राजनीति में एक नेता या पार्टी अच्छे दांव तब ही खेल सकती है जब वो मौके का फायदा उठाना जाने. राजनीति में 'मौके का फायदा उठाना बहुत ज़रूरी है' किसी ने इस बात को समझा हो या न समझा हो मगर भाजपा इससे भली भांति परिचित थी और इसी के मद्देनज़र उसने दलित राजनीति का कार्ड खेलते हुए रामनाथ कोविंद का नाम राष्ट्रपति पद के लिए आगे किया.
राष्ट्रपति की पारी खेलने के लिए अभी भाजपा कोविंद को फ्रंट फुट पर लाई ही थी कि उधर से घोषणा हो गयी की कांग्रेस दलित चेहरे के रूप में मीरा कुमार को सामने ला रही है. अब चाहे मीरा हों या राम हमारा अगला राष्ट्रपति दलित होगा. इसके पीछे की वजह ये कि अब पार्टियाँ प्रमुख दलित नेताओं को आगे लाकर उस समुदाय को ये बताने का प्रयास कर रही हैं कि अब उन्हें उनके खोए अधिकार हम दिलाएंगे.
भारतीय राजनीति में ये बिल्कुल भी पहली बार नहीं है कि किसी खास समुदाय को रिझाने के लिए पार्टियों ने अपनी तरफ से हर संभव प्रयास किया हो और अपनी जी जान लगा दी हो. इससे पहले हम ऐसा बहुत कुछ देख चुके हैं, इसके बाद ऐसा हम आगे भी देखेंगे.
इन बिम्बों के बाद मन में कुछ प्रश्नों का उठना स्वाभाविक है जैसे उन समुदायों का क्या होता होगा जो अब तक गर्त के अंधेरों में थे और अचानक ही उन्हें सत्ता और शक्ति दोनों मिल गयी हो. या फिर क्या अचानक मिली शक्ति से कोई समुदाय बेकाबू हो जाता होगा. या फिर एक समुदाय को विशेष लाभ मिलने से दूसरे समुदाय को फर्क पड़ता है. क्या दूसरा समुदाय, अन्य समुदायों को मिलने वाले लाभों से रोष में आता है तो इन सारे प्रश्नों का जवाब हां ही होगा.
बात आगे बढ़ाने से पहले हम आपको एक खबर से अवगत कराना चाहेंगे. खबर है कि आरक्षण की मांग को लेकर एक बार फिर से जाटों ने प्रदर्शन कर उत्पात...
राजनीति में एक नेता या पार्टी अच्छे दांव तब ही खेल सकती है जब वो मौके का फायदा उठाना जाने. राजनीति में 'मौके का फायदा उठाना बहुत ज़रूरी है' किसी ने इस बात को समझा हो या न समझा हो मगर भाजपा इससे भली भांति परिचित थी और इसी के मद्देनज़र उसने दलित राजनीति का कार्ड खेलते हुए रामनाथ कोविंद का नाम राष्ट्रपति पद के लिए आगे किया.
राष्ट्रपति की पारी खेलने के लिए अभी भाजपा कोविंद को फ्रंट फुट पर लाई ही थी कि उधर से घोषणा हो गयी की कांग्रेस दलित चेहरे के रूप में मीरा कुमार को सामने ला रही है. अब चाहे मीरा हों या राम हमारा अगला राष्ट्रपति दलित होगा. इसके पीछे की वजह ये कि अब पार्टियाँ प्रमुख दलित नेताओं को आगे लाकर उस समुदाय को ये बताने का प्रयास कर रही हैं कि अब उन्हें उनके खोए अधिकार हम दिलाएंगे.
भारतीय राजनीति में ये बिल्कुल भी पहली बार नहीं है कि किसी खास समुदाय को रिझाने के लिए पार्टियों ने अपनी तरफ से हर संभव प्रयास किया हो और अपनी जी जान लगा दी हो. इससे पहले हम ऐसा बहुत कुछ देख चुके हैं, इसके बाद ऐसा हम आगे भी देखेंगे.
इन बिम्बों के बाद मन में कुछ प्रश्नों का उठना स्वाभाविक है जैसे उन समुदायों का क्या होता होगा जो अब तक गर्त के अंधेरों में थे और अचानक ही उन्हें सत्ता और शक्ति दोनों मिल गयी हो. या फिर क्या अचानक मिली शक्ति से कोई समुदाय बेकाबू हो जाता होगा. या फिर एक समुदाय को विशेष लाभ मिलने से दूसरे समुदाय को फर्क पड़ता है. क्या दूसरा समुदाय, अन्य समुदायों को मिलने वाले लाभों से रोष में आता है तो इन सारे प्रश्नों का जवाब हां ही होगा.
