यूपी चुनाव में मुस्लिम वोटों पर अब मायावती का वैसे ही जोर है, जैसे झगड़े से पहले मुलायम का हुआ करता रहा. समाजवादी गठबंधन के बाद कांग्रेस की भी निश्चित तौर पर कुछ उम्मीद बंध ही गई होगी. मैदान में तो असदुद्दीन ओवैसी भी हैं, लेकिन बिहार चुनाव का रिकॉर्ड बताता है कि यूपी में भी उन्हें शायद ही कुछ हासिल हो पाये.
अब सवाल ये है कि क्या मुस्लिम वोट पूरी तरह मायावती के पक्ष में जाएगा? या अखिलेश यादव और राहुल गांधी के साथ हो जाने से अब गठबंधन का रुख कर लेगा?
कहीं ऐसा तो नहीं कि वोट दोनों में बंट जाएगा, जिसकी संभावना काफी है. फिर किसके हिस्से में कितने वोट आएंगे, बड़ी बात ये होगी.
मायावती की दावेदारी
किसी जमाने में मुस्लिम वोटों पर हक सिर्फ कांग्रेस का हुआ करता था. अयोध्या आंदोलन के बाद यूपी में इस पर मुलायम सिंह काबिज हो गये. इस विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा जोर मायावती ने लगाया है.
अखिलेश यादव के कांग्रेस से गठबंधन के पीछे बड़ा फैक्टर एक ये भी रहा होगा कि जैसे भी हो मुस्लिम वोटों को मायावती की ओर जाने से बचाया जा सके.
समाजवादी पार्टी के बीजेपी से गठबंधन के बाद मुस्लिम समुदाय के सामने दो विकल्प खड़ा हो गया है. अब मुस्लिम समुदाय को बस एक ही बात पक्की करनी है - सत्ता के नजदीक कौन है?
मुस्लिम समुदाय की वोटिंग लाइन में अब तक सिर्फ एक ही बात साफ रहती है - वोट उसे देना है जो बीजेपी को सत्ता में आने से रोक सके. नतीजे जो भी हों सत्ता का हर दावेदार तो यही कहता है जीत उसीकी होगी.
अखिलेश के 300 पार के पीछे भी यही मैसेज देने की कोशिश रही होगी. पहले भी और अब भी अखिलेश कह रहे हैं कि कांग्रेस का हाथ साइकल को मिल जाने के बाद सीटों की संख्या 300 हो जाएगी....
यूपी चुनाव में मुस्लिम वोटों पर अब मायावती का वैसे ही जोर है, जैसे झगड़े से पहले मुलायम का हुआ करता रहा. समाजवादी गठबंधन के बाद कांग्रेस की भी निश्चित तौर पर कुछ उम्मीद बंध ही गई होगी. मैदान में तो असदुद्दीन ओवैसी भी हैं, लेकिन बिहार चुनाव का रिकॉर्ड बताता है कि यूपी में भी उन्हें शायद ही कुछ हासिल हो पाये.
अब सवाल ये है कि क्या मुस्लिम वोट पूरी तरह मायावती के पक्ष में जाएगा? या अखिलेश यादव और राहुल गांधी के साथ हो जाने से अब गठबंधन का रुख कर लेगा?
कहीं ऐसा तो नहीं कि वोट दोनों में बंट जाएगा, जिसकी संभावना काफी है. फिर किसके हिस्से में कितने वोट आएंगे, बड़ी बात ये होगी.
मायावती की दावेदारी
किसी जमाने में मुस्लिम वोटों पर हक सिर्फ कांग्रेस का हुआ करता था. अयोध्या आंदोलन के बाद यूपी में इस पर मुलायम सिंह काबिज हो गये. इस विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा जोर मायावती ने लगाया है.
अखिलेश यादव के कांग्रेस से गठबंधन के पीछे बड़ा फैक्टर एक ये भी रहा होगा कि जैसे भी हो मुस्लिम वोटों को मायावती की ओर जाने से बचाया जा सके.
समाजवादी पार्टी के बीजेपी से गठबंधन के बाद मुस्लिम समुदाय के सामने दो विकल्प खड़ा हो गया है. अब मुस्लिम समुदाय को बस एक ही बात पक्की करनी है - सत्ता के नजदीक कौन है?
