प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाल के भाषणों में दो बातों पर जोर दिखा - एक पाकिस्तानी अवाम को सलाह और दूसरा, भारतीय मुसलमानों को सफाई. स्वतंत्र भारत के इतिहास में ये पहला मौका रहा जब भारत के प्रधानमंत्री ने किसी दूसरे मुल्क की अवाम को सीधे संबोधित किया हो - और उन्हें अपने हुक्मरानों से सवाल करने की सलाह दे डाली हो. ये भी पहला ही मौका रहा जब पाकिस्तान के लोगों ने अमेरिका, रूस, ब्रिटेन या चीन नहीं बल्कि भारत के प्रधानमंत्री को इतने गौर से लाइव सुना हो - और रिएक्ट किया हो, खासकर मीडिया और सोशल मीडिया में.
पाकिस्तानी अवाम से
एक सहज सवाल है - मोदी ने पाकिस्तानी अवाम से सीधे बात करने की कोशिश क्यों की? क्या मोदी को लगा कि अवाम से संवाद ज्यादा असरदार रहेगा? या फिर ये सिर्फ डिप्लोमैटिक तरकीब है?
इसे डिप्लोमैटिक तरकीब के तौर पर वे लोग देख सकते हैं जो इसके वैश्विक प्रभाव का आकलन करना चाहें. निश्चित तौर पर ये दुनिया को ये मैसेज देने की कोशिश हो सकती है कि हम 18 जवानों को यूं ही गंवा देने के बावजूद युद्ध के कतई पक्षधर नहीं हैं. लेकिन हम चाहते हैं कि जवानों को शहादत के लिए मजबूर करने वालों को सजा जरूर मिले. लेकिन ये मुमकिन होगा तो कैसे? सवाल बड़ा तो है ही पेचीदा भी है.
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मोदी के भाषण को अंतर्राष्ट्रीय डिप्लोमैटिक तरकीब से हट कर समझने की कोशिश करें तो अलग बात समझ में आती है. मई, 2014 से मोदी के प्रयासों पर गौर करना होगा. शपथ के साथ ही दक्षिण एशिया में शांति की पहल और उसके बाद से नवाज शरीफ से लगातार संपर्क बनाए रखना. कभी फोन पर तो कभी किसी सम्मेलन में अकेले बैठ कर बात करना. बार बार फोन पर बात करना - और यहां तक कि...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाल के भाषणों में दो बातों पर जोर दिखा - एक पाकिस्तानी अवाम को सलाह और दूसरा, भारतीय मुसलमानों को सफाई. स्वतंत्र भारत के इतिहास में ये पहला मौका रहा जब भारत के प्रधानमंत्री ने किसी दूसरे मुल्क की अवाम को सीधे संबोधित किया हो - और उन्हें अपने हुक्मरानों से सवाल करने की सलाह दे डाली हो. ये भी पहला ही मौका रहा जब पाकिस्तान के लोगों ने अमेरिका, रूस, ब्रिटेन या चीन नहीं बल्कि भारत के प्रधानमंत्री को इतने गौर से लाइव सुना हो - और रिएक्ट किया हो, खासकर मीडिया और सोशल मीडिया में.
पाकिस्तानी अवाम से
एक सहज सवाल है - मोदी ने पाकिस्तानी अवाम से सीधे बात करने की कोशिश क्यों की? क्या मोदी को लगा कि अवाम से संवाद ज्यादा असरदार रहेगा? या फिर ये सिर्फ डिप्लोमैटिक तरकीब है?
इसे डिप्लोमैटिक तरकीब के तौर पर वे लोग देख सकते हैं जो इसके वैश्विक प्रभाव का आकलन करना चाहें. निश्चित तौर पर ये दुनिया को ये मैसेज देने की कोशिश हो सकती है कि हम 18 जवानों को यूं ही गंवा देने के बावजूद युद्ध के कतई पक्षधर नहीं हैं. लेकिन हम चाहते हैं कि जवानों को शहादत के लिए मजबूर करने वालों को सजा जरूर मिले. लेकिन ये मुमकिन होगा तो कैसे? सवाल बड़ा तो है ही पेचीदा भी है.
इसे भी पढ़ें: पीएम मोदी ने जो कहा उसे कान खोल कर सुने पाकिस्तान और वहां की आवाम भी...
मोदी के भाषण को अंतर्राष्ट्रीय डिप्लोमैटिक तरकीब से हट कर समझने की कोशिश करें तो अलग बात समझ में आती है. मई, 2014 से मोदी के प्रयासों पर गौर करना होगा. शपथ के साथ ही दक्षिण एशिया में शांति की पहल और उसके बाद से नवाज शरीफ से लगातार संपर्क बनाए रखना. कभी फोन पर तो कभी किसी सम्मेलन में अकेले बैठ कर बात करना. बार बार फोन पर बात करना - और यहां तक कि बगैर किसी कार्यक्रम के बीच रास्ते बर्थडे विश करने लाहौर पहुंच जाना. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का पाकिस्तान जा कर नवाज शरीफ के पूरे परिवार से मिलना - लेकिन राजनाथ सिंह का बगैर लंच किये बेइज्जती का घूंट पीकर लौट आना. अगर किसी की कोई वैचारिक मजबूरी न हो तो इन प्रयासों को सामाजिक और व्यावहारिक तौर पर नाकाफी नहीं बताया जा सकता.
याद कीजिए एक इंटरव्यू में मोदी से जब पाकिस्तान से बात करने को लेकर सवाल हुआ तो उल्टे उनका सवाल था - बात किससे हो? आखिर किससे बात की जाए? मोदी तब भी समझाना चाहते थे और वे बातें अब भी दिखी.