बात आगे बढ़ाने से पहले हम आपको एक खबर से अवगत कराना चाहेंगे. खबर है कि आरक्षण की मांग को लेकर एक बार फिर से जाटों ने प्रदर्शन कर उत्पात मचाया है और रेलवे ट्रैक जाम किया है जिससे आम जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया है. हालाँकि ये प्रदर्शन ताज़ा है मगर इससे जुड़े तारों पर एक नजर डालें तो मिलता है कि इसके तार काफी पुराने हैं. जाट काफी समय पहले से अपने को ओबीसी बनाने की मांग कर रहे हैं.
जाटों का तर्क है कि उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए. उनके लोगों की भी नौकरी में हिस्सेदारी होनी चाहिए. कुल मिला के उन्हें भी वो अधिकार मिलने चाहिए जो उन समुदायों को मिल रहे हैं जिनके पास आरक्षण के रूप में 'विशेषाधिकार' हैं.
भारतियों को इस बात के लिए अपने संविधान के आगे दंडवत होकर झुकना चाहिए कि वो जबरन अपनी मांग मनवाने के लिए रोड, रेलवे ट्रैक, नदी, नाले, पहाड़, खुले में या खेत में कहीं भी बैठ सकते हैं, हल्ला, शोर - शराबा, हिंसा, आगजनी, पथराव कुछ भी कर सकते हैं और एक दिन सरकार उनकी बात मान सकती है.
हर सिक्के के दो पहलु हैं, आरक्षण के लिए जाटों का प्रदर्शन भी उसी पहलु का एक हिस्सा है. बात केवल जाटों पर ही क्यों हों गुज्जर, मुसलमान, दलित, बोडो, गोरखा सभी सिक्के के दूसरे पहलू हैं सभी को विशेषाधिकार चाहिए. बिना कुछ किये सत्ता सुख सभी हासिल करना चाहते हैं. आज हर कोई कोटे के लोटे से आरक्षण की अफीम चाटना चाहता है.
सोचिये उस परिस्थिति को कल्पना कीजिये उस अवस्था की जब हमारे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री किसी मंच पर खड़े हों और लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए वो कह दें कि 'अगर हमारी सरकार यहां बन जाती है तो हम किसानों का ऋण माफ कर देंगे' या फिर 'हमारी पार्टी को अगर सत्ता मिल गयी तो हम 'पिछड़ों' के लिए योजनाएं चलाएँगे.
ये बात पिछड़ों और किसानों को अच्छी लग सकती है मगर उस व्यक्ति के बारे में सोचिये जिसने घर खरीदने के लिए स्टेट बैंक से लोन लिया हो मगर वो ईएमआई देने में असमर्थ है. या फिर उस स्टूडेंट के बारे में सोचिये जो ताजा - ताजा ग्रेजुएट हुआ है और नौकरी के लिए धक्के खा रहा हो. क्या उनको अपने नेताओं का ये दोहरा रवैया अच्छा लगेगा तो निस्संदेह उत्तर नहीं ही होगा.
कहा जा सकता है कि ये जाट आंदोलन उसी अमाउंट की किश्त है जो हमारी सरकारें ले चुकी हैं. ऐसे आंदोलन बस यही दर्शाते हैं कि जब - जब हम जातिगत राजनीति करेंगे तब - तब परिणाम स्वरूप हम और हमारा तंत्र ऐसे ही आंदोलन देखेंगा.
व्यक्तिगत रूप से मैं अपने नेताओं खासतौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हाथ जोड़ के आग्रह करना चाहूँगा कि वो अब इन चीजों से आगे निकलें जो देश के विकास में बाधक हैं और यदि वो समय - समय पर केवल समुदायों के अंतर्गत राजनीति कर रहे हैं तो ये बात खुद उनके 'सबका साथ, सबका विकास' के नारे पर एक सवालिया निशान लगा रही है.
अब समय आ गया है कि खुद प्रधानमंत्री को सोचना चाहिए कि 21वीं सदी का भारत जातिगत राजनीति की नहीं बल्कि सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की मांग करता है. यदि ऐसा हुआ तो ये बहुत अच्छी बात है और अगर नहीं हो पाया तो हमें उन बिन्दुओं के मद्देनज़र आत्मसात करना होगा जो विकास और उन्नति के मार्ग में बाधक हैं.
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.