26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया गया. वैसे, देश लंबे समय से इस बात से ही खुश था कि वह 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में अपने गणतंत्र या संविधान का जन्मदिन मनाता है. दरअसल सवा सौ करोड़ आजाद और आगे बढ़ते लोगों की सामूहिक चेतना को हम गणतंत्र और सफेद कागज पर काले अक्षरों में उकेरे गए अक्स को संविधान कहते हैं. इसलिए एक ही चीज के दो जन्मदिन मनाने की बात पहले नहीं सोची गई. खैर अब सोची गई है, तो मनाए जाएं. अच्छी चीज पर जितनी चाहे उतनी बार खुश हों, इसमें हर्ज ही क्या है.
प्रधानमंत्री ने इस मौके पर अवसरोचित बातें कहीं. उसके बाद सरकार में खुद को नंबर दो मानने वाले गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने सरकार के एजेंडे को आगे बढ़ाया. उन्होंने सेक्युलर यानी धर्मनिरपेक्ष या पंथनिरपेक्ष या संप्रदाय निरपेक्ष (सुविधा के हिसाब से और पर्यायवाची भी गढ़े जा सकते हैं.) और सोशलिज्म यानी समाजवाद शब्दों की प्रासंगिकता पर सवाल खड़ा कर दिया. वे बखूबी जानते थे कि इस एक वाक्य के साथ उन्होंने अपने एजेंडे के मुताबिक बहस को जन्म दे दिया है.
इसलिए अगले ही वाक्य में, एक माहिर नेता की तरह, अपने बचाव का रास्ता यह कहकर निकाल लिया कि ये दोनों चीजें तो भारतीय समाज में वैसे ही घुली हैं, ऐसे में इन्हें अलग से कहने की क्या जरूरत है. अपनी ढाल और मजबूत करने के लिए उन्होंने संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के मुखिया डॉ. भीमराव अंबेडकर का नाम भी ले लिया. राजनाथ ने कहा कि ये शब्द जरूरी होते तो संविधान बनाने वाले पहले ही इन्हें डाल देते. खैर, संविधान बनाने वाले क्या सोच रहे थे, इसकी चर्चा आगे करेंगे. इससे पहले जरा यह चर्चा कर लें कि भारतीय जनता पार्टी बनाने वाले पार्टी की स्थापना के वक्त सार्वजनिक तौर पर क्या सोच रहे थे?
भारत के संविधान को लेकर राजनाथ सिंह के पास कम जानकारी हो सकती है, क्योंकि वीर सावरकर और गुरु गोलवलकर जैसे उनके वैचारिख पुरखों ने संविधान बनाने में कोई भूमिका अदा नहीं की थी. यह काम देश की आजादी का महान संघर्ष छेड़ने और जीतने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आंदोलन...
26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया गया. वैसे, देश लंबे समय से इस बात से ही खुश था कि वह 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में अपने गणतंत्र या संविधान का जन्मदिन मनाता है. दरअसल सवा सौ करोड़ आजाद और आगे बढ़ते लोगों की सामूहिक चेतना को हम गणतंत्र और सफेद कागज पर काले अक्षरों में उकेरे गए अक्स को संविधान कहते हैं. इसलिए एक ही चीज के दो जन्मदिन मनाने की बात पहले नहीं सोची गई. खैर अब सोची गई है, तो मनाए जाएं. अच्छी चीज पर जितनी चाहे उतनी बार खुश हों, इसमें हर्ज ही क्या है.
प्रधानमंत्री ने इस मौके पर अवसरोचित बातें कहीं. उसके बाद सरकार में खुद को नंबर दो मानने वाले गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने सरकार के एजेंडे को आगे बढ़ाया. उन्होंने सेक्युलर यानी धर्मनिरपेक्ष या पंथनिरपेक्ष या संप्रदाय निरपेक्ष (सुविधा के हिसाब से और पर्यायवाची भी गढ़े जा सकते हैं.) और सोशलिज्म यानी समाजवाद शब्दों की प्रासंगिकता पर सवाल खड़ा कर दिया. वे बखूबी जानते थे कि इस एक वाक्य के साथ उन्होंने अपने एजेंडे के मुताबिक बहस को जन्म दे दिया है.
