मुझे खुशी है कि नीतीश कुमार बीजेपी की बाहों में वापस लौट आये, लेकिन इसलिए नहीं कि मुझे उनका इतना ख्याल है, बल्कि इसलिए कि दो दिलों के मिलने का सुखांत देखते अच्छा लगता है. कला जिंदगी को आईना दिखाती है. राज और सिमरन का मिलन तय था. अब तक आप दो आशिकों की लड़ाई का मजा लेते रहे, अब उनके मिलन गीत का भी थोड़ा आनंद लीजिए.
मेरी खुशी की एक वजह ये भी है बैठे बैठे भविष्यवाणियां करने वाले विशेषज्ञों के मन में अप्रासंगिक होने की छटपटाहट से भी खुश हूं. अब ये राज की बात नहीं रही कि जिन्हें ऑब्जर्वर समझा जाता रहा उन्होंने गुजरते वक्त के साथ मोदी की अगुवाई वाले एनडीए और नेतृत्वविहीन यूपीए में से एक को चुना और पाला बदल लिया. जो भी गुणा-गणित में गहराई से डूबना चाहेंगे उन्हें भावनाओं के उफान से भी तो दो चार होना ही पड़ेगा. बस, बंद कीजिए, बहुत हो गया.
अब ये क्या बात हुई कि मान कर चला जाये कि किसी एक पार्टी को लोगों को मूर्ख बनाने का नैसर्गिक अधिकार मिला हुआ है? आखिर कोई गठबंधन क्यों न बदले और क्यों न सत्ता में हिस्सेदारी ले? सबका साथ, सबका विकास. किसी की भौंहें इस पर क्यों नहीं चढ़तीं जब लालू प्रसाद के नाबालिक बच्चों के दिल्ली में प्लॉट और फॉर्महाउस खरीदने पर किसी की भौंहें क्यों नहीं चढ़तीं, जैसे हेराफेरी का ठेका उन्हीं के पास हो और ये बिलकुल स्वाभाविक हो. लेकिन लालू के बेटों से निजात पाने की कोशिश और नीतीश के गठबंधन तोड़ देने पर हर कोई हैरान है.
काबिलों की उस जमात को ऐसा क्यों लगता है कि उन्हें धकिया दिया गया और वे कहीं के नहीं रहे. उनके चश्मे ने दिखाया तो वही जो वे देखना चाहते थे. वैसे भी उनके चश्मे पर एंटी-ग्लेयर की खास परत चढ़ी हुई है. भारतीय राजनीति को किस रंग में रंगा होना चाहिये ये भी उन्होंने पहले से...
मुझे खुशी है कि नीतीश कुमार बीजेपी की बाहों में वापस लौट आये, लेकिन इसलिए नहीं कि मुझे उनका इतना ख्याल है, बल्कि इसलिए कि दो दिलों के मिलने का सुखांत देखते अच्छा लगता है. कला जिंदगी को आईना दिखाती है. राज और सिमरन का मिलन तय था. अब तक आप दो आशिकों की लड़ाई का मजा लेते रहे, अब उनके मिलन गीत का भी थोड़ा आनंद लीजिए.
मेरी खुशी की एक वजह ये भी है बैठे बैठे भविष्यवाणियां करने वाले विशेषज्ञों के मन में अप्रासंगिक होने की छटपटाहट से भी खुश हूं. अब ये राज की बात नहीं रही कि जिन्हें ऑब्जर्वर समझा जाता रहा उन्होंने गुजरते वक्त के साथ मोदी की अगुवाई वाले एनडीए और नेतृत्वविहीन यूपीए में से एक को चुना और पाला बदल लिया. जो भी गुणा-गणित में गहराई से डूबना चाहेंगे उन्हें भावनाओं के उफान से भी तो दो चार होना ही पड़ेगा. बस, बंद कीजिए, बहुत हो गया.
अब ये क्या बात हुई कि मान कर चला जाये कि किसी एक पार्टी को लोगों को मूर्ख बनाने का नैसर्गिक अधिकार मिला हुआ है? आखिर कोई गठबंधन क्यों न बदले और क्यों न सत्ता में हिस्सेदारी ले? सबका साथ, सबका विकास. किसी की भौंहें इस पर क्यों नहीं चढ़तीं जब लालू प्रसाद के नाबालिक बच्चों के दिल्ली में प्लॉट और फॉर्महाउस खरीदने पर किसी की भौंहें क्यों नहीं चढ़तीं, जैसे हेराफेरी का ठेका उन्हीं के पास हो और ये बिलकुल स्वाभाविक हो. लेकिन लालू के बेटों से निजात पाने की कोशिश और नीतीश के गठबंधन तोड़ देने पर हर कोई हैरान है.
