नोटबंदी को लेकर आपस में कुछ भी समझने या समझाने की जरूरत नहीं है, ये बात और है कि सरकार फिर भी समझाये जा रही है. सरकार को भी इसलिए समझाना पड़ रहा है क्योंकि फिलहाल वो कठघरे में खड़ी है. आरबीआई की रिपोर्ट आने के बाद साफ हो गया है कि नोटबंदी वो दवा साबित हुई जो किसी दूसरे रोग के लिए बनी थी और किसी और बीमारी में पिला दी गयी. ये कड़वी दवा भी सरकार ने वैसी ही मीठी मीठी बातें बनाकर पिलायी जैसे मां-बाप बच्चों को पिलाते हैं. लेकिन सरकार की नीयत बच्चों के मां बाप जैसी तो बिलकुल नहीं थी, वरना 100 से ज्यादा लोगों को बेमौत मरने की जरूरत नहीं पड़ती.
फिर भी जीत हमारी है...
8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी के एलान के वक्त जो मकसद बताया था, वो गुजरते वक्त को साथ बदलता गया. काले धन से कैशलेस होता हुआ आतंकवाद और नक्सलवाद के खात्मे को लेकर कुलांचे भरता रहा. आखिर में एक निहायत ही गलत फैसले को सही साबित करने की कवायद चल रही है.
नोटबंदी को सही साबित करने के लिए वैसे ही तर्क दिये जा रहे हैं जैसे फिल्म शोले में वीरू के विवाह प्रस्ताव के साथ उसके दोस्त जय ने मौसी के सामने रखे. फिल्म में तो जय ने मौसी से सिर्फ यही पूछा था - तो रिश्ता पक्का समझें मौसी? यहां तो सरकार दावा कर रही है - रिश्ता तो हमने पक्का कर दिया.
इंडिया टुडे के एडिटर्स राउंड टेबल प्रोग्राम में नीति आयोग के नये नवेले वाइस चेयरमैन राजीव कुमार ने भी सरकार के फैसले का वैसे ही बचाव किया जैसे आरबीआई की रिपोर्ट आने के बाद अरुण जेटली ने किया या फिर आने वाले 'अच्छे दिनों' में बाकी मंत्री और अफसर करेंगे. प्रधानमंत्री मोदी भी और कहीं नहीं तो मन की बात में तो समझाएंगे ही कि देश के लिए ऐसे मनभावन एक्सपेरिमेंट कितने...
नोटबंदी को लेकर आपस में कुछ भी समझने या समझाने की जरूरत नहीं है, ये बात और है कि सरकार फिर भी समझाये जा रही है. सरकार को भी इसलिए समझाना पड़ रहा है क्योंकि फिलहाल वो कठघरे में खड़ी है. आरबीआई की रिपोर्ट आने के बाद साफ हो गया है कि नोटबंदी वो दवा साबित हुई जो किसी दूसरे रोग के लिए बनी थी और किसी और बीमारी में पिला दी गयी. ये कड़वी दवा भी सरकार ने वैसी ही मीठी मीठी बातें बनाकर पिलायी जैसे मां-बाप बच्चों को पिलाते हैं. लेकिन सरकार की नीयत बच्चों के मां बाप जैसी तो बिलकुल नहीं थी, वरना 100 से ज्यादा लोगों को बेमौत मरने की जरूरत नहीं पड़ती.
फिर भी जीत हमारी है...
8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी के एलान के वक्त जो मकसद बताया था, वो गुजरते वक्त को साथ बदलता गया. काले धन से कैशलेस होता हुआ आतंकवाद और नक्सलवाद के खात्मे को लेकर कुलांचे भरता रहा. आखिर में एक निहायत ही गलत फैसले को सही साबित करने की कवायद चल रही है.
नोटबंदी को सही साबित करने के लिए वैसे ही तर्क दिये जा रहे हैं जैसे फिल्म शोले में वीरू के विवाह प्रस्ताव के साथ उसके दोस्त जय ने मौसी के सामने रखे. फिल्म में तो जय ने मौसी से सिर्फ यही पूछा था - तो रिश्ता पक्का समझें मौसी? यहां तो सरकार दावा कर रही है - रिश्ता तो हमने पक्का कर दिया.
इंडिया टुडे के एडिटर्स राउंड टेबल प्रोग्राम में नीति आयोग के नये नवेले वाइस चेयरमैन राजीव कुमार ने भी सरकार के फैसले का वैसे ही बचाव किया जैसे आरबीआई की रिपोर्ट आने के बाद अरुण जेटली ने किया या फिर आने वाले 'अच्छे दिनों' में बाकी मंत्री और अफसर करेंगे. प्रधानमंत्री मोदी भी और कहीं नहीं तो मन की बात में तो समझाएंगे ही कि देश के लिए ऐसे मनभावन एक्सपेरिमेंट कितने जरूरी होते हैं.
