ज्योतिष की दुनिया में एक बाय-डिफॉल्ट डिस्क्लेमर लगा होता है - कर्म से किस्मत बनती और बिगड़ती है. ठीक वैसे ही - टीवी एड से हमारी जिंदगी सुधरती भी है - और बिखरती भी है. बात चाहे दो मिनट में भूख मिटाने की हो या फिर कुछ दिन गुजरात में गुजारने की.
आपके टूथपेस्ट में नमक नहीं है फिर तो बेकार है. फर्ज कीजिए नमक है और नीबू नहीं, फिर तो वो किसी काम का नहीं. बगैर नींबू के नमक सिर्फ फीका ही नहीं लगेगा - उसका असर भी 'स्लो' हो सकता है. चाहे वो टूथपेस्ट हो या साबुन.
वैसे भी सब कुछ फास्ट नहीं हो सकता अगर उसमें एक्शन न हो. ये एड फिल्में ही हैं जो दो मिनट में क्षुधा शांति के लिए किचन में और सेहत की दो बूंद के लिए पोलियो बूथ पर भेज दिया करती हैं.
'जहां सोच वहां शौचालय' विद्या बालन का ये जुमला इतना असरदार है कि दुल्हनें डंके की चोट पर बारात लौटा दे रही हैं. ताजा मामला बिहार से है. जब मैट्रिक पास दुल्हन को पता चलता है कि ससुराल में शौचालय नहीं है तो वो डोली में बैठने से ही इनकार कर देती है. पंचायत बुलाई जाती है, दुल्हन उसका भी फरमान नामंजूर कर देती है. थक हार कर पंचायत में प्रस्ताव लाना पड़ता है कि जब शौचालय बन जाए तब दूल्हा आकर विदाई करा सकता है.
मानना ही पड़ेगा. ऐसा होता है टीवी ऐड का असर. टीवी पर ब्रेक विज्ञापनों के लिए ही होते हैं. इन विज्ञापनों के जरिए हर ब्रांड परसेप्शन क्रिएट करता है - जिससे प्रोडक्ट की लोकप्रियता और उसके बाद घरों तक पहुंच बढ़ाई जा सके.
अब तो नेता और सियासी दल भी प्रोडक्ट बनने में गर्व महसूस करते दिखते हैं. खुद को बतौर ब्रांड पेश करते हैं और चाहते हैं कि उनका वोटर भी वैसे ही ट्रीट करे. पहुंच जितनी ज्यादा होगी, वोट उसी अनुपात में मिलेगा.
किसी भी ब्रांड की कामयाबी इसी बात पर निर्भर करती है कि वो कितना जल्दी अपने कंज्युमर से कनेक्ट हो पाता है. राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता भी आजकल इसी रास्ते पर चल रहे हैं. सही रास्ता दिखाने के लिए वो बेस्ट प्रोफेशनल को हायर करते हैं.
सपना, गरीबी...
ज्योतिष की दुनिया में एक बाय-डिफॉल्ट डिस्क्लेमर लगा होता है - कर्म से किस्मत बनती और बिगड़ती है. ठीक वैसे ही - टीवी एड से हमारी जिंदगी सुधरती भी है - और बिखरती भी है. बात चाहे दो मिनट में भूख मिटाने की हो या फिर कुछ दिन गुजरात में गुजारने की.
आपके टूथपेस्ट में नमक नहीं है फिर तो बेकार है. फर्ज कीजिए नमक है और नीबू नहीं, फिर तो वो किसी काम का नहीं. बगैर नींबू के नमक सिर्फ फीका ही नहीं लगेगा - उसका असर भी 'स्लो' हो सकता है. चाहे वो टूथपेस्ट हो या साबुन.
वैसे भी सब कुछ फास्ट नहीं हो सकता अगर उसमें एक्शन न हो. ये एड फिल्में ही हैं जो दो मिनट में क्षुधा शांति के लिए किचन में और सेहत की दो बूंद के लिए पोलियो बूथ पर भेज दिया करती हैं.
