बिहार में जिस तेजी से सियासी गतिविधियां चल रही थीं, वो प्रकाश झा की फिल्म राजनीति की पटकथा को भी पीछे छोड़ दे रही थीं. पटना में बैठे बैठे नीतीश कुमार सबसे तेज निकले. जब उन्हें लालू की तख्तापलट की साजिश की सूचना मिली, उन्होंने अपने सूत्रों से कंफर्म किया. फिर ये लगा कि कहीं पार्टी बचाना भी मुश्किल न हो जाये तो फौरन शपथ लेकर कुर्सी पर काबिज हो गये. जैसे तैसे नीतीश ने कुर्सी और पार्टी तो बचा ली, लेकिन आगे की लड़ाई काफी दुरूह है - और बीजेपी से भी रिश्ता लालू की ही तरह 'बेर-केर' से ज्यादा अलग नहीं रहने वाला है.
ताकि पार्टी सलामत रहे
खबरें बताती हैं कि जैसी उठापटक मची थी अगर नीतीश ब्रह्मास्त्र नहीं चलते और ऐसी तेजी नहीं दिखाते तो पक्का था लालू प्रसाद जेडीयू को तोड़ देते. इस बात की पुष्टि जेडीयू की मीटिंग में भी देखने को मिलती रही. तेजस्वी यादव के समर्थक जेडीयू विधायक उनके खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे. जेडीयू में ऐसे विधायकों की संख्या करीब डेढ़ दर्जन बतायी जा रही है. इनमें से ज्यादातर यादव और मुस्लिम विधायक हैं.
यही वजह रही कि नीतीश ने शपथग्रहण में भी जल्दबाजी दिखायी. बड़ा दल होने के नाते राज्यपाल तेजस्वी की दावेदारी को तरजीह देते. सत्ता के लिए तो कुछ भी संभव है. जब सामने सत्ता हो और मन में बिरादरी का मोह तो सिद्धांत पीछे छूट ही जाते हैं. जेडीयू में टूट निश्चित थी. देखा भी गया कि किस तरह शरद यादव और अली अनवर जैसे सीनियर नेताओं ने नीतीश के फैसले का आगे आकर विरोध किया.
बहरहाल, अब तो मोदी के दोबारा बधाई वाले ट्वीट के बाद खबर ये भी आ गई है कि जेडीयू कोटे से केंद्रीय कैबिनेट में दो मंत्री शामिल हो सकते हैं - और उनमें से एक शरद यादव तो होंगे ही, ये भी पक्का...
बिहार में जिस तेजी से सियासी गतिविधियां चल रही थीं, वो प्रकाश झा की फिल्म राजनीति की पटकथा को भी पीछे छोड़ दे रही थीं. पटना में बैठे बैठे नीतीश कुमार सबसे तेज निकले. जब उन्हें लालू की तख्तापलट की साजिश की सूचना मिली, उन्होंने अपने सूत्रों से कंफर्म किया. फिर ये लगा कि कहीं पार्टी बचाना भी मुश्किल न हो जाये तो फौरन शपथ लेकर कुर्सी पर काबिज हो गये. जैसे तैसे नीतीश ने कुर्सी और पार्टी तो बचा ली, लेकिन आगे की लड़ाई काफी दुरूह है - और बीजेपी से भी रिश्ता लालू की ही तरह 'बेर-केर' से ज्यादा अलग नहीं रहने वाला है.
ताकि पार्टी सलामत रहे
खबरें बताती हैं कि जैसी उठापटक मची थी अगर नीतीश ब्रह्मास्त्र नहीं चलते और ऐसी तेजी नहीं दिखाते तो पक्का था लालू प्रसाद जेडीयू को तोड़ देते. इस बात की पुष्टि जेडीयू की मीटिंग में भी देखने को मिलती रही. तेजस्वी यादव के समर्थक जेडीयू विधायक उनके खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे. जेडीयू में ऐसे विधायकों की संख्या करीब डेढ़ दर्जन बतायी जा रही है. इनमें से ज्यादातर यादव और मुस्लिम विधायक हैं.
यही वजह रही कि नीतीश ने शपथग्रहण में भी जल्दबाजी दिखायी. बड़ा दल होने के नाते राज्यपाल तेजस्वी की दावेदारी को तरजीह देते. सत्ता के लिए तो कुछ भी संभव है. जब सामने सत्ता हो और मन में बिरादरी का मोह तो सिद्धांत पीछे छूट ही जाते हैं. जेडीयू में टूट निश्चित थी. देखा भी गया कि किस तरह शरद यादव और अली अनवर जैसे सीनियर नेताओं ने नीतीश के फैसले का आगे आकर विरोध किया.
बहरहाल, अब तो मोदी के दोबारा बधाई वाले ट्वीट के बाद खबर ये भी आ गई है कि जेडीयू कोटे से केंद्रीय कैबिनेट में दो मंत्री शामिल हो सकते हैं - और उनमें से एक शरद यादव तो होंगे ही, ये भी पक्का माना जा रहा है.
2019 या 2020?
