जिस तरह आगे भी सत्ता में बने रहने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास महज दो साल बचे हैं - यूपी की सियासत में जिंदा रहने के लिए मायावती और अखिलेश यादव के पास भी उतना ही वक्त शेष है.
हो सकता है मायावती और अखिलेश की चुनौतियां एक जैसी न हों - लेकिन पहला टेस्ट दोनों के लिए 2019 में ही होना है.
टारगेट और चुनौती - 2019
2014 की भव बाधा और फिर 2017 का भव सागर पार कर लेने के बाद बीजेपी के सामने अब 2019 की वैतरणी बची है. 2014 से देश को कांग्रेस मुक्त बनाने में जुटी बीजेपी अब यूपी को भी विपक्ष मुक्त बनाने की ओर बढ़ चली है.
योगी आदित्यनाथ को यूपी की कमान सौंपने और सहयोगियों के रूप में केशव मौर्या और दिनेश शर्मा को अगल बगल बिठाकर बीजेपी ने अगले दो साल के लिए एक्शन प्लान की ओर इशारा भी कर दिया है.
चुनाव से पहले बीजेपी ने जहां साफ कर दिया था कि उसे मुसलमानों की जरूरत नहीं, वहीं अब उसने ये भी जता दिया है कि हिंदूत्व का एजेंडा न तो उसने कभी छोड़ा न ही आगे उससे पीछे हटने वाली है.
अब तक सवर्णों के सहारे चल रही बीजेपी के हिंदूत्व की इस नयी पैकेजिंग में पिछड़ों और दलितों को भी जोड़ने की कोशिश है. बीजेपी ने भले ही लव-जिहाद के आविष्कारक योगी आदित्यनाथ को सीएम की कुर्सी पर बिठाया है - लेकिन उसके पीछे संघ की वो मंशा भी निहित है जिसमें हिंदुओं के लिए एक एक मंदिर, एक कुआं और एक श्मशान की थ्योरी दी जाती है.
बीजेपी की नयी सोशल इंजीनियरिंग अगर चुनावों में उसकी ताकत बन कर उभरी है तो उसे नजरअंदाज करना उसके लिए सबसे बड़ी कमजोरी भी साबित हो सकती है.
जो चुनौती बीजेपी ने समाजवादी पार्टी और बीएसपी के सामने पेश की है, वही उसके लिए भी हो सकती है अगर वो लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने...
जिस तरह आगे भी सत्ता में बने रहने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास महज दो साल बचे हैं - यूपी की सियासत में जिंदा रहने के लिए मायावती और अखिलेश यादव के पास भी उतना ही वक्त शेष है.
हो सकता है मायावती और अखिलेश की चुनौतियां एक जैसी न हों - लेकिन पहला टेस्ट दोनों के लिए 2019 में ही होना है.
टारगेट और चुनौती - 2019
2014 की भव बाधा और फिर 2017 का भव सागर पार कर लेने के बाद बीजेपी के सामने अब 2019 की वैतरणी बची है. 2014 से देश को कांग्रेस मुक्त बनाने में जुटी बीजेपी अब यूपी को भी विपक्ष मुक्त बनाने की ओर बढ़ चली है.
योगी आदित्यनाथ को यूपी की कमान सौंपने और सहयोगियों के रूप में केशव मौर्या और दिनेश शर्मा को अगल बगल बिठाकर बीजेपी ने अगले दो साल के लिए एक्शन प्लान की ओर इशारा भी कर दिया है.
चुनाव से पहले बीजेपी ने जहां साफ कर दिया था कि उसे मुसलमानों की जरूरत नहीं, वहीं अब उसने ये भी जता दिया है कि हिंदूत्व का एजेंडा न तो उसने कभी छोड़ा न ही आगे उससे पीछे हटने वाली है.
अब तक सवर्णों के सहारे चल रही बीजेपी के हिंदूत्व की इस नयी पैकेजिंग में पिछड़ों और दलितों को भी जोड़ने की कोशिश है. बीजेपी ने भले ही लव-जिहाद के आविष्कारक योगी आदित्यनाथ को सीएम की कुर्सी पर बिठाया है - लेकिन उसके पीछे संघ की वो मंशा भी निहित है जिसमें हिंदुओं के लिए एक एक मंदिर, एक कुआं और एक श्मशान की थ्योरी दी जाती है.
बीजेपी की नयी सोशल इंजीनियरिंग अगर चुनावों में उसकी ताकत बन कर उभरी है तो उसे नजरअंदाज करना उसके लिए सबसे बड़ी कमजोरी भी साबित हो सकती है.