मुस्लिम समुदाय की वोटिंग लाइन में अब तक सिर्फ एक ही बात साफ रहती है - वोट उसे देना है जो बीजेपी को सत्ता में आने से रोक सके. नतीजे जो भी हों सत्ता का हर दावेदार तो यही कहता है जीत उसीकी होगी.
अखिलेश के 300 पार के पीछे भी यही मैसेज देने की कोशिश रही होगी. पहले भी और अब भी अखिलेश कह रहे हैं कि कांग्रेस का हाथ साइकल को मिल जाने के बाद सीटों की संख्या 300 हो जाएगी. परोक्ष रूप से ही सही - मुस्लिम समुदाय को साफ मैसेज देने का ये अखिलेश का अपना तरीका है. वो मान कर चले कि सत्ता की सबसे मजबूत दावेदार समाजवादी कांग्रेस गठबंधन ही है.
मायावती सीधे सीधे सिर्फ मुस्लिमों से वोट मांग रही हैं - कभी अयोध्याकांड का जिक्र छेड़ कर तो कभी मुजफ्फरनगर का. आखिर में यही समझाती हैं कि अगर बीएसपी के अलावा किसी को वोट दिया तो बेकार जाएगा.
मुस्लिम विरोधी कौन
मुस्लिम वोटों के लिए अखिलेश यादव, राहुल गांधी के साथ मिल कर बता रहे हैं कि इस साथ को क्यों पसंद किया जाना चाहिये.
अपने करीब 22 फीसदी दलित वोटों के साथ 19.3 प्रतिशत मुस्लिम वोट जोड़ कर मायावती यूपी की कुर्सी पर बैठने की तैयारी में हैं. इसके लिए उन्होंने पूर्वांचल के अंसारी बंधुओं को सुधरने का मौका दिया है तो पश्चिम में नसीमुद्दीन से सैकड़ों भाईचारा बैठकें कराकर मुस्लिम समुदाय को अपने पक्ष में करने की हर संभव कोशिश की है.
मायावती डंके की चोट पर दावा कर रही हैं वो अपने शासन में ऐसी कानून व्यवस्था कायम करेंगी कि कोई दंगा नहीं होगा. मिसाल के तौर पर वो अपना पुराना ट्रैक रिकॉर्ड पेश कर रही हैं.
मुजफ्फरनगर के दंगे और दादरी की घटना अखिलेश सरकार के दौरान हुए. मुस्लिम समुदाय को भी लगता है कि उन्हें मुआवजे की रकम तो मिली लेकिन इंसाफ अब भी कोसों दूर है.
लेकिन कुछ कमजोरियां ऐसी हैं कि मायावती उसे वक्त की नजाकत और जरूरत से ज्यादा किसी भी रूप में समझा नहीं सकतीं. मायावती दो दो बार बीजेपी से सत्ता के लिए गठजोड़ कर चुकी हैं. इस बार भी ऐसी चर्चाएं हैं कि बीजेपी के सीएम कैंडिडेट घोषित न करने के पीछे मायावती के साथ पर्दे के पीछे की डील हो सकती है. अगर सत्ता की रेस में बीजेपी पिछड जाती है तो समाजवादी गठबंधन को रोकने के लिए वो मायावती का सपोर्ट कर सकती है. अब बीजेपी की सरकार हो या वो सत्ता में हिस्सेदार - बात तो, कुछ हद तक ही सही, वही हुई.
खुद के बारे में मायावती एक और धारणा बनने से नहीं रोक पायीं कि वो मौके की राजनीति करती हैं. 2007 में वो सोशल इंजीनियरिंग के बूते सत्ता में पहुंचीं, लेकिन 2012 और फिर 2014 में गच्चा खा गईं तो ब्राह्मणों को छोड़ मुस्लिम समुदाय की ओर दौड़ पड़ीं. अब वो सिर्फ दलित और मुस्लिम की बात करती हैं. सतीश मिश्रा के बारे में कहती हैं कि वो उन्हें हमेशा इसलिए साथ रखती हैं कि अगर कोई कानूनी अड़चन आये तो वो उन्हें बचा लें. अब ये अंदेशा तो बनता ही कि क्या पता जिस तरह ब्राह्मणों से मतलब निकल जाने के बाद पहचानना बंद कर दिया तो मुस्लिम समुदाय के साथ ऐसा नहीं करेंगी क्या गारंटी है. जिस तरह बीजेपी हिंदू वोटों के दम पर मुस्लिम वोट की परवाह नहीं करती मायावती भी दलितों के अलावा फिर से हर किसी से दूरी बना लें.
