देश में 72 पार्टियां सीधे-सीधे तौर पर धर्म, जाति, समुदाय या भाषा की सियासत करते हैं. या कह लें इनका जन्म ही इन सबके कारण हुआ है.
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऊपरी तौर पर भले क्रांतिकारी दिखाई देता है कि चुनाव में जाति, धर्म, समुदाय या भाषा के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते, लेकिन इसकी व्यवहारिकता को लेकर मेरे मन में कई तरह के संदेह हैं. सबसे पहले तो कम से कम छह पार्टियां ऐसी हैं, जिनके नाम में ही धर्म का इस्तेमाल किया गया है. ये छह पार्टियां हैं-
1. इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग
2. अखिल भारतीय मुस्लिम लीग (सेकुलर)
3. ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन
4. अखिल भारत हिन्दू महासभा
5. भारतीय मोमिन फ्रंट
6. इंडियन क्रिश्चियन सेकुलर पार्टी
सवाल है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में चुनाव आयोग तत्काल प्रभाव से इन पार्टियों की मान्यता रद्द करके इन्हें चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराएगा? और अगर ऐसा होगा, तो आजकल राजनीति, समाज और मीडिया में मुसलमानों के सबसे बड़े ठेकेदार के तौर पर मान्यता प्राप्त ओवैसी बंधुओं की दुकानदारी का क्या होगा? उन्हें चुनाव लड़ने के लिए या तो किसी सेकुलर नाम वाली पार्टी का गठन करना होगा या फिर किसी सेकुलर पार्टी की शरण लेनी होगी.
ये भी पढ़ें- चुनाव के नाम पर तो हिंदू शब्द को धर्म बना दो
देश में 72 पार्टियां सीधे-सीधे तौर पर धर्म, जाति, समुदाय या भाषा की सियासत करते हैं. या कह लें इनका जन्म ही इन सबके कारण हुआ है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऊपरी तौर पर भले क्रांतिकारी दिखाई देता है कि चुनाव में जाति, धर्म, समुदाय या भाषा के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते, लेकिन इसकी व्यवहारिकता को लेकर मेरे मन में कई तरह के संदेह हैं. सबसे पहले तो कम से कम छह पार्टियां ऐसी हैं, जिनके नाम में ही धर्म का इस्तेमाल किया गया है. ये छह पार्टियां हैं- 1. इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग 2. अखिल भारतीय मुस्लिम लीग (सेकुलर) 3. ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन 4. अखिल भारत हिन्दू महासभा 5. भारतीय मोमिन फ्रंट 6. इंडियन क्रिश्चियन सेकुलर पार्टी सवाल है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में चुनाव आयोग तत्काल प्रभाव से इन पार्टियों की मान्यता रद्द करके इन्हें चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराएगा? और अगर ऐसा होगा, तो आजकल राजनीति, समाज और मीडिया में मुसलमानों के सबसे बड़े ठेकेदार के तौर पर मान्यता प्राप्त ओवैसी बंधुओं की दुकानदारी का क्या होगा? उन्हें चुनाव लड़ने के लिए या तो किसी सेकुलर नाम वाली पार्टी का गठन करना होगा या फिर किसी सेकुलर पार्टी की शरण लेनी होगी. ये भी पढ़ें- चुनाव के नाम पर तो हिंदू शब्द को धर्म बना दो