काबिलों की उस जमात को ऐसा क्यों लगता है कि उन्हें धकिया दिया गया और वे कहीं के नहीं रहे. उनके चश्मे ने दिखाया तो वही जो वे देखना चाहते थे. वैसे भी उनके चश्मे पर एंटी-ग्लेयर की खास परत चढ़ी हुई है. भारतीय राजनीति को किस रंग में रंगा होना चाहिये ये भी उन्होंने पहले से तय कर रखा है. मोदी-नीतीश की जुगलबंदी तो नीतीश के सत्ता संभालने के फौरन बाद ही शुरू हो गयी थी और उन्हें अहसास हुआ कि वे उतने ताकतवर नहीं थे जितने नयी व्यवस्था में हैं.
लालू, सुशील मोदी तो हैं नहीं, जिन्हें सिर्फ अपने काम से ही मतलब होता. लालू ने नीतीश के मंत्रिमंडल में अपने दोनों लाल बैठा दिये जो युवराजों की तरह पेश आने लगे क्योंकि वे थे तो वही. सुशील मोदी हर दूसरे दिन पटना में दोनों युवराजों के भ्रष्टाचार और नये साम्राज्य के दस्तावेज पेश करते रहे. आपको क्या लगता है वे दस्तावेज कहां से आते थे? नीतीश कुमार अरसे से इसकी जमीन तैयार कर रहे थे. इसलिए जाइए और समझते रहिये कि ये सब रातों रात हो गया.
हालांकि, गढ़े जा रहे नये मुहावरे और नीतीश के खिलाफ हो रही बातें मुझे अजीब लगती हैं जिनका राजनीति में कोई खास मायने नहीं. नीतीश पर मौकापरस्ती के आरोप लगाये जा रहे हैं. अगर मौका दरवाजे पर दस्तक दे रहा हो तो दस्तूर क्या कहता है? नीतीश ने वही तो किया है.
राहुल गांधी का कहना है कि सिद्धांतविहीन अवसरवाद भारतीय राजनीति का हॉलमार्क बन चुका है. सही पकड़े हैं. यही राजनीति की हकीकत है, लेकिन सिर्फ भारतीय राजनीति की नहीं. कांग्रेस कहती है कि नीतीश बीजेपी के खिलाफ लड़े थे इसलिए उन्हें उसके साथ सरकार नहीं बनानी चाहिये. कांग्रेस ने कितनी बार ऐसा करके दिखाया है? केंद्र में भी और राज्यों में भी?
राजनीति का मकसद ही सत्ता हासिल करना और जितना लंबा हो सके उस पर काबिज रहना होता है. बगैर सत्ता के समाजसेवा एनडीओ चलाने जैसा ही है. एनडीओ का अर्थ ही गैर-सरकारी संगठन है जबकि राजनीति का मतलब ही सत्ता में हिस्सेदारी होना है.
नीतीश ने एक सरकार की अगुवाई कर रहे थे और बस इतना चाहते थे कि वो सत्ता में बने रहें. आरजेडी जैसे सहयोगी के साथ निभाना मुश्किल हो रहा था इसलिए उन्होंने पार्टनर बदल लिया. अगर आपको नैतिकता की इतनी परवाह हो तो कोई और काम तलाश लें, लेकिन ये जरूर सुनिश्चित कर लें कि वो राजनीति न हो.
सुविधाभोगी काबिल लोग साबित करने पर तुले रहते हैं कि बिहार में नीतीश का कोई जनाधार नहीं है. मान लेते हैं, लेकिन कोई बताएगा कि आखिर क्यों लालू, कांग्रेस या बीजेपी ही क्यों न हो, हर गठबंधन नीतीश को ही मुख्यमंत्री क्यों बनाना चाहता है?
पूरे सूबे में जाति और वर्ग के बंधनों से इतर, उस शख्स की साख ही उसका मजबूत जनाधार है. वो मसीहा माने जाने वाले लालू से कहीं अधिक लोकप्रिय है. आगे की बात और है, लेकिन बीजेपी के साथ 17 साल के गठबंधन के बाद भी उस व्यक्ति की लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ा ही है.
जो लोग नीतीश पर अपनी बात और वादों से मुकरने का इल्जाम लगा रहे हैं उन्हें एक बात जरूर याद रहे - नीतीश राजनीतिज्ञ हैं. नेता अपनी बातों से बुरे से बुरे दौर में भी पीछे हट जाते हैं. ये बात नीतीश पर क्यों नहीं लागू होती. आप उन पर बिहार के जनादेश से धोखा और लोगों की इच्छा के खिलाफ जैसे आरोप लगा सकते हैं, लेकिन बिहार के लोगों के पास उनके सही आकलन का ये एक बड़ा मौका है.
हो सकता है वे ऐसा न करें? दो दशक तक तो उन्होंने लालू को भी न जांचा न परखा. उनकी पसंद वे जानें! नीतीश ने मोदी को क्यों चुना? ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने कभी लालू को चुना था. ये उनकी इच्छा है! ये सब उन्हें ठीक लगता है. बंद कीजिए ये मातम. कुछ भी खत्म नहीं हुआ है, सिवा उसके जिसे आप इज्जत कहें या फिर उसे आपका ईगो समझा जाये. मजे लो जब तक ये यूं ही चल रहा है क्योंकि मुश्किलें और भी हैं जो माकूल मौके की ताक में बैठी हैं.
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