'जहां सोच वहां शौचालय' विद्या बालन का ये जुमला इतना असरदार है कि दुल्हनें डंके की चोट पर बारात लौटा दे रही हैं. ताजा मामला बिहार से है. जब मैट्रिक पास दुल्हन को पता चलता है कि ससुराल में शौचालय नहीं है तो वो डोली में बैठने से ही इनकार कर देती है. पंचायत बुलाई जाती है, दुल्हन उसका भी फरमान नामंजूर कर देती है. थक हार कर पंचायत में प्रस्ताव लाना पड़ता है कि जब शौचालय बन जाए तब दूल्हा आकर विदाई करा सकता है.
मानना ही पड़ेगा. ऐसा होता है टीवी ऐड का असर. टीवी पर ब्रेक विज्ञापनों के लिए ही होते हैं. इन विज्ञापनों के जरिए हर ब्रांड परसेप्शन क्रिएट करता है - जिससे प्रोडक्ट की लोकप्रियता और उसके बाद घरों तक पहुंच बढ़ाई जा सके.
अब तो नेता और सियासी दल भी प्रोडक्ट बनने में गर्व महसूस करते दिखते हैं. खुद को बतौर ब्रांड पेश करते हैं और चाहते हैं कि उनका वोटर भी वैसे ही ट्रीट करे. पहुंच जितनी ज्यादा होगी, वोट उसी अनुपात में मिलेगा.
किसी भी ब्रांड की कामयाबी इसी बात पर निर्भर करती है कि वो कितना जल्दी अपने कंज्युमर से कनेक्ट हो पाता है. राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता भी आजकल इसी रास्ते पर चल रहे हैं. सही रास्ता दिखाने के लिए वो बेस्ट प्रोफेशनल को हायर करते हैं.
सपना, गरीबी और धर्म - ये सियासत में सक्सेस के बेस्ट टूल माने जाते हैं. सियासत के बाजार में सपना सबसे टंच माल है. अगर सपनों को गरीबी से जोड़ दिया जाए और उसमें थोड़ा सा धर्म का तड़का लगा दिया जाए तो प्रोडक्ट हॉट हो जाता है. सफलता की सबसे कारगर तकनीक आजकल यही है.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल राजनीति में खूब एक्सपेरिमेंट करते हैं. केजरीवाल का नया टीवी एड भी इसी का नमूना है.
नए टीवी ऐड में केजरीवाल का गुणगान करती गृहणी |
केजरीवाल के नए टीवी एड में उन्हें नायक और मसीहा से लेकर पीड़ित तक बताने की कोशिश की गई है. किसी भी नेता का यही तीनों फॉर्म है जो अवाम को उससे जोड़ता है. ये नायक ही है जो उससे सपना दिखाता है. वही मुसीबत की घड़ी में मसीहा बन कर मदद के लिए आता है. वो अगर पीड़ित नजर आने लगे तो उसके लिए स्वाभाविक तौर पर सहानुभूति पैदा हो सकती है. इस विज्ञापन के जरिए बड़ी चालाकी से नायक, मसीहा और पीड़िता का मॉकटेल परोसा जा रहा है.
महंगाई से परेशान एक महिला सब्जी लेने जाती है. जब लौट कर घर आती है तो बिजली बिल देख कर उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता."केजरीवाल ने दिल्ली में भ्रष्टाचार खूब कम कर दिया और जो पैसे बचे, उससे हमारे बिजली के बिल कम कर दिए..."पति से बिल की बात शेयर करती है तभी उसकी निगाह टीवी पर चल रही बहस खींचती है."सब बेईमान इकट्ठे हो केजरीवाल के पीछे हाथ धोकर पड़ गए हैं."
फिर भगवान से प्रार्थना करती है. नजर थोड़ी देर के लिए ऊपर, फिर कैमरे पर होती है."रोज भगवान से दुआ मांगती हूं. हे भगवान, हमारे अरविंद को सलामत रखना."यहां भगवान ऊपर नहीं सामने है. वैसे भी ऊपर वाला तो सिर्फ सिक्योरिटी के मामले देखता है. वोट तो सामने वाले भगवान को ही देने पड़ते हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.