इसलिए अगले ही वाक्य में, एक माहिर नेता की तरह, अपने बचाव का रास्ता यह कहकर निकाल लिया कि ये दोनों चीजें तो भारतीय समाज में वैसे ही घुली हैं, ऐसे में इन्हें अलग से कहने की क्या जरूरत है. अपनी ढाल और मजबूत करने के लिए उन्होंने संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के मुखिया डॉ. भीमराव अंबेडकर का नाम भी ले लिया. राजनाथ ने कहा कि ये शब्द जरूरी होते तो संविधान बनाने वाले पहले ही इन्हें डाल देते. खैर, संविधान बनाने वाले क्या सोच रहे थे, इसकी चर्चा आगे करेंगे. इससे पहले जरा यह चर्चा कर लें कि भारतीय जनता पार्टी बनाने वाले पार्टी की स्थापना के वक्त सार्वजनिक तौर पर क्या सोच रहे थे?
भारत के संविधान को लेकर राजनाथ सिंह के पास कम जानकारी हो सकती है, क्योंकि वीर सावरकर और गुरु गोलवलकर जैसे उनके वैचारिख पुरखों ने संविधान बनाने में कोई भूमिका अदा नहीं की थी. यह काम देश की आजादी का महान संघर्ष छेड़ने और जीतने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आंदोलन के नेताओं और कुछ अन्य बुद्धिजीवियों और नेताओं ने किया था. लेकिन 1980 में भारतीय जनता पार्टी के स्थापना वाले अधिवेशन में भाजपा के पहले अध्यक्ष के नाते अटल बिहारी बाजपेयी ने जो भाषण दिया था, उसमें क्या कहा था? यह वही मशहूर भाषण है जिसे भाजपा वाले 'अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा' के लिए याद करते हैं. तब की बंबई में मंच पर बिछे टाट पर बैठे लालकृष्ण आडवाणी और अन्य नेताओं की मौजूदगी में वाजपेयी ने कहा था कि 'गांधीवादी समाजवाद' पार्टी की मुख्य नीति होगी. पार्टी इस पर कितनी चली यह तो राजनथ ही बेहतर जानते होंगे, लेकिन पार्टी ने लिखत-पढ़त में आधिकारिक तौर पर समाजवाद शब्द का इस्तेमाल किया था. और वह भी यह शब्द संविधान में जोड़े जाने के करीब दो दशक बाद. राजनाथ को संसद में बैठे आडवाणी से पूछना चाहिए कि गांधीवादी समाजवाद को भाजपा का ध्येय वाक्य क्यों बनाया गया था?
अब बात करते हैं संविधान में इन शब्दों के प्रयोग की. तो समाजवाद क्या, लोकतांत्रिक शब्द तक को संविधान के मूल प्रस्ताव में शामिल नहीं किया गया था और भारत के संविधान की आत्मा यानी संविधान का मूल प्रस्ताव पेश करते समय ही पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसकी लंबी व्याख्या की थी. 13 दिसंबर, 1946, दिन शुक्रवार को पंडित नेहरू ने आठ बिंदु का संविधान प्रस्ताव या संविधान घोषणापत्र संविधान सभा में रखा. ये आठ ऐसे बिंदु थे जिनके इर्दगिर्द बाद में संविधान बुना जाता रहा. और इस प्रस्ताव को संविधान सभा ने पूर्ण सहमति से और मेजें थपथपाकर नहीं, बल्कि अपने-अपने स्थान पर खड़े होकर स्वीकार किया. लोकतांत्रिक शब्द इस्तेमाल न करने की वजह नेहरू ने बताई कि जो गणराज्य है, वह लोकतांत्रिक होगा ही. यही नहीं हम सिर्फ लोकतंत्र की बात नहीं कर रहे हैं, हम आर्थिक लोकतंत्र की भी बात कर रहे हैं. समाजवाद को लेकर उन्होंने कहा कि हमने शब्द नहीं लिखा है, लेकिन पूरे प्रस्ताव में समाजवाद की भावना पिरो दी है. शब्द इसलिए नहीं जोड़ा है कि इससे परिभाषा को लेकर बेजा बहस न शुरू हो जाए. समाजवाद को समझाते हुए नेहरू ने इतना ही कहा था कि कमजोर से कमजोर आदमी को समाज में बराबरी और आर्थिक बराबरी दिलाना ही समाजवाद है.