इनके अलावा, कई पार्टियां ऐसी हैं, जिनके नाम में सीधे तौर पर हिन्दू, मुस्लिम या क्रिश्चियन जैसे शब्दों का इस्तेमाल भले न हुआ हो, पर उनके नाम से यह संदेह जरूर पैदा होता है कि सांप्रदायिक राजनीति ही उनका एजेंडा है. चुनाव आयोग को चाहिए कि वह तत्काल इन पार्टियों को नोटिस भेजकर स्पष्टीकरण मांगे. साथ ही, इन पार्टियों के संविधान और घोषणापत्रों की भी जांच करे. 1. मजलिस बचाओ तहरीक 2. मजलिस मरकज ए सियासी पार्टी 3. माइनॉरिटीज डेमोक्रेटिक पार्टी 4. नारायणी सेना 5. जमात-ए-सीरातुल मुस्तकीम 6. धर्मराज्य पक्ष 7. शिरोमणि अकाली दल 8. शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) (सिमरनजीत सिंह मान) 9. शिवसेना 10. अखिल भारतीय शिवसेना राष्ट्रवादी 11. ऑल इंडिया माइनॉरिटीज़ फ्रंट 12. कौमी एकता दल 13. राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल 14. भारतीय माइनॉरिटीज सुरक्षा महासंघ जहां तक जातियों और भाषाओं के नाम पर राजनीति न करने की हिदायत है, तो एक तरफ देश में संविधान के तहत ही जातिगत आरक्षण की व्यवस्था है. दूसरी तरफ, भाषाओं के आधार पर राज्यों का बंटवारा हुआ है. ऐसे में, जातियों और भाषाओं के आधार पर राजनीति को तो एक तरह से संविधान के तहत ही लाइसेंस प्राप्त है. फिर भी अगर सुप्रीम कोर्ट जातियों और भाषाओं के नाम पर राजनीति रोकना चाहता है, तो बहुत अच्छी बात है. ये भी पढ़ें- कुछ 'सही' बताने वालों ने जीना हराम कर दिया है ! फिर क्या हम उम्मीद करें कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में सबसे पहले तो जिन राजनीतिक दलों के नामों से जातियों और भाषाओं के आधार पर राजनीति करने की बू आती है, चुनाव आयोग तत्काल उनकी मान्यता खत्म कर उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगाएगा? इस संदर्भ में इन पार्टियों के नामों पर ग़ौर करें- 1. द्रविड़ मुनेत्र कडगम (डीएमके) 2. ऑल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कडगम (एआईएडीएमके) 3. देसिया मुरपोक्कू द्रविड़ कडगम (डीएमडीके) 4. अनाइथिंडिया द्रविडार समुदाय मुनेत्र कडगम (एडीएसएमके) 5. एझुची तमिलरगल मुनेत्र कडगम (ईटीएमके) 6. मरुमलारची द्रविड़ मुनेत्र कडगम (एमडीएमके) 7. तेलुगु देसम 8. समैक्य तेलुगु राज्यम 9. आमरा बंगाली 10. ब्रज विकास पार्टी 11. छत्तीसगढ़िया पार्टी 12. कन्नड़ चलावली वटल पक्ष 13. प्रगतिशील मगही समाज 14. पुथिया तमिलगम 15. आदिवासी सेना पार्टी 16. ऑल इंडिया रविदास समता पार्टी 17. अति पिछड़ा पार्टी 18. आरक्षण विरोधी पार्टी 19. दलित बहुजन पार्टी 20. दलित विकास पार्टी (भारत) 21. इंडियन सवर्ण समाज पार्टी 22. मोस्ट बैकवार्ड क्लासेज ऑफ इंडिया 23. निर्जातिता समाज विप्लवी पार्टी 24. नेशनल यूनियनिस्ट ज़मींदार पार्टी 25. राष्ट्रीय जातिगत आरक्षण विरोधी पार्टी 26. राष्ट्रीय सवर्ण दल इनके अलावा, कई पार्टियों के नामों में बहुजन, वंचित, शोषित इत्यादि शब्दों का इस्तेमाल हुआ है, राजनीतिक संदर्भों में जिनका तात्पर्य प्रायः जातियों से ही होता है. इन पार्टियों को भी चुनाव आयोग तत्काल नोटिस भेजे और इनके संविधान और घोषणापत्रों की जांच करे- 1. बहुजन समाज पार्टी 2. बहुजन संघर्ष दल 3. राष्ट्रीय बहुजन कांग्रेस पार्टी 4. राष्ट्रीय बहुजन हिताय पार्टी 5. रिपब्लिकन बहुजन सेना 6. भारतीय बहुजन कांग्रेस 7. भारीपा बहुजन महासंघ 8. भारतीय बहुजन पार्टी 9. बहुजन क्रांति पार्टी (मार्क्सवादी अंबेडकरवादी) 10. बहुजन मुक्ति पार्टी 11. भारतीय राष्ट्रीय बहुजन समाज विकास पार्टी 12. बहुजन सुरक्षा दल 13. बहुजन समाज पार्टी (अंबेडकर) 14. बहुजन संघर्ष पार्टी (कांशीराम) 15. बहुजन विकास अगाड़ी 16. इंडियन बहुजन