अखिलेश यादव को कोई और नहीं मुलायम सिंह ही मुस्लिम विरोधी बता चुके हैं. हालांकि, इस बात को उन्होंने चुनौती दी थी कि सबूत दिखाये जायें. अखिलेश यादव के वोट मांगने का अपना तरीका है. वो मुलायम सिंह यादव की तरह कभी भी कारसेवकों पर गोली चलाने की बात नहीं करते. उनके घोषणा पत्र में भी अल्पसंख्यकों के लिए वैसे वादे नहीं हैं जैसे मुलायम सिंह किया करते रहे. अखिलेश विकास की बात कर रहे हैं. एक तरीके से आधारभूत सुविधाएं - बिजली, पानी और सड़क के नाम पर वोट मांग रहे हैं. इसकी एक वजह ये भी है कि अखिलेश सिर्फ मुस्लिमों या यादवों की बातें कर उन वोटों को दूर नहीं करना चाहते जो बीजेपी की ओर भी आकर्षित हैं.
एक ट्रेंड देखा गया है कि ज्यादातर इलाकों में मुस्लिम समुदाय मतदान के ऐन पहले माहौल का ठीक ठीक अंदाजा लगा कर तय करता है कि वोट किसे दिया जाये. उससे पहले इस बात का फैसला कम ही होता है.
कुछ जानकारों का आकलन है कि मुस्लिम समुदाय इस बार उम्मीदवार देख कर वोट कर सकता है. इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि वो बीएसपी के बाकी उम्मीदवारों को वोट दे न दे मुस्लिम उम्मीदवारों को दे दे. इसी तरह जहां उसे लगे कि समाजवादी पार्टी या कांग्रेस या फिर कहीं कहीं आरएलडी का उम्मीदवार ठीक है तो वो उसे ही दे दे. बीजेपी ने किसी मुस्लिम को यूपी में उम्मीदवार नहीं बनाया है. तर्क दिया गया है कि पूरे सूबे में कोई जिताऊ उम्मीदवार नहीं मिला, इसलिए.
इस दौरान बीजेपी भी हाथ पर हाथ धरे तो बैठी नहीं है. अब बीजेपी की स्ट्रैटेजी यही होगी कि ऐसा कोई उपाय हो कि मुस्लिम वोट एक साथ न तो मायावती को मिल पाये न अखिलेश-राहुल गठबंधन को. फिर बीजेपी की कोशिश यही होगी कि किसी भी तरीके से मुस्लिम वोट बंट जाये. अगर पूरा न बंट सके तो कम से कम जो सत्ता के ज्यादा करीब हो उसे दूसरे के मुकाबले कम वोट मिलें. असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओं पर आरोप लगते रहे हैं कि उनकी सक्रियता से बीजेपी को ही फायदा मिलता है.
देखा जाय तो मुस्लिम समुदाय भले ही मुस्लिम विधायक चुने लेकिन वो मुस्लिम नेता उसकी पसंद नहीं बन पा रहे. असदुद्दीन ओवैसी और डा. अय्यूब अंसारी यूपी चुनाव में भी खूब सक्रिय हैं लेकिन वे मुस्लिम च्वाइस के उस पैरामीटर में मिसफिट हो जाते जहां तय है कि वोट उसी को देना है जो सरकार बना रहा हो. एक बात और कि ओवैसी जैसे नेता खुद पर बीजेपी के मददगार होने का लगा ठप्पा हटा भी नहीं पाते.
सारी बातों के बावजूद लाख टके का सवाल जस का तस है है - इतनी मगजमारी के बावजूद मुस्लिम समुदाय आखिर में महज एक वोट बैंक बन कर न रह जाये?
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