याद कीजिए 9/11 हमले के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश का वह दुनिया के नाम संदेश- 'अमेरिका के दुश्मन दुनिया में जहां भी होंगे, हम उन्हें खत्म कर देंगे'. फिर पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को वह धमकी- 'तय कर लीजिए, या तो हमारे साथ हैं या हमारे विरोधी हैं' (तटस्थ होने के लिए कोई जगह नहीं थी). और इस धमकी के दो महीने के भीतर अमेरिका ने अफगानिस्तान को लाशों और खंडहर में बदल दिया. वह दस साल अफगानिस्तान में डटा रहा, जब तक कि अपने दुश्मन नंबर 1 ओसामा बिन लादेन को खत्म नहीं कर दिया.
अब तालिबान और अलकायदा का दौर खत्म हो गया है. ISIS नई चुनौती बनकर उभरा है. 9/11 हमले से सतर्क हो चुके अमेरिका ने अपनी सुरक्षा को काफी मजबूत कर लिया है, इसलिए उसके पुराने सहयोगी यूरोपीय देश खतरे में पड़ गए हैं. लेकिन, अमेरिका उनके लिए वैसा तत्पर नहीं दिख रहा, जैसा वह 9/11 के बाद था. राष्ट्रपति ओबामा के बयान पर गौर कीजिए. वे अब भी सीरिया में सत्ता परिवर्तन पर जोर दे रहे हैं. आतंकवाद की भर्त्सना तो कर रहे हैं, लेकिन उनकी कार्रवाई इराक के उत्तर में मौजूद कुर्दिस्तान से लगे इलाकों तक ही सीमित है. अमेरिका इस इलाके को रणनीतिक रूप से अहम मानता है, क्योंकि यहीं से वह इरान, इराक और मध्य एशिया तक नजर रखता है. सीरिया में हमले को लेकर उसकी दिलचस्पी अब भी कम है. उधर, पेरिस हमले के बाद फ्रांस यूरोपीय देशों से ज्यादा उम्मीद कर रहा है, क्योंकि वह भी मान रहा है कि अमेरिका से ज्यादा उसके पड़ोसी उसका दर्द समझेंगे. क्योंकि ISIS का खतरा उनके सामने भी वैसा ही है.
अब भारत के मामले में आतंकवाद का पैमाना अलग है. यहां 26/11 मुंबई हमलों के बाद पश्चिमी दुनिया के देश भारत से संयम बरतने की अपील करते हैं. आतंकवाद की निंदा करते हैं. लेकिन पाकिस्तान पर कोई दबाव नहीं डालते कि वह दोषियों को भारत के सुपुर्द कर दे. इतना ही नहीं,...
याद कीजिए 9/11 हमले के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश का वह दुनिया के नाम संदेश- 'अमेरिका के दुश्मन दुनिया में जहां भी होंगे, हम उन्हें खत्म कर देंगे'. फिर पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को वह धमकी- 'तय कर लीजिए, या तो हमारे साथ हैं या हमारे विरोधी हैं' (तटस्थ होने के लिए कोई जगह नहीं थी). और इस धमकी के दो महीने के भीतर अमेरिका ने अफगानिस्तान को लाशों और खंडहर में बदल दिया. वह दस साल अफगानिस्तान में डटा रहा, जब तक कि अपने दुश्मन नंबर 1 ओसामा बिन लादेन को खत्म नहीं कर दिया.
अब तालिबान और अलकायदा का दौर खत्म हो गया है. ISIS नई चुनौती बनकर उभरा है. 9/11 हमले से सतर्क हो चुके अमेरिका ने अपनी सुरक्षा को काफी मजबूत कर लिया है, इसलिए उसके पुराने सहयोगी यूरोपीय देश खतरे में पड़ गए हैं. लेकिन, अमेरिका उनके लिए वैसा तत्पर नहीं दिख रहा, जैसा वह 9/11 के बाद था. राष्ट्रपति ओबामा के बयान पर गौर कीजिए. वे अब भी सीरिया में सत्ता परिवर्तन पर जोर दे रहे हैं. आतंकवाद की भर्त्सना तो कर रहे हैं, लेकिन उनकी कार्रवाई इराक के उत्तर में मौजूद कुर्दिस्तान से लगे इलाकों तक ही सीमित है. अमेरिका इस इलाके को रणनीतिक रूप से अहम मानता है, क्योंकि यहीं से वह इरान, इराक और मध्य एशिया तक नजर रखता है. सीरिया में हमले को लेकर उसकी दिलचस्पी अब भी कम है. उधर, पेरिस हमले के बाद फ्रांस यूरोपीय देशों से ज्यादा उम्मीद कर रहा है, क्योंकि वह भी मान रहा है कि अमेरिका से ज्यादा उसके पड़ोसी उसका दर्द समझेंगे. क्योंकि ISIS का खतरा उनके सामने भी वैसा ही है.
अब भारत के मामले में आतंकवाद का पैमाना अलग है. यहां 26/11 मुंबई हमलों के बाद पश्चिमी दुनिया के देश भारत से संयम बरतने की अपील करते हैं. आतंकवाद की निंदा करते हैं. लेकिन पाकिस्तान पर कोई दबाव नहीं डालते कि वह दोषियों को भारत के सुपुर्द कर दे. इतना ही नहीं, पाकिस्तान की जमीन से चलने वाले भारत विरोधी अभियान को लेकर अमेरिका और यूरोपीय देशों का नजरिया उदासीन है. कश्मीर में फैलाए गए आतंकवाद को तो वे अलगाववादियों का संघर्ष मानते हैं. वैसा ही जैसे रूस और यूक्रेन के संघर्ष को. जिस तरह से पेरिस हमले के बाद यूरोपीय देशों ने सीरिया में ISIS के ठिकानों पर बमबारी की है, क्या कल्पना की जा सकती है कि वे मुंबई हमलों के बाद वैसी ही बमबारी पाकिस्तान में मौजूद आतंकी ट्रेनिंग कैंपों पर करते?
...और आतंक का चौथा पैमाना है अफ्रीकी देशों के लिए. जहां होने वाले नरसंहार से अमेरिका और यूरोपीय देशों का कोई लेना देना ही नहीं होता. नाइजीरिया में बोको हराम सैकड़ों हत्याएं करे. बाकी देशों में अलकायदा इस्लाम के नाम पर लोगों पर अत्याचार करे, वहां कोई कार्रवाई नहीं होती.
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