नीतीश के सामने अब सवाल है कि वो आगे की रणनीति 2019 के हिसाब से बनायें कि 2020 को ध्यान में रख कर. 2019 से आशय नीतीश की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी या कम से कम लोक सभा में जेडीयू सांसदों की संख्या से है. उसमें भी अभी दो साल का वक्त बाकी है और किसी भी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. इस्तीफे के बाद नीतीश ने कहा कि लालू से कोई संवादहीनता नहीं थी. यानी आगे भी मौके के हिसाब से सिद्धांतों की दुहाई देने की अलग परिभाषा गढ़ी जा सकती है. नीतीश ने पहले ही इतनी गुंजाइश कर रखी है. राहुल के धोखेबाजी के आरोप पर नीतीश ने यही कहा है कि वक्त आने पर सबको जवाब देगें. यानी सही वक्त आने पर सही जवाब तैयार होगा.
2019 में अगर प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी न सही तो नीतीश के सामने सीटों के बंटवारे की चुनौती होगी. महागठबंधन में नीतीश की इतनी तो चलती ही थी कि जेडीयू के साथ साथ वो कांग्रेस को भी ज्यादा सीटें दिला देने में सक्षम रहे. क्या एनडीए में बीजेपी नीतीश को इतनी छूट देगी? कहना मुश्किल है. अगर नीतीश छवि की दुहायी देना चाहेंगे तो बीजेपी कह सकती है कि मोदी से बड़ी उनकी छवि तो है नहीं. फिर तो बीजेपी जो भी बख्श दे नीतीश को उसी में संतोष करना पड़ेगा. शायद वैसे ही जैसे यूपी में समाजवादी पार्टी कांग्रेस को सीटें देते समय पेश आ रही थी.
इसी तरह 2020 के विधान सभा चुनाव में भी नीतीश के लिए मुश्किल घड़ी होगी. लालू ने तो महागठबंधन के दबाव में नीतीश को नेता घोषित कर दिया था, क्या बीजेपी भी नीतीश को ये मौका देगी. वैसे इस पर तस्वीर 2019 के बाद ही साफ हो पाएगी - क्योंकि अभी तक तो मोदी की गाड़ी ग्रीन कॉरिडोर से ही गुजर रही है. तब तक अगर नीतीश प्रभावी रहे तो बीजेपी समझौता कर सकती है वरना, अगर पंजाब जैसी प्रतिकूल परिस्थिति नहीं रही तो नेता वही होगा जिसकी सीटें ज्यादा होंगी - और इस पर सहमति के बगैर बात आगे बढ़ेगी ही नहीं. बतौर मिसाल बीजेपी का महाराष्ट्र फॉर्मूला भी याद रखा जाना चाहिये.
एनडीए में नीतीश की नयी पारी कब तक?
महागठबंधन में लालू और नीतीश एक दूसरे के पूरक बन रहे थे. लालू का निवेश जातीय जनाधार और मुस्लिम समर्थन है तो नीतीश के पास सरमाया उनकी छवि है जिसमें सुशासन का तड़का लगा रहता है. ये दोनों मिलकर बीजेपी को बिहार में घुसने नहीं दे रहे थे, लेकिन मौके की ताक में बैठी बीजेपी ने सेंध लगा ही लिया. अब नयी कुश्ती शुरू होगी.
वैसे बीजेपी अगर कोई बहुत बड़ा ख्वाब देख रही है तो फिलहाल तो ये हवाई किला ही होगा. जनाधार के मामले में अगर नीतीश कमजोर हैं तो बीजेपी के पास भी मोदी लहर के अलावा कोई और बड़ा वजूद नहीं है.
भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे लालू प्रसाद अब 68 के हो चुके हैं. चारा घोटाले में उन्हें हर हफ्ते रांची अप डाउन करना पड़ रहा है. लालू के राजनीतिक वारिस तेजस्वी यादव भी सीबीआई जांच के घेरे में हैं. लालू की बेटी मीसा भी कानूनी शिकंजे में वैसे ही फंसी हुई हैं.
अगर बीजेपी ये सोच रही है कि लालू पूरी तरह खत्म हो चुके हैं तो ये सही आकलन भी नहीं है. लालू के वोट बैंक पर न तो फिलहाल कोई फर्क पड़ा है और न ही दो-तीन साल बाद पड़ने वाला है. अपने वोट बैंक के बीच लालू प्रसाद अब भी सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ धर्म निरमेक्ष ताकतों के बीच की धुरी बने हुए हैं. अब धुरी कमजोर पड़ चुकी है या मजबूत चुनावों में ही पता चलेगा.
वैसे लालू ने अपने फेसबुक पोस्ट में नीतीश को फिर से चुनाव मैदान में उतरने की चुनौती दी है, "अगर नीतीश को अपनी नैतिकता, ईमानदारी और छवि की पूंजी पर इतना ही घमंड है तो फिर से चुनाव के मैदान में आना चाहिए. पता चल जाएगा नैतिकता का तकाजा क्या कह रहा है? बीजेपी के खिलाफ वोट मिला और उसी बीजेपी की सरकार बना रहे हो. ये सब ढोंग मत करिए, मैदान में आइये."
कानूनी पाबंदी के चलते लालू चुनाव भले न लड़ पायें, कानूनी शिकंजे के चलते भले ही फिर से जेल जाना पड़े लेकिन उनका वोट बैंक तब तक सुरक्षित है जब तक उसमें मुलायम परिवार की तरह वर्चस्व की लड़ाई नहीं छिड़ जाती.
बीजेपी के साथ नीतीश का ताजा रिश्ता भी 'बेर-केर-संग' से ज्यादा अलग नहीं होगा. सच तो ये है कि एनडीए में नीतीश की ये पारी तब तक चलती रहेगी जब तक उन्हें अच्छे से सूट करती रहेगी.
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