6 दिसंबर एक ऐसी तारीख है जो चाहे-अनचाहे अयोध्या के इतिहास के साथ जुड़ गई है और अब हर वर्ष इस दिन अयोध्या को अनजाने डर को ओढ़ लेना पड़ता है. इसी तारीख को 23 साल पहले यहां स्थित बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था, क्योंकि माना जाता है कि यह मस्जिद उस स्थान पर थी, जोकि हिंदुओं के भगवान श्रीराम का जन्म स्थान है.
रामजन्म भूमि का यह विवाद पिछले कई सौ वर्षों से अयोध्या को बेचैन करता आया है. हिंदू और मुस्लिम दोनों ही इस जगह पर अपना दावा जताते रहे हैं. लेकिन दो संप्रदायों के बीच का यह विवाद पिछले कुछ दशकों के दौरान बहुत ज्यादा ही उग्र हो गया और मतभेद की खाई इतनी चौड़ी हो गई कि आज भी हर वर्ष 6 दिसंबर को यह स्पष्ट हो उठती है. लेकिन एकदूसरे के प्रति इतनी दूरियां क्या खुद ही पैदा हो गईं.
तो जवाब है, नहीं. बल्कि ये दूरियां बड़े ही शातिराना ढंग से पैदा की गईं. इसके पीछे सत्ता और राजनीति का खेल खेलने वाले नेता और धर्म के स्वयंभू ठेकेदार जिम्मेदार हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो आखिर क्या वजह है राम मंदिर के नाम पर राजनीति करके जो पार्टियां सत्ता की बुलंदियों पर पहुंच गईं उन्होंने कभी राम की नगरी के विकास की ओर ध्यान ही नहीं दिया?
आखिर क्यों राम मंदिर के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाली पार्टियां इसके विकास के लिए कुछ नहीं कर पाईं या किया ही नहीं. राम की नगरी आज भी बेहद खराब हालत में है लेकिन इसके विकास के लिए और इसे बेहतर बनाने के लिए कुछ नहीं किया गया. जो भी पार्टियां या नेता खुद को हिंदुत्व का सबसे बड़ा हिमायती बताते हैं और लोगों से राम मंदिर के नाम पर जान देने का आह्वान करते हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि बाबरी मस्जिद ढहाने में जान देने वाले लोग आम नागरिक ही क्यों थे और क्यों आज तक किसी हिंदूवादी संगठन या किसी राजनीतिक दल के किसी बड़े नेता ने राम मंदिर के मुद्दे पर अपने प्राणों की आहुति नहीं दी?
बीजेपी राम मंदिर के बल पर चमकी और अयोध्या को भूलीः
इसका सबसे ज्यादा दोष अगर किसी पार्टी को दिया जा सकता है...
6 दिसंबर एक ऐसी तारीख है जो चाहे-अनचाहे अयोध्या के इतिहास के साथ जुड़ गई है और अब हर वर्ष इस दिन अयोध्या को अनजाने डर को ओढ़ लेना पड़ता है. इसी तारीख को 23 साल पहले यहां स्थित बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था, क्योंकि माना जाता है कि यह मस्जिद उस स्थान पर थी, जोकि हिंदुओं के भगवान श्रीराम का जन्म स्थान है.
रामजन्म भूमि का यह विवाद पिछले कई सौ वर्षों से अयोध्या को बेचैन करता आया है. हिंदू और मुस्लिम दोनों ही इस जगह पर अपना दावा जताते रहे हैं. लेकिन दो संप्रदायों के बीच का यह विवाद पिछले कुछ दशकों के दौरान बहुत ज्यादा ही उग्र हो गया और मतभेद की खाई इतनी चौड़ी हो गई कि आज भी हर वर्ष 6 दिसंबर को यह स्पष्ट हो उठती है. लेकिन एकदूसरे के प्रति इतनी दूरियां क्या खुद ही पैदा हो गईं.
तो जवाब है, नहीं. बल्कि ये दूरियां बड़े ही शातिराना ढंग से पैदा की गईं. इसके पीछे सत्ता और राजनीति का खेल खेलने वाले नेता और धर्म के स्वयंभू ठेकेदार जिम्मेदार हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो आखिर क्या वजह है राम मंदिर के नाम पर राजनीति करके जो पार्टियां सत्ता की बुलंदियों पर पहुंच गईं उन्होंने कभी राम की नगरी के विकास की ओर ध्यान ही नहीं दिया?