सरकार का बचाव तो करना ही है
बड़ी मुश्किल तो यही रही कि राजीव कुमार के सामने राजदीप सरदेसाई ने यक्ष प्रश्न रख दिया - क्या नोटबंदी उन मानदंड़ों पर खरा उतर पाया जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काला धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ महायज्ञ बताया था?
नीति आयोग के वाइस चेयरमैन का जवाब रहा - "पहली बार, आप देखिये कैपिटल और इक्विटी मार्केट विदेशी मुद्रा के आवक पर बिलकुल निर्भर नहीं है."
फिर उन्होंने नोटबंदी के तमाम फायदे भी गिनाये - "इसके चलते महंगाई कम हुई है. भ्रष्टाचार पर रोक लगी है. प्रॉपर्टी की कीमतें कम हो गयी हैं. और काले धन वालों पर लगाम कसी है."
संपादकों का सवाल था इतनी पीड़ा, सौ से ज्यादा बेगुनाहों की मौतें और पैसों के लिए लाइन में लगने की फजीहत से हासिल क्या हुआ, खासतौर पर काले धन के मामले में?
आरबीआई रिपोर्ट और आम जन की तकलीफों की मिसालें दिये जाने के बावजूद, राजीव के पास पहले से तैयार जवाब था - "पैसा फिलहाल न तो ब्लैक है, न व्हाइट - ये फिलहाल ग्रे है. अब तक जो रकम तकियों और गद्दों में छुपा कर रखी गयी थी वो कैपिटल मार्केट का हिस्सा बन चुकी है. अब सीबीआई और सीबीडीटी को अपना काम करना है."
पांच सवाल, पांच जवाब:
1. नोटबंदी की जरूरत को लेकर, राजीव कुमार बोले - "मैं शुरू से ही नोटबंदी का समर्थक रहा, तब भी जब ये आंकड़े सामने नहीं आये थे."
2. ये पूछने पर कि जितना 'पेन' हुआ, उसके मुकाबले कितना 'गेन' हुआ, जवाब रहा - "मालूम नहीं ये किस तरह की बातें हैं, कुछ अटकलबाजियां हैं जिनमें जीडीपी में एक फीसदी या आधा फीसद की गिरावट जैसी बातें हैं, लेकिन वो मामूली बातें हैं."
3. महंगाई कम होने के साथ घर सस्ते हो गये हैं - और अब तो नव-मध्य वर्ग के लिए भी घर खरीदना आसान हो गया है.
4. पहली बार देश की इकोनॉमी में व्यापक स्तर पर पारदर्शिता देखने को मिल रही है.
5. माना कि आरबीआई को वो सब नहीं मिला जिसकी अपेक्षा रही, लेकिन काले धन का मामला कम तो हो ही गया है.
नीति आयोग के मुखिया को ऐसे सवालों से भी दो-चार होना पड़ा जिसे उन्होंने टाल जाना ही बेहतर समझा, मसलन - नोटबंदी के फैसले और यूपी चुनावों में भी कोई संबंध रहा या नहीं?
नोटबंदी का फैसला किसका?
नोटबंदी लागू होने के बाद से ही अक्सर ये सवाल उठता रहा कि आखिर ये फैसला किसका था? सरकार का या फिर रिजर्व बैंक का? तब रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन रहे. सरकारी बयानों से हमेशा इस मामले में कंफ्यूजन बना रहा. एडिटर्स राउंड टेबल में शामिल इकनॉमिक अफेयर्स सेक्रेट्री सुभाष गर्ग से जब ये सवाल पूछा गया तो उनका जवाब धा - "नोटबंदी का फैसला सरकार का फैसला था. हां, आरबीआई से इस बारे में कंसल्ट किया गया था."
इकनॉमिक अफेयर्स सेक्रेट्री अभी ज्यादा कुछ बोल पाते कि राजीव कुमार हस्तक्षेप कर खुद गोलमोल जवाब देना शुरू कर दिया. राजीव कुमार ने ऐसे समझाने की कोशिश की कि आरबीआई गवर्नर और सरकार कोई अलग अलग तो हैं नहीं. समझाया, आखिर गवर्नर की नियुक्ति करती तो सरकार ही है.
...और लेटेस्ट अपडेट
काले धन के मामले में लेटेस्ट अपडेट ये है कि स्विट्जरलैंड भारत की मदद करने के लिए तैयार हो गया है. दरअसल, स्विट्जरलैंड और भारत के बीच सूचनाओं के ऑटोमेटिक एक्सचेंज पर समझौता हुआ है. स्विट्जरलैंड की राष्ट्रपति डोरिस लिउथर्ड और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसे कई समझौतों पर हस्ताक्षर किये हैं. इसके तहत 2019 से पहले काला धन, विदेश में जमा रकम और स्विट्जरलैंड में संपत्ति की खरीददारी से जुड़ी सूचनाओें की अदला बदली शुरू हो जाएगी.
फिर भी सवाल वहीं का वहीं है - स्विट्जरलैंड सूचना देने को तैयार तो हो गया है, लेकिन क्या काला धन वास्तव में भारत वापस आ पाएगा?
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