डीएसपी अयूब पंडित की भाभी का कहना है कि कि उन्हें भीड़ ने मारा. कहते हैं भीड़ के पास दिमाग नहीं होता. लेकिन ये बात इंसानों की भीड़ के लिए कहा जाता है. क्या जामिया मस्जिद के पास उस दिन जो भीड़ थी वो इंसानों की ही थी? वो इंसानों की भीड़ तो नहीं लगती. वो तो ऐसी लगती है जैसे भेड़ियों की भीड़ हो.
ऐसे भेड़ियो से सेना और अन्य सुरक्षा बलों को निपटना खूब आता है. सेना और सुरक्षा बलों के लिए ऐसे भेड़ियों से निपटना आसान तब होता है जब वे बाहरी हों, स्थानीय नहीं. सेना और बाकी सुरक्षा बल बाहरी भेड़ियों से तो कभी भी निपट लें, लेकिन घर घर घुसे भेड़ियों को खत्म करना उनके लिए स्वाभाविक तौर पर मुश्किल होता है. आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, बाहर-भीतर घूमते हमशक्लों में से भेड़ियों को फौरन पहचानने में ज्यादा सक्षम स्थानीय पुलिस ही होती है. शर्त सिर्फ इतनी है कि सिविल पुलिस ठान ले - टारगेट को नेस्तनाबूद करते देर नहीं लगती.
पुलिस के लिए कुछ भी असंभव नहीं
साल दो साल पहले किसी मित्र ने एक किस्सा सुनाया था. दिल्ली की ही घटना थी. एक पुलिस अफसर के बच्चे उस दिन अपने ट्यूटर को जल्दी बुलाना चाहते थे ताकि शाम को वो घरवालों के साथ घूमने जा सकें. ट्यूटर को थोड़ा पहले बुलाने के लिए उन्होंने कई बार फोन किया लेकिन बात नहीं हो पाई. वक्त पर पहुंचना तो दूर जो ट्यूटर थे उस दिन देर से पहुंचे. बच्चों को साथ ले जाने के लिए वो अफसर भी ट्यूटर का इंतजार कर रहे थे. ट्यूटर ने बताया कि किसी बस स्टैंड पर किसी ने उनका मोबाइल चुरा लिया. ट्यूटर की बातें सुन कर अफसर ने कहीं फोन किया. बात करते करते उन्होंने फोन ट्यूटर को पकड़ा दिया. ट्यूटर से घटना के डिटेल लिये गये - मसलन, कहां, कब, कितने बजे?
घंटे भर बाद एक पुलिस वाला कई सारे फोन लाकर ट्यूटर के सामने रख दिया. 'जो आपका हो चुन लीजिए...'
पुलिस के लिए कुछ भी असंभव नहीं...
थोड़ी उलझन के बाद ट्यूटर ने अपना फोन पहचान लिया. जाहिर है उन्हें फोन वापस मिलने की खुशी से ज्यादा आश्चर्य हो रहा था. डिटेल लेते वक्त उनसे पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की बाबत भी पूछा गया था तो उन्होंने कहा - फायदा क्या है?
ऑफ द रिकॉर्ड ऐसे तमाम किस्से सुनने को मिलते रहते हैं. इस घटना के बाद ट्यूटर के मन में भी तमाम सवाल होंगे? वे सारी बातें तब गौण हो जाती हैं जब तत्व की बात पर गौर करें - पुलिस चाहे तो कुछ भी असंभव नहीं है.
सीनियर पत्रकार शेखर गुप्ता ने एक ट्वीट में पुलिस को लेकर ऐसी ही बात कही है - "पंजाब में आतंकवाद के खात्मे की शुरुआत तभी हो पाई जब पुलिस ने इसे अपनी जंग बनाया. उम्मीद है कि जम्मू-कश्मीर पुलिस भी अब ऐसा ही करेगी क्योंकि ये लड़ाई केवल वो ही जीत सकती है."
पुलिस की कामयाबी के कारण
सिविल पुलिस पर फर्जी एनकाउंटर और कई दूसरे आरोप लगते रहते हैं. कभी स्थानीय पुलिस, एसटीएफ या एसओजी का लगातार विरोध नहीं होता जितना दूसरे अर्धसैनिक बलों को लेकर होता रहा है. या जैसे कश्मीर में सेना को लेकर होता रहा है. कश्मीर में भी AFSPA को हटाने की मांग होती रही है. मांग करनेवालों में महबूबा भी शामिल हैं. मणिपुर में तो इरोम शर्मिला ने इसके लिए 16 साल तक अनशन कर डाला.
सेना आखिरी विकल्प होनी चाहिये. बाकी अर्धसैनिक बल विशेष परिस्थितियों के लिए ही जरूरी होते हैं. कानून व्यवस्था कायम करने की रोजाना की जरूरतों के लिए सिविल पुलिस का कोई विकल्प नहीं है.
स्मार्ट पुलिसवालों को लेकर राज्यों में बनी एसटीएफ यानी स्पेशल टास्क फोर्स का भी कोई सानी नहीं. हालांकि, एसटीएफ के भी कई अफसर विवादों में रहे हैं. जैसे यूपी एसटीएफ के कुछ अफसरों के बारे में कहा जाता रहा कि जितने भी मामले उन्होंने सुलझाये अपराधी घरेलू नौकर और वैसे काम करने वाले ही पाये गये. सीबीआई को भी पिंजरे के तोते का तमगा हासिल है, फिर भी देश की नंबर वन जांच एजेंसी के रूप में विश्वसनीयता उसी की है. जब भी कुछ होता है हर किसी की पहली मांग सीबीआई जांच ही होती है.
दरअसल, स्थानीय पुलिस को ही हर बात की खबर होती है. हर सिपाही का अपना बीट होता है. हर पुलिसकर्मी और अफसर के अपने मुखबिर होते हैं. पुलिस की भूमिका ऐसी है कि सबसे गोपनीय रखी जाने वाली आयकर के छापों की भी जानकारी उनके पास होती है. अब वो प्रोफेशनल एथिक्स हो या फिर डर जिसकी वजह से ऐसी चीजें कम ही लीक हो पाती हैं.
डीएसपी अयूब की हत्या में पुलिस ने भी कम लापरवाही नहीं की है. अब तो पता चल रहा है कि वीडियो बनाने जैसी बातें भी अफवाहों पर आधारित रहीं.
स्टेट टाइम्स अखबार की रिपोर्ट में इस हत्या से जुड़ी काफी बातें विस्तार से हैं. अब इससे बड़ी ताज्जुब की बात क्या होगी कि घटना के डेढ़ घंटे बाद तक नजदीकी थाने का कोई मौका-ए-वारदात पर पहुंचा ही नहीं. जिस पिस्टल से डीएसपी अयूब ने गोली चलाई वो भी उनकी अपनी लाइसेंसी थी. उनके सपोर्ट के लिए सशस्त्र पुलिस की ओर से कोई बैकअप नहीं था. अखबार की रिपोर्ट से ऐसा तमाम खामियों का पता चलता है.
पंजाब पुलिस की तरह ही अगर जम्मू कश्मीर पुलिस भी आतंकवाद के खात्मे की ठान ले तो कोई शक नहीं कि उसका खात्मा नहीं हो सकता. पुलिस को सेना का मुहं देखने की जरूरत नहीं, वो खुद अपनी क्षमता को पहचाने और पेशेवराना तरीके से काम करे तभी अपने साथी की कातिल भीड़ को सजा मिल पाएगी - और यही डीएसपी अयूब को सच्ची श्रद्धांजलि भी होगी.
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