जो चुनौती बीजेपी ने समाजवादी पार्टी और बीएसपी के सामने पेश की है, वही उसके लिए भी हो सकती है अगर वो लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने में नाकाम रही.
करो या मरो वाली चुनौती
यूपी की जातीय राजनीति के हिसाब से अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी यादवों की पार्टी रही है - और मायावती की बीएसपी मूलत: दलितों की. हालिया चुनाव में अखिलेश ने पिता मुलायम सिंह यादव के यादव-मुस्लिम गठजोड़ को तोड़ कर कुछ आगे बढ़ने की कोशिश की. ऐसा करके अखिलेश ने सवर्णों में भी स्वीकार्यता हासिल के लिए अपनी छवि निखारने की कोशिश की तो मायावती ब्राह्मणों की जगह मुस्लिमों के साथ दलितों का गठजोड़ कर सत्ता हथियाने में दोबारा फेल हो गयीं.
मायावती की राजनीति के लिए तो शायद अब करो या मरो वाली स्थिति होगी. अगले साल अप्रैल तक उनकी राज्य सभा की सदस्यता है - और उसके बाद अगर आगे भी उन्हें खुद की सदस्यता चाहिये तो किसी की मदद से ही बन पाएंगी - क्योंकि नंबर उनके पास पूरा नहीं होगा. अब निर्भर करता है कि किन समीकरणों में कौन मदद करता है. जैसे पिछली बार उन्होंने कांग्रेस की मदद की थी - चाहे तो उन्हें समाजवादी पार्टी से दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाले फॉर्मूले से मदद मिल सकती है.
ईवीएम विवाद अपनी जगह है, लेकिन बीजेपी एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट न देकर भी अल्पसंख्यकों के वोट पा चुकी है - जबकि समाजवादी कांग्रेस गठबंधन और मायावती का दम फैक्टर कब का दम तोड़ चुका है.
अखिलेश को खुद को टेस्ट करना है कि कैसे वो पिछली गलतियों से सीख कर खुद को खड़ा कर पाते हैं. अखिलेश को ही तय करना है कि उन्हें आगे की राजनीति के लिए कौन सा रास्ता अख्तियार करना है. क्या वो यादवों के साथ साथ पिछड़ी जातियों पर पकड़ बनाने की फिर से कोशिश करेंगे जिसे बीजेपी ने इस चुनाव में बड़ी चालाकी से झटक लिया. या वो सबको साथ लेकर विकास वाली इमेज के सहारे ही यूपी की राजनीति में अपनी जगह पक्की करेंगे? अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि के बावजूद नये मुखिया भी विकास की ही बात कर रहे हैं. अखिलेश के सामने तीसरा रास्ता ये है कि वो चाहें तो पिता मुलायम वाली राजनीति की ओर लौट जाएं जिसमें एम-वाय फैक्टर की राजनीति होती है.
मायावती अब तक यही मान कर चलती रहीं कि ताउम्र वो जो भी कहेंगी दलित समुदाय उसे तहेदिल से सुनेगा. वो जिसे चाहें चुनाव में टिकट दें और जिसे सपोर्ट करने को कहें दलित समुदाय आंख मूंद कर उनकी बात मानेगा. बीएसपी के ही बागी नेता भले ही उन पर पैसे लेकर टिकट देने के आरोप लगाते रहें, लेकिन उनके वोटर पर ऐसी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.
जमाना आगे निकल रहा है. दूसरों को वोट देकर दलित समुदाय मायावती को बता चुका है कि वो अब आंख मूंद कर वोट नहीं देने वाला क्योंकि दूसरों ने उसकी आंखें खोल दी है. दलित समुदाय मैसेज दे रहा है कि बहुत दिनों तक उसे कभी आरक्षण के नाम पर तो कभी सवर्णों को गाली देकर फुसलाया नहीं जा सकता. उसे पत्थर वाली सरकार नहीं चाहिये. अब वो चाहता है कि उसका हाथी चलते फिरते दिखे. मायावती को इन संकेतों को जल्द से जल्द समझना होगा, अगर अब तक बात समझ में नहीं आ सकी तो.
ये सब तभी संभव है जब वो बीजेपी की गलतियों पर गौर करें - उनके काम में कारनामा खोजें और जैसा कि अखिलेश ने माना कि लोगों को बहकाया गया - वो भी चाहें तो आजमा सकते हैं.
मायावती के लिए भी इतना ही स्कोप बचा है - उनके सिर्फ नाम के दलित आंदोलन को दलित समुदाय पूरी तरह नकार चुका है - 2012, 2014 और 2017. तीन मौके कम नहीं होते - मायावती ये तीनों गवां चुकी हैं.
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