा भी देखा गया. अक्सर मतदान में इजाफा को सत्ताधारी दल के खिलाफ संकेत के तौर पर लिया जाता है, हालांकि इसके अपवाद भी देखे जा चुके हैं.
चुनाव के तीसरे दौर में मतदान 61.16 तो चौथे चरण में 61 फीसदी दर्ज किया गया. यहां तक तो गनीमत रही. चौथे फेज आते आते ये गिर कर 57.36 फीसदी पहुंच गया.
हर पार्टी ने अपने अपने तरीके से इसका विश्लेषण किया है - लेकिन सबसे ज्यादा चिंतित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है.
बीजेपी का डर
अंग्रेजी अखबार टेलीग्राफ की रिपोर्ट मालूम होता है कि आरएसएस चुनाव में बीजेपी की मौजूदा स्थिति को लेकर कितना चिंतित है. संघ ने कार्यकर्ताओं को सलाह दी है कि वो सुनिश्चित करें कि हर हाल में वोट परसेंटेज ज्यादा हो. पांचवें चरण में हुई कम वोटिंग को संघ बीजेपी के लिए अच्छा संकेत नहीं मानता.
यूपी में मुसलमानों को एक भी टिकट न देने को लेकर भी बीजेपी नेता राजनाथ सिंह ने अफसोस जताया था. कहीं राजनाथ सिंह के बयान के पीछे भी किसी तरह का डर तो नहीं है?
अमित शाह और मोदी सरकार के कई मंत्री बनारस में पहले से ही डेरा जमाये हुए हैं - और मोदी भी लगातार तीन दिन तक बनारस में जनसंपर्क कर रहे हैं.
हर तरफ सवाल एक ही है - यूपी में मोदी की रैलियों की संख्या बढ़ाना तो ठीक था, लेकिन बनारस में इतना ज्यादा...
डर के आगे जीत होती है कि नहीं, कहना मुश्किल है. हौसलाअफजाई की बात और है, लेकिन राजनीति, खासकर चुनावों में इसकी कोई भूमिका नहीं होती.
यूपी चुनाव में प्रचार देखें तो ऐसे लग रहा है जैसे गलाकाट प्रतियोगिता चल रही हो. रोज नये नये जुमले गढ़े जाते हैं और फिर बारी बारी सब उस पर अपनी अपनी दलील पेश करते हैं. कब्रिस्तान और कसाब से होते हुए मामला करंट पर पहुंच चुका है.
जीत के तो दावे सभी कर रहे हैं, बावजूद इसके ऐसा लगता है जैसे हर कोई डरा हुआ है.
वोटिंग में गिरावट
यूपी के पहले चरण के चुनाव में 64 फीसदी मतदान दर्ज किया गया और दूसरे फेज में एक फीसदी इजाफा भी देखा गया. अक्सर मतदान में इजाफा को सत्ताधारी दल के खिलाफ संकेत के तौर पर लिया जाता है, हालांकि इसके अपवाद भी देखे जा चुके हैं.
चुनाव के तीसरे दौर में मतदान 61.16 तो चौथे चरण में 61 फीसदी दर्ज किया गया. यहां तक तो गनीमत रही. चौथे फेज आते आते ये गिर कर 57.36 फीसदी पहुंच गया.
हर पार्टी ने अपने अपने तरीके से इसका विश्लेषण किया है - लेकिन सबसे ज्यादा चिंतित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है.
बीजेपी का डर
अंग्रेजी अखबार टेलीग्राफ की रिपोर्ट मालूम होता है कि आरएसएस चुनाव में बीजेपी की मौजूदा स्थिति को लेकर कितना चिंतित है. संघ ने कार्यकर्ताओं को सलाह दी है कि वो सुनिश्चित करें कि हर हाल में वोट परसेंटेज ज्यादा हो. पांचवें चरण में हुई कम वोटिंग को संघ बीजेपी के लिए अच्छा संकेत नहीं मानता.
यूपी में मुसलमानों को एक भी टिकट न देने को लेकर भी बीजेपी नेता राजनाथ सिंह ने अफसोस जताया था. कहीं राजनाथ सिंह के बयान के पीछे भी किसी तरह का डर तो नहीं है?
अमित शाह और मोदी सरकार के कई मंत्री बनारस में पहले से ही डेरा जमाये हुए हैं - और मोदी भी लगातार तीन दिन तक बनारस में जनसंपर्क कर रहे हैं.
हर तरफ सवाल एक ही है - यूपी में मोदी की रैलियों की संख्या बढ़ाना तो ठीक था, लेकिन बनारस में इतना ज्यादा वक्त!