आखिर क्यों राम मंदिर के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाली पार्टियां इसके विकास के लिए कुछ नहीं कर पाईं या किया ही नहीं. राम की नगरी आज भी बेहद खराब हालत में है लेकिन इसके विकास के लिए और इसे बेहतर बनाने के लिए कुछ नहीं किया गया. जो भी पार्टियां या नेता खुद को हिंदुत्व का सबसे बड़ा हिमायती बताते हैं और लोगों से राम मंदिर के नाम पर जान देने का आह्वान करते हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि बाबरी मस्जिद ढहाने में जान देने वाले लोग आम नागरिक ही क्यों थे और क्यों आज तक किसी हिंदूवादी संगठन या किसी राजनीतिक दल के किसी बड़े नेता ने राम मंदिर के मुद्दे पर अपने प्राणों की आहुति नहीं दी?
बीजेपी राम मंदिर के बल पर चमकी और अयोध्या को भूलीः
इसका सबसे ज्यादा दोष अगर किसी पार्टी को दिया जा सकता है तो वह है बीजेपी. इसका कारण यह है कि इसी पार्टी के नेताओं ने आरआएसएस और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों के साथ मिलकर इस मुद्दे पर सबसे ज्यादा शोर मचाया. नतीजा सैकड़ों कारसेवकों ने अपने प्राणों की आहुति देकर बाबरी मस्जिद को ढहा दिया और खुद को हिंदुत्व की हिमायती पार्टी साबित करके बीजेपी 2 सीटों की पार्टी से 200 सीटों वाली पार्टी बनी, सत्ता में आई, फिर बहुमत के साथ भी आई. लेकिन पार्टी ने इस मुद्दे को बड़ी चालाकी के साथ सिर्फ वोट बैंक के लिए इस्तेमाल किया. खैर, आम लोगों को शिकायत राम मंदिर के निर्माण न होने से ज्यादा इस बात को लेकर है कि राम की नगरी के विकास के लिए किसी भी पार्टी ने आज तक कोई कदम क्यों नहीं उठाया. समाजवादी पार्टी से लेकर कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी तक हर पार्टी यहां वोट की राजनीति करने से कभी नहीं चूकीं लेकिन किसी ने भी इसके विकास के लिए कोई कदम उठाने की कोशिश नहीं की.
अयोध्या की हालत निराश करती हैः
कहने को तो अयोध्या हिंदुओं के सात सबसे पवित्र शहरों में से एक है. लेकिन जैसे ही आप अयोध्या रेलवे स्टेशन पर उतरेंगे आपके मन में रही इसकी हर चमकदार कल्पना काफूर हो जाएगी. बेबद ही जर्जर हालत और गंदगी से भरा हुआ या स्टेशन इस शहर की बदहाली की बानगी दे देता है. अयोध्या में न तो इंडस्ट्रीज हैं और न ही अच्छे शैक्षणिक संस्थान. साकेत डिग्री कॉलेज के नाम पर एकमात्र ढंग का डिग्री कॉलेज है. जो छात्रों के बोझ से इस कदर दबा हुआ कि शिक्षा व्यवस्था का भगवान ही मालिक है.
इतना ही नहीं मंदिरों के इस शहर में गंदगी और अव्यवस्था का इस कदर बोलबाला है कि पर्यटक छोड़िए स्थानीय नागरिक भी शर्मा जाएं. चर्चित हनुमान गढ़ी मंदिर, जहां अब भी हर हफ्ते हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं, की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है. लोगों को अच्छी शिक्षा और रोजगार के लिए बड़े शहरों की ओर पलायन करना पड़ता है. इसलिए यहां के लोगों की जरूरत विकास और रोजगार है न कि मंदिर निर्माण. कुल मिलाकर अयोध्या की हालत देखकर निराशा होती है. जो शहर पूरी दुनिया में चर्चित हो उसकी ऐसी हालत हैरान करती है! धर्म के नाम पर राजनीतिक दलों ने इस शहर के लोगों को जमकर बेवकूफ बनाया है और अब भी बना रहे हैं. काश कि राम मंदिर के लिए लड़ने वाले राम की नगरी की भी सुध लेते!
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