समाजवादी पार्टी 17. इंडियन बहुजन संदेश पार्टी (कांशीराम) 18. वंचित जमात पार्टी 19. वंचित समाज इंसाफ पार्टी 20. राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी 21. शोषित संदेश पार्टी 22. शोषित समाज दल 23. भारतीय वंचित समाज पार्टी 24. रिपब्लिकन बैकवार्ड कांग्रेस कई राजनीतिक पार्टियां ऐसी भी हैं, जो बाबा साहब भीमराव अंबेडकर, एकलव्य या दूसरे ऐसे महापुरुषों के नाम पर बनी हैं, जिनका मकसद महज कुछ जातियों की राजनीति करना भर है. इनकी सूची भी काफी लंबी है. चुनाव आयोग को चाहिए कि वह इन पार्टियों से भी जवाब-तलब करे और संतोषजनक जवाब नहीं मिलने पर उनकी मान्यता रद्द करे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद चुनाव आयोग के सामने सबसे ज्यादा चुनौती उन बड़े राजनीतिक दलों की तरफ से आएगी, जिनका नामकरण भले जातियों, संप्रदायों अथवा भाषाओं के नाम पर न हुआ हो, लेकिन उनकी पूरी की पूरी राजनीति इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है. ऐसे में, सुप्रीम कोर्ट के फैसले की गरिमा तभी बच सकती है, जब चुनाव आयोग इन पार्टियों के एक-एक नेता के एक-एक भाषण, एक-एक पोस्टर और एक-एक प्रचार सामग्री पर नजर रखे, जो कि बेहद मुश्किल काम है. ये भी पढ़ें- नास्तिकों की बढ़ती आबादी से तो नहीं भड़क गए धर्म वाले ? कौन नहीं जानता कि सभी स्थापित राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां जातियों और संप्रदायों के समीकरणों को ध्यान में रखकर ही टिकटें तय करती हैं. प्रायः उम्मीदवारों के नामों से ही उनकी जाति और संप्रदाय तय हो जाते हैं, जो अपने आप में जातियों और संप्रदायों के नाम पर वोट मांगने के बराबर हैं. मसलन, अगर किसी उम्मीदवार का नाम यादव, मिश्र या मोहम्मद हो, तो सबको पता है कि सीधे तौर पर वे भले अपनी जातियों के नाम न लें, लेकिन वोटरों में यह संदेश रहता है कि उनकी जाति या धर्म क्या है? इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के फैसले की मार से बचने के लिए चोर दरवाज़े भी ढूंढ़ लिये जाएंगे. जैसे राजनीतिक दल, नेता या उम्मीदवार स्वयं किसी जाति, धर्म या भाषा के नाम पर वोट न मांगें, लेकिन उन जातियों, धर्मों और भाषाओं से जुड़े संगठनों अथवा नेताओं से अपने पक्ष में बयान, फरमान या फतवे जारी करा सकते हैं. ऐसा पहले भी होता रहा है और आगे भी होता रहेगा. इसी तरह, जैसे 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने के लिए कुछ राजनीतिक दलों ने लेखकों और फिल्मकारों का इस्तेमाल किया और पुरस्कार लौटाने का अभियान चलवाया, अगर वैसे परोक्ष तरीके से राजनीतिक दल सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति करना चाहें, तो कोई उन्हें कैसे रोक सकता है? इसलिए मेरा ख्याल है कि जाति, धर्म, समुदाय, भाषा की राजनीति तभी रुकेगी, जब राजनीतिक दलों और नेताओं की नीयत साफ हो. साथ ही, समाज में भी बड़े पैमाने पर इन संकीर्णताओं से बाहर निकलने की जागरूकता आए. वरना हालात न सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बदलेंगे, न चुनाव आयोग के डंडे से, न किसी कानून से, न हवा-हवाई बातों से. किसी भी सुधार को लागू करने के लिए ज़मीनी स्थितियों का अनुकूल होना जरूरी है. इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये भी पढ़ेंRead more! संबंधित ख़बरें |