साथ में भी डर
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जब चुनाव अभियान पर पहली बार निकले थे तो गायत्री प्रजापति उनके इर्द गिर्द ही नजर आ रहे थे. उससे पहले वो गायत्री प्रजापति को बर्खास्त करने के बाद पिता मुलायम सिंह यादव के कहने पर फिर से शामिल कर चुके थे.
अखिलेश यादव जब अमेठी गये तो गायत्री प्रजापति के लिए भी वोट मांगा, लेकिन तंज कसने के साथ - 'इन्हें जिता देना, वैसे आजकल न्यूज में ज्यादा आ रहे हैं.'
अखिलेश का इशारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश की ओर था जिसके बाद गायत्री प्रजापति के खिलाफ यौन शोषण का मामला दर्ज किया गया.
एफआईआर दर्ज होने के बाद तो अखिलेश के सारे विरोधी घेर ही लिये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो उन्हें गायत्री को लेकर खूब खरी खोटी सुनायी. लगता है अखिलेश को भी लगने लगा है कि गायत्री को टिकट देकर गलती हुई और उससे भी बढ़ी गलती उनके लिए वोट मांग कर.
फरार चल रहे अपने मंत्री के बारे में अब अखिलेश कह रहे हैं कि गायत्री को सरेंडर कर देना चाहिये.
अभी मऊ की रैली में भी अखिलेश ने एक बात कही थी - 'हमारी किसी से नाराजगी नहीं है.' अखिलेश का आशय अंसारी बंधुओं से था - और डर शायद मुस्लिम वोटों के छिटक जाने का.
अखिलेश यादव कहते रहे हैं कि कांग्रेस से गठबंधन के बाद सीटें 300 के पार होंगी, लेकिन पिंडरा की सभा में राहुल बोले कि कम से कम 250 सीटें तो आएंगी ही. कोई कन्फ्यूजन है या किसी बात का डर है?
बीएसपी का डर
मायावती ने बहुत ही सोच समझ कर ब्राह्मण और सवर्ण वोटों को तरजीह न देकर इस बार दलित-मुस्लिम गठजोड़ तैयार किया. पश्चिम यूपी में बीएसपी नेता नसीमुद्दीन को तो उन्होंने पहले ही ठेका दे रखा था, जब मुख्तार अंसारी की समाजवादी पार्टी से बात नहीं बनी तो हाथों हाथ ले लिया. फिर से सत्ता हासिल करने के लिए मायावती को ये सबसे कारगर हथियार समझ आया.
मायावती ने पहले तो कहा कि वो मुख्तार को सुधरने का मौका दे रही हैं - फिर बाद में समझाया कि एक बार मुख्तार चुनाव जीत गये तो सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा. उनके कहने का मतलब ये रहा कि मुख्तार चुनाव जीते नहीं कि दूध के धुले नजर आने लगेंगे.
लेकिन वो सब होता कहां है जैसा सोचा जाता है. मायावती के साथ भी मुख्तार के मामले में ऐसा ही हुआ. मुख्तार का पैरोल हाई कोर्ट से रद्द हो गया. कहां मुख्तार पूरे पूर्वांचल में घूम घूम कर मायावती को मुख्यमंत्री बनाने की अपील करते कहां अपने इलाके में भी चुनाव प्रचार छोटे बेटे के भरोसे छोड़ना पड़ा.
प्रधानमंत्री मोदी की मऊ रैली के बाद वहां की लड़ाई बाहुबली और कटप्पा के बीच हो गयी है, जबकि मोहम्मदाबाद में मुख्तार के भाई सिगबतुल्लाह को भी बीजेपी प्रत्याशी से कट्टर चुनौती मिल रही है.
पहले मायावती का जोर इस बात पर हुआ करता था कि मुस्लिम समुदाय के लोग समाजवादी पार्टी को समर्थन देकर अपना वोट न बर्बाद करें - अब उनके भाषणों में चुनाव जीतने पर पूर्वांचल को नया राज्य बनाने की बात सबसे ऊपर लगती है.
4 मार्च को पूर्वांचल के 49 सीटों के लिए वोट डाले जाने हैं. 2012 में समाजवादी पार्टी को इनमें से 27 सीटें मिली थीं - यानी, आधे से भी ज्यादा. बीएसपी को पूर्वांचल में 9, बीजेपी को 7 और कांग्रेस के खाते में सिर्फ 4 सीटें मिल पाई थीं.
सबके अपने अपने दावे हैं और अपना अपना आकलन. क्या पूर्वांचल पार्ट 1 की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी है? और क्या डर के आगे जीत है?
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