राजनीति आस्था पर हावी हो जाए या आस्था राजनीति पर, खतरनाक दोनों हैं. सऊदी अरब और ईरान के बीच बढ़ रही कटुता इसी का उदाहरण है. शिया और सुन्नी का विवाद क्या कम था, कि अब इरान ने इशारा दे दिया है कि उसके नागरिक इस साल हज यात्रा पर नहीं जाएंगे. ईरान का आरोप है कि सऊदी अरब अल्लाह तक जाने की 'राह' में बाधा पैदा कर रहा है और इस कारण ईरानी नागरिक इस साल हज की यात्रा पर जाने में सक्षम नहीं होंगे.
पिछले साल हज में हुई घटना में कई लोग मारे गए थे. उसमें कई लोग ईरान के भी थे. इसी कारण से ईरान इस बार अपने नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी और बेहतर इंतजाम की मांग कर रहा था. सऊदी ने कई मांगों को मानने से इंकार कर दिया. लेकिन बात यहां केवल सुरक्षा और इंतजामों की नहीं हैं.
दरअसल दोनों देशों के बीच के तनाव से पूरी दुनिया वाकिफ है. सऊदी अरब और ईरान के बीच सीरिया और यमन के गृहयुद्ध समेत कई मुद्दों पर रिश्ते तनावपूर्ण रहे हैं. इसी साल जनवरी में जब शिया धर्मगुरु निम्र अल निम्र को सऊदी अरब ने फांसी दी तो भी दोनों देशों के बीच का तनाव खुल कर सामने आया था. तब प्रदर्शकारियों ने ईरान में मौजूद सऊदी अरब के दूतावास में आग लगा दी थी. इसके बाद से दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्ते खत्म हैं.
हज पर भी राजनीति... |
वैसे, दोनों के बीच तनाव का किस्सा पुराना है. इससे पहले 1987 में भी ईरानी श्रद्धालुओं और सऊदी सुरक्षाकर्मियों के बीच झड़प के कारण दोनों में ऐसी ही तनातनी आई थी. उस झड़प में तब करीब 400 लोगों की मौत हो गई थी. तब ईरान ने तीन साल के लिए हज की यात्रा में हिस्सा नहीं लिया था. ये भी गौर करने वाली बात है कि ईरान शिया बहुल है जबकि सऊदी अरब सुन्नी. दोनों के...
राजनीति आस्था पर हावी हो जाए या आस्था राजनीति पर, खतरनाक दोनों हैं. सऊदी अरब और ईरान के बीच बढ़ रही कटुता इसी का उदाहरण है. शिया और सुन्नी का विवाद क्या कम था, कि अब इरान ने इशारा दे दिया है कि उसके नागरिक इस साल हज यात्रा पर नहीं जाएंगे. ईरान का आरोप है कि सऊदी अरब अल्लाह तक जाने की 'राह' में बाधा पैदा कर रहा है और इस कारण ईरानी नागरिक इस साल हज की यात्रा पर जाने में सक्षम नहीं होंगे.
पिछले साल हज में हुई घटना में कई लोग मारे गए थे. उसमें कई लोग ईरान के भी थे. इसी कारण से ईरान इस बार अपने नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी और बेहतर इंतजाम की मांग कर रहा था. सऊदी ने कई मांगों को मानने से इंकार कर दिया. लेकिन बात यहां केवल सुरक्षा और इंतजामों की नहीं हैं.
दरअसल दोनों देशों के बीच के तनाव से पूरी दुनिया वाकिफ है. सऊदी अरब और ईरान के बीच सीरिया और यमन के गृहयुद्ध समेत कई मुद्दों पर रिश्ते तनावपूर्ण रहे हैं. इसी साल जनवरी में जब शिया धर्मगुरु निम्र अल निम्र को सऊदी अरब ने फांसी दी तो भी दोनों देशों के बीच का तनाव खुल कर सामने आया था. तब प्रदर्शकारियों ने ईरान में मौजूद सऊदी अरब के दूतावास में आग लगा दी थी. इसके बाद से दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्ते खत्म हैं.
हज पर भी राजनीति... |
वैसे, दोनों के बीच तनाव का किस्सा पुराना है. इससे पहले 1987 में भी ईरानी श्रद्धालुओं और सऊदी सुरक्षाकर्मियों के बीच झड़प के कारण दोनों में ऐसी ही तनातनी आई थी. उस झड़प में तब करीब 400 लोगों की मौत हो गई थी. तब ईरान ने तीन साल के लिए हज की यात्रा में हिस्सा नहीं लिया था. ये भी गौर करने वाली बात है कि ईरान शिया बहुल है जबकि सऊदी अरब सुन्नी. दोनों के बीच तनाव की एक बड़ी वजह ये भी है. दुनिया भर में शिया-सुन्नी के बीच तनाव का ही कारण है कि ISIS से लेकर तमाम कई दंगे-फसादों को जगह मिली. लेकिन मक्का एक जगह है जहां ये दो विचारधाराएं आकर थोड़ी देर के लिए ही सही मिलती हैं, लेकिन जब इस पर भी रोक की बात होने लगे तो मुद्दा गंभीर बन जाता है.
