अभी चुप चाप एक कोने में बैठी हूँ, ऐसा लगता है काँटों से भरे गलीचे पर हूँ, जो पल पल चुभ रहे हैं.. आँसू रुकने का नाम नही ले रहे और ऊपर से एक प्रश्न जो आग के जितना गरम गुस्सा दिला देता है ‘तुम्हे क्यूँ फर्क पड़ता है?’ करने दो ना जो कर रहें हैं.. मैंने ‘भारत की बरबादी के नारों का समर्थन करते इतने भारतीयों को देख लिया कि दिल जैसे आज बैठ ही गया, पलकें जैसे सूखने का नाम नही ले रही हैं.. आज मेरी देशभक्ति पर भी देश का नमक खाने वालों ने प्रश्न उठाये हैं, आज तिरंगा लहराया जाए या न लहराया जाए इस पर भी बहस हो रही है.
मैं आम नागरिक हूँ, न ही किसी राजनीतिक पार्टी के साथ हूँ , न ही आर्मी में हूँ.. बहुत आम हूँ मैं, मेरा जीवन 2 वक्त की रोटी कमाने में ही निकल रहा है, शायद इसीलिए मझे अपने बहते निर्जन आंसू भी किसी खाली बोतल में एकत्रित करके रखने पड़ेंगे क्यूंकि समय भी आज हाथ पर हाथ धरे बैठा है, क्या पता कोई कब मेरे आंसुओं का मझसे सबूत मांग ले? डर लगता है तिरंगा उठाने में भी अब, कोई मुझे नेता न कह दे, या फिर मुझे तिरंगा उठाने के लिए पैसे मिल रहें हैं, कोई मुझसे ये प्रश्न न पूछ ले.
क्या आप जानते है मैं कौन हूँ? मैं कश्मीरी पंडित हूँ और मेरे पास पहले से ही ये एक बात है जो मझे जतानी पड़ती है, जो मझे बार बार साबित करनी पड़ती है क्यूंकि मेरे देश में ‘दलित’ दिख गया बिना साबित किये, ‘बिहारी’ भी दिख गया बिना साबित किये पर मैं ताक रही हूँ आस कि मेरी ओर कब कोई देखेगा, कब कोई मझे देखकर मुंह नही फेरेगा. प्रतीक्षा में हूँ कि कब कोई उस औरत को न्याय देगा जिसके देह के टुकड़े टुकड़े कर दिए गए थे, वो कईं बार मेरे पास आती हैं मझसे कहती है ‘मैं देह से उतना नहीं बिखरी, जितनी मैं दिल से टूटी हूँ.. जब वो ऐसा कहती है तो लगता जैसे मेरी नींद में अपनी उम्मीद घोल दी हो उन्होंने और बस प्रतीक्षा के आसन पर जैसे उनकी आत्मा बैठी हो कि कब कोई उनके लिए आवाज़ उठाएगा. मुझे वो नर्स भी मिलने आती है जिसने न जाने कितने मरीजों की सेवा की होगी...
अभी चुप चाप एक कोने में बैठी हूँ, ऐसा लगता है काँटों से भरे गलीचे पर हूँ, जो पल पल चुभ रहे हैं.. आँसू रुकने का नाम नही ले रहे और ऊपर से एक प्रश्न जो आग के जितना गरम गुस्सा दिला देता है ‘तुम्हे क्यूँ फर्क पड़ता है?’ करने दो ना जो कर रहें हैं.. मैंने ‘भारत की बरबादी के नारों का समर्थन करते इतने भारतीयों को देख लिया कि दिल जैसे आज बैठ ही गया, पलकें जैसे सूखने का नाम नही ले रही हैं.. आज मेरी देशभक्ति पर भी देश का नमक खाने वालों ने प्रश्न उठाये हैं, आज तिरंगा लहराया जाए या न लहराया जाए इस पर भी बहस हो रही है.
मैं आम नागरिक हूँ, न ही किसी राजनीतिक पार्टी के साथ हूँ , न ही आर्मी में हूँ.. बहुत आम हूँ मैं, मेरा जीवन 2 वक्त की रोटी कमाने में ही निकल रहा है, शायद इसीलिए मझे अपने बहते निर्जन आंसू भी किसी खाली बोतल में एकत्रित करके रखने पड़ेंगे क्यूंकि समय भी आज हाथ पर हाथ धरे बैठा है, क्या पता कोई कब मेरे आंसुओं का मझसे सबूत मांग ले? डर लगता है तिरंगा उठाने में भी अब, कोई मुझे नेता न कह दे, या फिर मुझे तिरंगा उठाने के लिए पैसे मिल रहें हैं, कोई मुझसे ये प्रश्न न पूछ ले.
