कैसा होता अगर राजनीति में भी क्रिकेट की तरह रिकॉर्ड दर्ज किये जाते. ऐसा होता तो अरविंद केजरीवाल के नाम सबसे ज्यादा रिकॉर्ड दर्ज होते. क्रिकेट और राजनीति में एक ही बात कॉमन - कुछ भी निश्चित नहीं होता. हर बात अनिश्चित होती है.
केजरीवाल हर अनिश्चित को निश्चित में तब्दील करने की कोशिश करते हैं. मगर, हर बार कामयाबी मिले जरूरी भी तो नहीं.
वे 49 दिन
पिछली बार अरविंद केजरीवाल 49 दिन में ही इस्तीफा देकर भाग खड़े हुए. वो अपने समर्थकों को ये समझाने में भी कामयाब रहे कि विरोधी उनके सपनों का कत्ल करने पर आमादा हैं. सपना वही जो उन्होंने अन्ना हजारे और सिविल सोसायटी के साथ देखे थे और पूरे देश को दिखाया था - जन लोकपाल लाने का.
जब सरकार बना ली तो पता चला लोकपाल को हकीकत में बदलना दिल्ली सरकार के लिए तो मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. फिर क्या था मौका देखते ही इस्तीफा देकर निकल लिये.
तभी उनकी नजर बनारस पर पड़ी. दिल्ली में शीला दीक्षित को शिकस्त देने के जोश से भरपूर अरविंद केजरीवाल नरेंद्र मोदी से जा भिड़े. मोदी में शायद उन्हें शीला का अक्स दिखा होगा. पहले तो उन्हें लगा कि जैसे मोदी बाहरी वैसे वो खुद भी बाहरी. टक्कर बराबरी की रहेगी. लोगों को समझा लिये तो चुनाव जीता भी जा सकता है. मगर, बनारस में सबकी दाल कहां गलने वाली. वहां बीजेपी ने जिसे भेजा उसी को सिर पर बिठा लिया. जब श्रीशचंद्र दीक्षित और मुरली मनोहर जोशी को लोक सभा भेज ही दिया तो मोदी को कैसे न भेजते. केजरीवाल को बहुत बाद में पता चला कि ये तो एरर-ऑफ-जजमेंट हो गया.
इसे भी पढ़ें - वीडियो: केजरीवाल का एक गाना जो वायरल नहीं हुआ!
जब दिल्ली में विधानसभा चुनाव होने को हुए तो घूम घूम कर माफी मांगी. भूल सुधार का मौका तो सबको मिलना ही चाहिए. लोगों ने...
कैसा होता अगर राजनीति में भी क्रिकेट की तरह रिकॉर्ड दर्ज किये जाते. ऐसा होता तो अरविंद केजरीवाल के नाम सबसे ज्यादा रिकॉर्ड दर्ज होते. क्रिकेट और राजनीति में एक ही बात कॉमन - कुछ भी निश्चित नहीं होता. हर बात अनिश्चित होती है.
केजरीवाल हर अनिश्चित को निश्चित में तब्दील करने की कोशिश करते हैं. मगर, हर बार कामयाबी मिले जरूरी भी तो नहीं.
वे 49 दिन
पिछली बार अरविंद केजरीवाल 49 दिन में ही इस्तीफा देकर भाग खड़े हुए. वो अपने समर्थकों को ये समझाने में भी कामयाब रहे कि विरोधी उनके सपनों का कत्ल करने पर आमादा हैं. सपना वही जो उन्होंने अन्ना हजारे और सिविल सोसायटी के साथ देखे थे और पूरे देश को दिखाया था - जन लोकपाल लाने का.
जब सरकार बना ली तो पता चला लोकपाल को हकीकत में बदलना दिल्ली सरकार के लिए तो मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. फिर क्या था मौका देखते ही इस्तीफा देकर निकल लिये.
तभी उनकी नजर बनारस पर पड़ी. दिल्ली में शीला दीक्षित को शिकस्त देने के जोश से भरपूर अरविंद केजरीवाल नरेंद्र मोदी से जा भिड़े. मोदी में शायद उन्हें शीला का अक्स दिखा होगा. पहले तो उन्हें लगा कि जैसे मोदी बाहरी वैसे वो खुद भी बाहरी. टक्कर बराबरी की रहेगी. लोगों को समझा लिये तो चुनाव जीता भी जा सकता है. मगर, बनारस में सबकी दाल कहां गलने वाली. वहां बीजेपी ने जिसे भेजा उसी को सिर पर बिठा लिया. जब श्रीशचंद्र दीक्षित और मुरली मनोहर जोशी को लोक सभा भेज ही दिया तो मोदी को कैसे न भेजते. केजरीवाल को बहुत बाद में पता चला कि ये तो एरर-ऑफ-जजमेंट हो गया.
