एक इतिहासकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वो इतिहास से जुड़े पुख्ता तथ्यों से समाज को रूबरू कराए. लेकिन जब इतिहासकार तथ्यों और घटनाओं को छोड़कर 'फिक्शन' अथवा कहानियों के आधार पर लेख लिखने लगे तो बड़ा आश्चर्य होता है. गत 25 जून 2016 को एक अंग्रेजी अखबार में इतिहासकार रामचन्द्र गुहा का एक लेख 'डिवाइड एंड विन' शीर्षक से छपा था. हालांकि 25 जून को देश 'आपातकाल' की बरसी के तौर पर याद करता है. लेकिन इतिहासकार रामचन्द्र गुहा 'आपातकाल' की 41वीं बरसी पर संजय और इंदिरा गांधी को याद तो किया मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से तुलना करते हुए याद किया. खैर, दो घटनाक्रमों एवं दो कालखंडों की तुलना का अधिकार एक लेखक का होता है, और होना भी चाहिए. लेकिन महत्वपूर्ण यह होता कि लेखक द्वारा तुलना का आधार क्या तय किया जा रहा है ?
अपने लेख में रामचन्द्र गुहा लिखते हैं कि जैसे तब संजय गांधी इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र थे, वैसे ही अमित शाह नरेंद्र मोदी के विश्वास पात्र हैं. आपातकाल की बरसी पर इस दो कालखंडों के दो नेताओं की यह तुलना ही बेमानी है, फिर भी रामचंद्र गुहा इस तथ्य को ध्यान में क्यों नहीं रखते हैं कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों ही नेता सार्वजनिक जीवन एवं राजनीति में ऊपर से न तो थोपे गये हैं और न ही किसी वंश परम्परा के प्रतीक रूप में लादे गये हैं. जबकि इसके उलट इंदिरा को सत्ता और राजनीति विरासत में उनके पिता नेहरु से मिली थी और संजय गांधी इंदिरा गांधी के पुत्र होने के नाते उनकी विरासत संभाल रहे थे. एक वंशवादी परिवार की तानशाही द्वारा थोपे गये 'कलंकित दिवस अर्थात आपातकाल' के दिन दो ऐसे नेताओं का तुलना करते हुए जिक्र करना, जो अपने संगठन में दशकों के संघर्ष के बाद खुद को साबित करके एक मुकाम तक पहुंचे हों, सिवाय मनगढ़ंत एवं बेजा कहानी के कुछ भी नहीं है.
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इंदिरा के कार्यकाल में संजय पर शक्ति अधिग्रहण का आरोप |
हालांकि इतिहासकार रामचन्द्र गुहा इतने पर नहीं ठहरते हैं. वे अमित शाह की संजय गांधी से तुलना करते हुए लिखते हैं कि शाह को सिर्फ पावर से प्यार है. एक इतिहासकार होने के नाते रामचंद्र गुहा को यह बात जरुर पता होगी कि संजय गांधी को पावर किसी दायित्व के निर्वहन के लिए नहीं मिली थी बल्कि इंदिरा गांधी का पुत्र होने के नाते मिली थी. इसके उलट अमित शाह ने अगर किसी पद अथवा उस पद के लिए अधिकृत पावर को प्राप्त किया है तो इसके पीछे एक राजनीतिक दल में एक कार्यकर्ता से नेता तक के सफ़र में उनके दीर्घकालिक समर्पण का इतिहास है. इतिहासकार गुहा इस इतिहास में जाने में रूचि दिखाते तो अच्छा होता.
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मोदी और शाह की तुलना इंदिरा और संजय से |
अमित शाह को क्रुर और 'एकमत थोपने' वाला साबित करने के लिए इस लेख में एक पत्रकार की किताब 'गुजरात फाइल्स' का न सिर्फ जिक्र किया गया है, बल्कि तथ्यों की पुष्टि के लिए इसे पढने का अप्रत्यक्ष सुझाव भी दिया गया है. एक वरिष्ठ इतिहासकार जब गुजरात मामले को समझने के लिए लंबे समय तक चले संविधान सम्मत अदालती प्रक्रिया को बताने अथवा पढवाने की बजाय एक पत्रकार की किताब का हवाला दे रहा हो, तो इसे दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाएगा. जबकि गुजरात मामले में अमित शाह से जुड़े तमाम अदालती तथ्य उन्हें बेदाग़ साबित करते हैं. अब यह सवाल इतिहासकार लेखक से पूछा जाना चाहिए कि वो किसी भी घटना के संबंध में अपना मत किसी पत्रकार की किताब के आधार पर तय करते हैं अथवा अदालत की प्रक्रिया के आधार पर ?
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इस लेख में अमित शाह को लेकर यह भी लिखा गया है कि वे पार्टी में डराकर सम्मान प्राप्त करते हैं एवं उन्होंने मीडिया को झुकने के लिए मजबूर कर दिया है. लेखक की यह बात भी तथ्यों के धरातल पर खोखली साबित होती है. पहली बात तो यह है कि पार्टी में कोई भी किसी से डरकर काम कर रहा है, इसबात की जानकारी का आधार क्या है? इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा के पार्टी संविधान के अनुसार पार्टी का सर्वोच्च पद राष्ट्रीय अध्यक्ष का है, लिहाजा अधिकार भी उन्हीं के ज्यादा होंगे और उन अधिकारों का प्रयोग भी उस पद पर बैठा व्यक्ति ही करेगा. दूसरी बात ये कि राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर चाहें अमित शाह हों या पहले कोई और रहा हो, सभी ने उन अधिकारों का प्रयोग किया है. यह किसी व्यक्ति का अधिकार नहीं है बल्कि एक पद का अधिकार है. पार्टी में पार्टी लाइन से हटकर निजी विचार रखने वालों पर कोई पाबंदी होती तो आज कई लोग पार्टी में नहीं होते. लेकिन भाजपा में सबको अपनी बात कहने का अधिकार है इसका प्रमाण यही है कि तमाम लोग जो कई बार अमित शाह से सहमत नहीं रहते हैं वे भी अपनी बात कह पाते हैं. रही बात मीडिया की आजादी की तो क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि अगर पिछले साठ वर्षों में किसी एक राजनीतिक व्यक्ति का मीडिया में सर्वाधिक 'मीडिया ट्रायल' हुआ है, तो वे नरेंद्र मोदी हैं. लेकिन दो वर्षों के भाजपा शासन में मीडिया की आजादी को कहीं भी कोई खतरा नजर आया हो तो उसे तथ्यात्मक ढंग से लेखक को रखना चाहिए था. आज भी मीडिया के तमाम चैनल अमित शाह को बुलाते हैं, वे जाते हैं और उनके सभी सवालों पर अपना पक्ष रखते हैं. क्या ये मीडिया को डराना कहा जायेगा?
आपातकाल की 41 वी बरसी पर छपे लेख के लेखक एक प्रख्यात इतिहासकार के रूप में नहीं बल्कि एक कहानीकार के रूप में ज्यादा नजर आ रहे हैं. उस लेख में तथ्यों की बजाय कल्पना आधारित तुलनाओं, उपमाओं का ज्यादा जिक्र है. सच्चाई के धरातल पर यह लेख सिवाय एक व्यक्ति अथवा दल के विरोध के कुछ नहीं है.
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