क्या आप जानते है मैं कौन हूँ? मैं कश्मीरी पंडित हूँ और मेरे पास पहले से ही ये एक बात है जो मझे जतानी पड़ती है, जो मझे बार बार साबित करनी पड़ती है क्यूंकि मेरे देश में ‘दलित’ दिख गया बिना साबित किये, ‘बिहारी’ भी दिख गया बिना साबित किये पर मैं ताक रही हूँ आस कि मेरी ओर कब कोई देखेगा, कब कोई मझे देखकर मुंह नही फेरेगा. प्रतीक्षा में हूँ कि कब कोई उस औरत को न्याय देगा जिसके देह के टुकड़े टुकड़े कर दिए गए थे, वो कईं बार मेरे पास आती हैं मझसे कहती है ‘मैं देह से उतना नहीं बिखरी, जितनी मैं दिल से टूटी हूँ.. जब वो ऐसा कहती है तो लगता जैसे मेरी नींद में अपनी उम्मीद घोल दी हो उन्होंने और बस प्रतीक्षा के आसन पर जैसे उनकी आत्मा बैठी हो कि कब कोई उनके लिए आवाज़ उठाएगा. मुझे वो नर्स भी मिलने आती है जिसने न जाने कितने मरीजों की सेवा की होगी पर उसे क्या पता था जिनकी वो जान बचा रही है वही उसकी जान भी ले लेंगे. मुझसे आकर बोली, घर भी बेघर कर सकता है, अपने घर में डर भी लग सकता है.. उन्होंने बताया जिस दिन ये हुआ उस दिन बस केवल ‘सफेद कफन’ आकर मझसे लिपट गया था, वो मझे हमेशा के लिए ले गया. केवल उसी ने ही मेरी जान बचाई.. वो जान जो बची नही थी.. पता नहीं कितने पंडित यूँ ही मार दिए गए. मेरा ‘राख का घर चमकता’ है वहां, यहाँ मकान में जब घर जाने की बात करती हूँ सब सोचने लग जाते हैं जाए कि न जाए, सच कहूँ तो बड़ी जलन होती हैं उन दोस्तों से जो हर 5 दिन में फ़ोन पर कह देते हैं कि ‘हम गाँव जा रहें है’ और हम ‘सारथी’ से कितनी आसानी से ‘शरणार्थी’ बन गए पता ही नही चला.. ‘बिहारी’ और ‘दलित’ को हलकी सी चोट लग गई तो पूरे देश में हाहाकार मच गया. कहाँ हूँ मैं? क्यूँ मेरी कहीं आवाज़ नहीं? धरती की जन्नत पर जाने के लिए हमारे बुज़ुर्ग आस लगाये बैठे होते हैं पर वो आकाश की जन्नत में पहुंचकर तारे बन जाते हैं.. कश्मीर तो पहले से ही आज़ाद है, तभी तो हम बाहर है. सब कहते हैं मेरा गाँव ये है, वहां मेरा घर इस जगह पर है, कमाल की बात देखिये जहाँ सबका गाँव है, घर है वहां हमसे पूछा जाता है आपका घर है अभी वहां कि जला दिया गया? कोई रह रहा है वहां? मैं कहती हूँ हर बार कि मेरा ‘राख का घर’ है वहां ‘दलित’ और ‘बिहारी’ के लिए जहाँ पूरा देश खड़ा हो गया है वहीं कुछ चंद कश्मीरी पंडित अपना अस्तित्व ढूंढ रहे हैं, वो पूछ रहें है कि वो जहाँ खड़े है क्या वो वहां खड़े हैं? या फिर नीचे से भूमि खिसक गई है? बता दीजिये न कि हम कौन हूँ? हमारा अस्तित्व क्या है? ये प्रश्न पूछ लो तो जवाब आता है ‘हमें आपसे हमदर्दी है, ये हमदर्दी ऐसी लगती है जैसे वहां रहने वाले कुछ मुसलमान हमें अपना भाई कहते हैं पर हमें कभी रहने के लिए नही बुलाते, बड़ी दूर की रिश्तेदारी है.
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