इसे भी पढ़ें - वीडियो: केजरीवाल का एक गाना जो वायरल नहीं हुआ!
जब दिल्ली में विधानसभा चुनाव होने को हुए तो घूम घूम कर माफी मांगी. भूल सुधार का मौका तो सबको मिलना ही चाहिए. लोगों ने माफ भी कर दिया. 70 में 67 मार्क्स के साथ माफी, ग्रेट!
पांच साल केजरीवाल में से अभी सवा साल ही बीते हैं. जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी विदेश यात्राओं पर होते हैं उसी तरह केजरीवाल भी पंजाब से लेकर गोवा तक एक किये हुए हैं.
अचानक केजरीवाल एक बार फिर फंसा हुआ महसूस कर रहे हैं. केजरीवाल के स्पेशल-21 को राष्ट्रपति से मंजूरी नहीं मिल पाई है, स्वाभाविक है.
स्पेशल-21 का केस
मार्च 2015 में केजरीवाल सरकार ने अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया. केजरीवाल के इस कदम पर सवाल तो तब भी उठे थे, लेकिन उनसे नजरअंदाज कर दिया गया.
नियमों के मुताबिक दिल्ली मंत्रिमंडल में कुल सात सदस्य हो सकते हैं. एक मुख्यमंत्री और छह मंत्री.
स्पेशल-21 का पेंच... |
छप्पर फाड़ कर अगर कुछ मिल जाये तो जरूरी नहीं कि सब अच्छा अच्छा ही रहेगा. उसके साथ मुसीबतों का बोनस भी मिलता है. जो भी पार्टी राज्यों की सत्ता में आती है तो उसके हर विधायक मंत्री बनना चाहते हैं. लेकिन हर किसी को मंत्री बनाना संभव नहीं होता, इसलिए उन्हें किसी आयोग का या उसी तरह कोई सलाहकार बना कर वैसी सुविधाएं दे दी जाती हैं. केजरीवाल के सामने भी ये समस्या आई होगी, स्वाभाविक भी है. जो इतनी मेहनत से चुनाव जीत कर आए उन्हें किसी न किसी रूप में एडजस्ट करना ही होता है.
ये समस्या क्या होती है ये कोई उन मुख्यमंत्रियों के दिल से पूछे जिनके विधायक मंत्री बनने खातिर हर वक्त पाला बदलने को तैयार दिखते हैं. अरुणाचल प्रदेश इसकी ताजा मिसाल है. उत्तराखंड में हरीश रावत बाल बाल बचे हैं - और मेघालय, मिजोरम जैसे राज्यों में हर वक्त कुर्सी पर तलवार लटकी हुई नजर आती है.
सवाल ये है कि जब केजरीवाल ने विधायकों को संसदी सचिव बनाया तो क्या उन्हें नियमों की जानकारी नहीं थी. ऐसा तो हो नहीं सकता. और अगर ऐसा रहा तो वो ये कह कर बच भी नहीं सकते.
अगर नियुक्ति सही थी तो फिर केजरीवाल सरकार को विधेयक लाने की जरूरत क्यों पड़ी? विधेयक लाने की जरूरत पड़ी तो इसका मतलब है कि नियुक्ति सही नहीं थी.
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अब केजरीवाल का कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी न काम करते हैं न करने देते हैं. काम नहीं करते ये आरोप लगाने का उनका लोकतांत्रिक हक है, लेकिन वो ऐसा काम करने नहीं देते इस बात को केजरीवाल जायज कैसे ठहरा सकते हैं.
प्रधानमंत्री को कायर और मनोरोगी बोल कर केजरीवाल भले ही कानूनी छूट पा जाएं लेकिन नियमों के विरुद्ध स्पेशल-21 के गठन को वो किस आधार पर सही ठहरा सकते हैं.
केजरीवाल और उनके साथी मीडिया में आकर दहाड़ सकते हैं या फिर बिलख बिलख कर रो सकते हैं. चुनाव आयोग के सामने अपनी दलीलें पेश कर सकते हैं. मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं, लेकिन स्पेशल-21 को तब तक सही नहीं ठहरा सकते जब तक कि केंद्र सरकार उसके लिए राष्ट्रपति से सिफारिश करे - और ऐसा हो पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.
तब केजरीवाल ने 49 दिन की सरकार के लिए माफी मांगी थी - अब क्या बोल कर माफी मांगेंगे? दिल्ली वालों को हल्के में लेना ठीक नहीं, अर्श से फर्श पर बिठाने में उन्हें देर भले हो पर अंधेर नहीं होता.
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