आखिरकार महीने भर चली खींचतान का पटाक्षेप हो ही गया, और बिहार में महागठबंधन की भी हवा निकल गयी. नीतीश कुमार ने फिर से एनडीए के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लें ली है. हालांकि बिहार में महागठबंधन के गठन के साथ ही लोग इस गठबंधन के लम्बे समय तक टिक पाने को लेकर संदेह जताने लगे थे, और बिहार में महागठबंधन की सरकार बनने के बाद से ही इस बात के भी संकेत मिलने लगे थे कि यह बेमेल जोड़ किसी भी वक़्त टूट की ओर बढ़ सकता है.
महागठबंधन से मुक्त हुए नीतीश कुमार
और अब जबकि नीतीश कुमार ने महागठबंधन को अलविदा कहकर फिर से भाजपा का दामन थाम लिया है, तब उनके इस फैसले से सबसे ज्यादा नुकसान लालू की राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस को उठाना पड़ सकता है. भाजपा के लिए यह मनोकामना पूर्ण होने जैसा है, क्योंकि देश का एक अहम राज्य वापस से उनकी झोली में आ गिरा है. हालांकि इस पूरे घटनाक्रम में नीतीश कुमार एक नायक के तौर पर उभरे हैं, जिन्होंने उसूलों के लिए अपने पद से इस्तीफा दे दिया है. नीतीश कुमार ने इस इस्तीफे के बाद उन लोगों को भी निरुत्तर कर दिया है जो नीतीश का लालू के साथ जाने के फैसले की आलोचना कर रहे थे.
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि नीतीश कुमार की राजनीतिक समझ और माहौल को भांपने की कला अद्वितीय है. नीतीश कुमार ने अब तक के अपने राजनीतिक जीवन में सही समय पर सही फैसले किए और साथ ही साथ अपनी गलतियों से बहुत जल्दी सीख भी ली है. साल 2013 में नीतीश कुमार ने एनडीए से अलग होने का फैसला कर एक रिस्क लेने की कोशिश की थी, हालांकि उनका यह दांव उल्टा पड़ गया और लोकसभा चुनावों में जदयू को मिलने वाली सीट घटकर 2 ही रह गयी. हालांकि नीतीश ने तुरंत ही इस गलती से सबक लेते हुए विधानसभा चुनावों के लिए लालू और कांग्रेस के साथ महागठबंधन बना लिया.
महागठबंधन कर आलोचनाओं को शिकार हुए थे नीतीश कुमार
उस समय नीतीश के इस फैसले की काफी आलोचना भी हुई, मगर उन्हें पता था कि वो क्या कर रहे हैं. नीतीश अगर उस समय भारतीय जनता पार्टी के साथ जाते तो उनकी स्थिति उस योद्धा की तरह होती जो युद्ध में हार के बाद आत्मसमर्पण करने जा रहा हो. मगर नीतीश लालू के साथ दो माइनस मिलकर एक प्लस बनाने की दिशा में आगे बढ़ गए. इस बार नीतीश का यह फैसला बिलकुल सही रहा, और बिहार में महागठबंधन ने भाजपा को पटखनी दे दी. इस जीत के साथ ही नीतीश न केवल एक सर्वमान्य नेता बन कर उभरे बल्कि इस जीत ने नीतीश के लिए भाजपा के आकर्षण को भी फिर से जीवित कर दिया.
हालांकि नीतीश को भी इस बात का इल्म था कि लालू के साथ सरकार चलाना आसान नहीं रहने वाला और इसलिए नीतीश ने भाजपा के लिए भी अपना द्वार खुले ही रखे. नीतीश ने हर उस मुद्दे पर केंद्र सरकार के फैसलों के साथ खड़े नजर आये जिसपर बाकी की विपक्षी पार्टियां सरकार को घेरने में लगी थीं, चाहे वो नोटबंदी का फैसला हो या फिर सर्जिकल स्ट्राइक हो. नीतीश ने इस कदम से लालू पर भी दबाव बनाए रखा. नीतीश को ये भी भली भांति मालूम था कि लालू के साथ उनका लम्बा राजनीतिक भविष्य नहीं हो सकता, और इसी कारण नीतीश लालू से अलग होने के लिए उचित समय की तलाश में थे. जहां वो बिना राजनीतिक नुक्सान उठाये लालू से किनारा करने में भी सफल हो जाएं.
और अब सही समय पर नीतीश ने लालू के साथ अपने गठबंधन को भी तिलांजलि दे दी है. नीतीश अपने इस फैसले से जहां अपनी छवि में चारचांद लगाने में कामयाब होंगे तो वहीं अब भारतीय जनता पार्टी के साथ जाने में उनके कद को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा. नीतीश का यह फैसला उनकी राजनीतिक भविष्य के लिए भी बेहतर होगा और साथ ही नीतीश इस फैसले से अपने ऊपर लगे उन आरोपों से भी उबर जायेंगे जहां उनपर लालू यादव को राजनीतिक जीवनदान देने के आरोप लगते हैं.
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