आईए आपको बताते हैं कि क्या है शिया सुन्नी विवाद और यह कैसे शुरू हुआ...
शिया-सुन्नी विवाद
शिया सुन्नी का पूरा विवाद पैगंबर मोहम्मद के 632 (AD)में निधन के बाद शुरू होता है. मोहम्मद की मृत्यु के बाद इस बात पर बहस शुरू हो गई अब मुसलमानों का नेतृत्व कौन करेगा. कुछ लोगों का मानना था कि नए नेता या खलीफा का चुनाव सबकी रजामंदी से होना चाहिए जबकि कुछ का मत था कि पैगंबर के वंश से ताल्लुक रखने वाले किसी व्यक्ति को ही यह पद दिया जाना चाहिए.
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इन विवादों के बीच नेतृत्व अबू बकर को सौंपा गया. लेकिन तब कई लोगों का मानना था कि ये जिम्मेदारी अली को सौंपी जानी चाहिए थी. वे पैंगबर मोहम्मद के दामाद थे. बस यही से विवाद और खून-खराबे का दौर शुरू हुआ जो आज कर जारी है. अली को मानने वाले शिया कहलाए जबकि अब बकर को मानने वाले सुन्नी.
बहरहाल, तब नेतृत्व की वो लड़ाई वहीं खत्म नहीं हुई थी. आगे चलकर दोनों वर्गों में जबर्दस्त संघर्ष हुआ. कहा जाता है कि अली की कुफा मस्जिद में जहर से सने एक तलवार से हत्या कर दी गई. यह जगह आज इराक में है. इसके बाद अली के बेटे हुसैन और हसन ने भी खलीफा होने के लिए संघर्ष किया था. इसी दौरान सन् 680 (AD) में कर्बला (इराक) में जंग हुई थी जिसमें हसन और हुसैन की हत्या कर दी गई थी. माना जाता है कि हुसैन की मौत लड़ाई के मैदान में जबकि हसन को जहर दे दिया गया था.
इस घटना के बाद से ही शियाओं में शहादत और मातम मनाने का बड़ा महत्व है. शिया शब्द शियात अली से बना है, मतलब अली के अनुयाई.
दोनों विचारधाराओं में अंतर
शिया और सुन्नी, दोनों ही इस्लाम के कई पहलुओं पर एकमत हैं, लेकिन कई मामलों में बहुत ज्यादा असहमति भी है. शियाओं की आस्था अली और उनके बाद बने इमामों में है. माना जाता है कि अली के बाद 12 इमाम हुए. इनमें से आखिरी एक बालक था. माना जाता है ये बालक नौवीं शताब्दी में अपनी पिता की हत्या के बाद इराक से गायब हो गया था. शिया लोगों की मान्यता है कि उनका यह बारहवा इमाम मसीहा के रूप में एक दिन फिर वापस आयेगा.
दूसरी ओर सुन्नी, खुद को इस्लाम की सबसे धर्मनिष्ठ और पारंपरिक शाखा मानते हैं. सुन्नी मानते हैं कि अंतिम पैगंबर मोहम्मद साहब थे. वे उन सभी पैगंबरों को मानते हैं जिनका जिक्र कुरान में किया गया है. मुस्लिम आबादी में बहुसंख्य सुन्नी हैं और अनुमानित आंकड़ों के अनुसार, इनकी संख्या 85 से 90 प्रतिशत के बीच है.
कहां जाकर खत्म होंगे विवाद?
इस सवाल का जवाब मुश्किल है. लेकिन दोनों विचारधाराओं के शीर्ष नेता कम से कम एक माहौल तो पैदा करने की कोशिश तो कर ही सकते हैं, जहां बातचीत की गुंजाइश हों. दूरिया ऐसी भी न हों कि ISIS जैसा आतंक पैदा हो जाए और हज के दरवाजे भी बंद करने की नौबत आ जाए. और कुछ न सही तो अल्लाह का ख्याल तो दोनों ओर के नेताओं को तो करना ही चाहिए. उस पर तो सब एकमत है. इतनी शर्म तो हो कि ये महसूस कर सकें कि जब खुदा आसमां से जमीं पर देखता होगा तो क्या सोचता होगा...
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