कश्मीर के अलगाववादी संगठनों से प्रेरित और पाकिस्तानी कूटनीतियों की षडयंत्रकारी मानसिकता से पोषित पत्थरबाजों के विरुद्ध आदिवासी युवाओं की आवाज राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण संदेश है. राष्ट्रीय आपदा के समय राष्ट्र की अस्मिता और गौरव की रक्षा के लिए अपने देशवासियों के लिए हम क्या कर सकते हैं, प्रगति और विकास के इन सोपानों में हमारी रचनात्मक और रक्षात्मक भूमिका क्या हो सकती है, इसका उत्कृष्ट उदाहरण देकर आदिवासी जनसामान्य ने देश के उन बड़े कर्णधारों को आईना दिखाया है जो मानवाधिकारों के नाम पर कश्मीर की आतंकवादी और अलगाववादी शक्तियों के साथ खड़े हैं, उनके पक्ष में बयानबाजी करते हैं.
आदिवासी बहुल झाबुआ जिले के युवाओं ने केंद्र सरकार को सुझाव दिया है कि वे पत्थरबाजों से निपटने के लिए आदिवासियों के पारंपरिक हथियार 'गोफन' का इस्तेमाल करें
कश्मीर में आतंक और अलगाव की जो आग फैली है उसके मूल में पूर्व की भारतीय सरकारों की उदारवादी नीतियां ही हैं. हमें विचार करना चाहिए कि कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देकर, धारा 370 के माध्यम से उन्हें अतिरिक्त सुविधाएं देकर, पिछले सत्तर वर्षों में देश की अपार धनराशि कश्मीरी अवाम पर व्यय करने के बाद भी हम उनके एक बड़े वर्ग की पाकिस्तान परस्त मानसिकता को बदल नहीं पाए. अनेक अलगाववादी शक्तियां नेशनल कान्फ्रेंस की छाया तले भारत विरोधी गतिविधियों को निरंतर संचालित करती रहीं. उन्होंने भारत को दुधारु गाय की तरह दुहा, लेकिन कभी उसे अपना नहीं माना. खून हमारा चूसा और वफादारी पाक्स्तिान से निभाई. हमारी सरकारें मूक दर्शक बनी देखती रह गईं और कश्मीर में पाकिस्तान परस्त भारत विरोधी गतिविधियां बढ़ती गईं.
कश्मीर से हिन्दुओं को अमानवीय यंत्रणाएं देकर पलायन के लिए विवश करना भारत विरोधी ताकतों की अलगाववादी रणनीति का हिस्सा था और अब कश्मीर से सैनिक नियंत्रण को हटाने के लिए की जा रही पत्थरबाजी भी ऐसा ही कूट प्रयत्न है. यह चिंताजनक है कि अलगाववादियों की भारत विरोधी गतिविधियों पर कश्मीर से भारत के पक्ष में स्वर क्यों नहीं उभरते ? कश्मीरी पंडितों के पलायन को रोकने का कोई सार्थक प्रयत्न कश्मीरी अवाम और वहां के नेताओं ने क्यों नहीं किया ? कश्मीर में बाढ़ आने पर अथवा अन्य संकट उपस्थित होने पर भारतीय सैनिक जान हथेली पर रखकर पूरे मनोयोग से उनकी सहायता करते हैं, उन्हें सुरक्षा देते हैं, लेकिन जब उन्हीं सैनिकों पर पत्थर फेंके जाते हैं तब कश्मीरी अवाम अपने तथाकथित भटके नौजवानों को सैनिकों पर पत्थर फेंकने से क्यों नहीं रोकता ? रोकना तो दूर, रोकने की बात तक नहीं की जाती. उल्टे फारूक अब्दुल्ला जैसे नेता सत्ता पाने के लिए पत्थरबाजों का समर्थन करते दिखाई देते हैं. यह क्यों न समझा जाये कि ऐसे लोगों की सहानुभूति और मौन स्वीकृति अपने पत्थरबाजों के साथ ही है ? इस स्थिति में उन्हें अतिरिक्त सुविधायें और संरक्षण दिये जाने का क्या अर्थ है?
राजनेताओं और कश्मीरी पत्थरबाजों की पैरवी करने वाले हमारे मानवाधिकारवादियों को यह भी विचार करना चाहिए कि क्या सेना में भर्ती होने पर सैनिक के मानवाधिकार समाप्त हो जाते हैं ? क्या सैनिकों को अपनी सुरक्षा करने और अपने ऊपर आक्रमण करने वालों के विरूद्ध शस्त्र प्रयोग का अधिकार नहीं होना चाहिए? आश्चर्य होता है कि पत्थरबाजों को रोकने-समझाने के लिए मानवाधिकारवादियों का भी कोई बयान सामने नहीं आता जबकि पत्थरबाजों के विरूद्ध होने वाले सैन्य-प्रयत्नों पर नए-नए सवाल उठाये जाते हैं?
अब यह अत्यावश्यक हो गया है कि हम आर-पार की लड़ाई लड़ें. सैनिकों का अपमान, उन पर पत्थर-प्रहार और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए की जा रही कार्यवाहियों में बाधा किसी भी कीमत पर सहन नहीं की जा सकती. पाकिस्तान परस्त अलगाववादी तत्त्व और उनके संरक्षक-समर्थक हमारे नहीं हो सकते. इन्हें चिन्हित किया जाना और इन पर कठोर नियंत्रण किया जाना आवश्यक है. जब तक दूसरों के मानवाधिकारों का हनन करने वालों, सैनिकों पर पत्थर फेंकने वालों के विरुद्ध कड़ी से कड़ी कार्यवाही नहीं होगी तब तक पत्थरबाजी बंद नहीं हो सकती. हमारी उदार नीतियों ने ही पत्थरबाजों को प्रोत्साहित किया है. उनकी संख्या बढ़ी है.
पत्थरबाजों को उनकी भाषा में उत्तर देने के लिए प्रस्तुत आदिवासी युवाओं की आत्म प्रस्तुति सराहनीय है, स्वागत के योग्य है. यह हमारी सच्ची राष्ट्रभक्ति और जागरुकता की भी सही साक्षी है. जहां वोट के लिए तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले कथित नेता और स्वयं को चर्चा में चमकाने के लिए उदारता की बातें करने बाले कथित बुद्धिजीवी राष्ट्रीय-हितों को ताक पर रखकर अलगाववादी ताकतों और पत्थरबाजों के पक्ष में बयानबाजी करके निराश करते हैं, वहां इन भील आदिवासियों की जनता-जनार्दनी जाग्रत चेतना राष्ट्रीय-सुरक्षा के पक्ष में नयी आशा और नये विश्वास की स्वर्णिम किरणें विकीर्ण करती है.
शरीर में चुभा हुआ कांटा निकालने के लिए कांटे की आवश्यकता होती है. लोहा ही लोहे को काट पाता है और विष का उपचार विष से ही संभव होता है. इन प्राकृतिक सिद्धान्तों के आधार पर ‘शठे शाठ्यम् समाचरेत्’ (जैसे को तैसा) की नीति अपनाते हुये पत्थरबाजों को उन्हीं की भाषा में उत्तर देना होगा. विश्वास है कि हमारे आदिवासी युवा अपने पारंपरिक हथियार ‘गोफन’ का उपयोग कर पत्थरबाजों का सही उपचार कर सकेंगे.
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