लेकिन जब सन 2015 में संविधान ग्रहण करने का जो जन्मदिन मनाया जा रहा है, तब संविधान सभा के 8 नवंबर 1948 के सत्र में नेहरू ने जो कहा, उसे भी इन दो शब्दों को संविधान में लाने का विरोध करने वालों को जानना चाहिए. और यह भी जानना चाहिए कि ये शब्द कांग्रेस का नेता या देश का प्रधानमंत्री भर नहीं कह रहा था, यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गांधी के बाद देश का सबसे बड़ा नेता कह रहा था और संविधान का निर्माता किसी को भी मानें पर संविधान के हर शब्द पर उसी शख्स की छाप है. अगर ओछे तर्कों का काट करने की नीयत से देखना हो तो संविधान सभा की यूनियन कंस्टीट्यूशन कमेटी के मुखिया नेहरू ही थे. संविधान सभा में संविधान का ड्राफ्ट तैयार किए जाने से जुड़े अपने संबोधन के अंत में पंडित जी कहा, 'मैं अंत में एक बार फिर देश में मौजूद चंद फितरतों के बारे में कुछ कहना चाहूंगा. ये फितरतें अलहदा वजूद और विशेष दर्जों जैसी चीजों की बातें करती हैं. हमारा यह संविधान घोषणापत्र अल्पसंख्यकों के लिए, आदिवासी इलाकों के लिए, वंचित और अन्य तबकों के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपाय मुहैया कराता है और यह सब होना भी चाहिए, लेकिन बहुसंख्यकों का यह काम और जिम्मेदारी है कि वे अल्पसंख्यकों का दिल जीतें क्योंकि अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की नीयत पर शक हो सकता है.' क्या आज के इस दौर में सरकार से सीधे और आंखों-आंखों में जुड़े लोग अल्पसंख्यकों में भरोसा बहाली का ऐसा कोई भी काम कर रहे हैं? वे तो उसी फितरत के हिमायती दिख रहे हैं, जिससे पंडितजी आगाह कर रहे थे.
तो क्या यह बेहतर ही नहीं हुआ कि इंदिरा गांधी ने ये दोनों शब्द संविधान में डाल दिए. एक तरह से देखा जाए तो संविधान की इमारत के भीतर तो सेकुलर और सोशलिस्ट का निवास था ही, इंदिराजी ने शब्द जोड़कर एक नेमप्लेट भर लगा दी. क्योंकि उन्हें दिख रहा था कि जुमलों और कुतर्क के आने वाले दौर में लोग संविधान की आत्मा से मुंह मोड़ सकते हैं. इसलिए जो बात भाव में कही गई है, उसे शब्दों में भी टांक दिया जाए. और उन्हें ऐसा करने की इजाजत भी संविधान निर्माता ही दे गए थे. संविधान घोषणापत्र पेश करने के भाषण के अंत में नेहरू ने कहा था, 'कुछ लोगों को लगता है कि जो हम आज कर रहे हैं, उसे अगले 10-20 साल तक कोई हाथ भी नहीं लगाएगा. अगर हमने कोई चीज आज छोड़ दी, तो उसे कल नहीं सुधारा जा सकेगा. मुझे यह पूरी तरह से गलतफहमी लगती है. हो सकता है कि हम जो संविधान बना रहे हैं, वह आजाद भारत की जरूरतों को पूरा न कर सके. हम भारत की आने वाली नस्लों को बांध नहीं सकते.' इसीलिए उन्होंने संविधान के लचीला होने, इसमें आसानी से संशोधन किए जा सकने की गुंजाइश छोड़ी, लेकिन उन आठ बिंदुओं में किसी बदलाव की गुंजाइश नहीं छोड़ी, जो इंसान को इंसान की तरह रहने के मूलभूत हक देते हैं.
इंदिरा गांधी ने जो बदलाव किए वे इन्हीं आठ बिंदुओं के दायरे में थे. लेकिन अब अगर सरकार को सेक्युलर और सोशलिस्ट में दिक्कत आ रही है, तो सरकार बताए कि इन शब्दों की जगह क्या वह हिंदू राष्ट्र, सांप्रदायिक और पूंजीवादी जैसे शब्द लगाना चाहती है? क्या सरकार उसके बाद भारत को बताएगी कि ये दोनों शब्द जिनका अर्थ है-सभी धर्मों को पूरी आजादी, लेकिन सरकार का धार्मिक कामों से कोई लेना-देना नहीं और गरीब आदमी को इज्जत से जीने का अधिकार, के बिना देश कैसे चलेगा? क्या इन शब्दों के बिना भी सुराज या राम राज्य आ सकता है?
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