दीन दयाल जी की सुनों, वो तुम्हारी... |
पाकिस्तान के स्कूलों पर आतंकवादी हमले को लेकर मोदी ने दुख जताया था, लेकिन नवाज ने ये समझाने की कोशिश की कि उरी बुरहान को मारे जाने का रिएक्शन हो सकता है. जब नवाज शरीफ को उरी में नींद में जवानों के टेंट में आग लगा दिये जाने का कोई अफसोस न हो तो भला क्या उम्मीद की जाए. यही वजह है कि तमाम हलकों में नवाज को पाकिस्तानी फौज या दहशतगर्दों के प्रवक्ता के तौर पर देखा गया.
फिर तो ठीक ही है. जब किसी मुल्क के हुक्मरान नॉन स्टेट ऐक्टर्स के माउथपीस बने फिर रहे हों, तो अवाम से भी बात करनी होगी. 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' जैसी बातें अवाम को भी याद दिलानी होगी. वरना, लोकतंत्र का मौजूदा मुखौटा कब उतर जाए और कोई नया जिया उल हक या परवेज मुशर्रफ कमान संभाल ले - कोई कह नहीं सकता.
भारतीय मुसलमान से
वक्त अपने हिसाब से चलता है, लेकिन अगर संभव होता तो बीजेपी दीन दयाल उपाध्याय की जन्मशती मौजूदा दौर के लिए आगे पीछे भी कर लेती. जेपी को सीजनल और अंबेडकर को पूरा वक्त देती आ रही बीजेपी के लिए दीन दयाल उपाध्याय इस वक्त सबसे ज्यादा प्रासंगिक हैं. खासतौर पर यूपी चुनाव के हिसाब से. यूपी चुनाव के हिसाब से देखें तो दीन दयाल उपाध्याय बीजेपी को थ्री-इन-वन पैकेज का कॉम्बो ऑफर दे रहे हैं. पहली बात तो यही कि दीन दयाल उपाध्याय उत्तर प्रदेश के रहे हैं. दूसरा, उनका ब्राह्मण होना. अपने ब्राह्मण वोट बैंक को मैसेज देने में दीन दयाल उपाध्याय का नाम बीजेपी को खूब सूट करता है. तीसरा - मुसलमानों के लिए दीन दयाल उपाध्याय को कोट करना.
मोदी कहते हैं, "दीनदयाल उपाध्यायजी ने कहा कि मुसलमानों को केवल वोट लेने का आधार नहीं समझा जाना चाहिए. उन्हें बराबर समझना चाहिए. उन्होंने 50 साल पहले कहा था मुस्लिमों को गाली मत दो, उन्हें इनाम मत दो. उन्हें मजबूत बनाओ.”
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कांग्रेस तो शुरू से ही यूपी में ब्राह्मण वोट पर फोकस कर रही है, मायावती ने भी एड़ी चोटी का जोर लगा रखा है. फिर तो बीजेपी इतना कोशिश जरूर करना चाहेगी कि लोक सभा में जो ब्राह्मण जिस किसी भी वजह से बीजेपी के साथ रहा विधानसभा चुनाव में भी साथ न छोड़े.
बिहार चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की सक्रियता को बीजेपी के प्रोपैगैंडा का ही हिस्सा माना गया - और ध्रुवीकरण की भी सारी कोशिशे नाकाम रहीं. असम में तो बीजेपी ने छाछ फूंक फूंक कर पिया ही - अब यूपी में तो लग रहा है वो रामदेव के पतंजलि ब्रांड वाले छाछ से भी बचने की कोशिश करेगी.
मनोविज्ञान का एक सिद्धांत है जिसे व्यवहार में अपनाने की सलाह दी जाती है - 'अगर किसी को कन्वींस न कर सको तो कन्फ्यूज करो.'
अगर मोदी के भाषणों के संदर्भ में इस सिद्धांत को समझने की कोशिश करें तो क्या लगता है? मोदी की बातों से पाकस्तानी अवाम और भारतीय मुसलमान कंवींस हो रहे होंगे या फिर दोनों ही कंफ्यूज हो रहे होंगे. देखें तो पाकिस्तानी अवाम के पास मोदी की बातों से न तो कंवींस होने का स्कोप है न कंफ्यूज होने के हालात. जहां तक भारतीय मुसलमान की बात है वो फिलहाल तो कंवींस नहीं होने वाला - और न ही कंफ्यूज होने वाला है.
जो भी हो. विपक्ष बार बार मोदी को गुजरात दंगों के लिए माफी मांगने के लिए उकसाता है - लेकिन मोदी ऐसा कभी नहीं करना चाहेंगे - क्योंकि इससे ब्रांड मोदी को खतरा हो सकता है.
जब भी बीजेपी मोदी के सॉफ्ट लांच की कोशिश करती है - कभी भरे मंच पर उनका टोपी पहनने से इंकार कर देता तो मुसलमानों के प्रति हमदर्दी जताने के मामले में उनके कुत्ते के बच्चे वाले बयान को खड़ा कर दिया जाता है.
चाहे वो भारतीय मुसलमान हों या फिर पाकिस्तानी अवाम - एक बात तो माननी पड़ेगी पाकिस्तान में जिस कदर मोदी को लाइव देखा गया - उससे राजनाथ को ब्लैकआउट किये जाने का दर्द कुछ तो कम हो ही गया होगा - बाकी असर की बात और है.
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