मेरे एक मित्र हैं गुप्ता जी. जो पिछले 15 सालों से हर साल एक फुटबाल टूर्नामेंट आयोजित करवाते हैं. कमाल की बात है एक टीम लगातार 15 सालों से ये मैच जीतती आ रही है. खैर इस बार टूर्नामेंट देखने मैं भी पहुंचा. पता चला इस मैच के सभी नियम गुप्ता जी खुद ही बनाते हैं. मैच के रेफरी भी वो खुद हैं और पिछले 15 सालों से जो टीम जीतती आ रही है वो टीम भी गुप्ता जी की है. वाजिब सी बात है नियम कानून, आयोजन, रेफरी और टीम सब कुछ गुप्ता जी की है तो जीत हर हालत में गुप्ता जी की ही होगी. मगर सवाल प्रतिद्वंदी टीम का है आखिर वो क्यों खेल रहे हैं? महज़ खानापूर्ती के लिए, दर्शकों के मनोरंजन के लिए या फिर सिर्फ हार जाने के लिए? इन सबके बीच बात उन भोले भाले दर्शकों की भी जिनके लिए फिक्स्ड मैच देखने उनकी नियति है. बात अजीब है, मगर सोचने वाली है.
ऐसी घटनाएं हमें अपने आसपास अक्सर देखने को मिलती हैं. लोकतांत्रिक देशों में सरकारों का गठन होता है देश को सही तरीके से चलाने के लिए. अक्सर सरकार अपने कर्तव्यों का निर्वाह करती भी है लेकिन सही नीतियों के अभाव में अक्सर ऐसे योजनाओं या कानूनों का अनुपालन होता है जो किसी भी प्रकार से युक्तिसंगत नही होती. अक्सर कहा जाता है सरकारों का काम ब्रेड बटर बनाना या बेचना नहीं है. आदर्श रूप में सरकारों से हम निष्पक्ष नीति निर्माता या निगरानी संस्थान के रूप में देखना पसंद करते हैं. आजादी को 69 साल से अधिक का समय हो गया है इस दौरान सरकारों ने तमाम तरह के उपाय किए गरीबी अशिक्षा और बेरोजगारी को रोकने के लिए, लेकिन उनके प्रयासों में कितनी सफलता मिली ये बात किसी से छुपी नहीं है.
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लंबे समय...
मेरे एक मित्र हैं गुप्ता जी. जो पिछले 15 सालों से हर साल एक फुटबाल टूर्नामेंट आयोजित करवाते हैं. कमाल की बात है एक टीम लगातार 15 सालों से ये मैच जीतती आ रही है. खैर इस बार टूर्नामेंट देखने मैं भी पहुंचा. पता चला इस मैच के सभी नियम गुप्ता जी खुद ही बनाते हैं. मैच के रेफरी भी वो खुद हैं और पिछले 15 सालों से जो टीम जीतती आ रही है वो टीम भी गुप्ता जी की है. वाजिब सी बात है नियम कानून, आयोजन, रेफरी और टीम सब कुछ गुप्ता जी की है तो जीत हर हालत में गुप्ता जी की ही होगी. मगर सवाल प्रतिद्वंदी टीम का है आखिर वो क्यों खेल रहे हैं? महज़ खानापूर्ती के लिए, दर्शकों के मनोरंजन के लिए या फिर सिर्फ हार जाने के लिए? इन सबके बीच बात उन भोले भाले दर्शकों की भी जिनके लिए फिक्स्ड मैच देखने उनकी नियति है. बात अजीब है, मगर सोचने वाली है.
ऐसी घटनाएं हमें अपने आसपास अक्सर देखने को मिलती हैं. लोकतांत्रिक देशों में सरकारों का गठन होता है देश को सही तरीके से चलाने के लिए. अक्सर सरकार अपने कर्तव्यों का निर्वाह करती भी है लेकिन सही नीतियों के अभाव में अक्सर ऐसे योजनाओं या कानूनों का अनुपालन होता है जो किसी भी प्रकार से युक्तिसंगत नही होती. अक्सर कहा जाता है सरकारों का काम ब्रेड बटर बनाना या बेचना नहीं है. आदर्श रूप में सरकारों से हम निष्पक्ष नीति निर्माता या निगरानी संस्थान के रूप में देखना पसंद करते हैं. आजादी को 69 साल से अधिक का समय हो गया है इस दौरान सरकारों ने तमाम तरह के उपाय किए गरीबी अशिक्षा और बेरोजगारी को रोकने के लिए, लेकिन उनके प्रयासों में कितनी सफलता मिली ये बात किसी से छुपी नहीं है.
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लंबे समय तक स्कूल, एयरलाइन, बीमा, डाक, आवास, बैंकिंग, गैस और अन्य क्षेत्रों में सरकार का वर्चस्व रहा अभी भी इनमें से अधिकांश क्षेत्रों में सरकार की दखलंदाजी है. याद कीजिये 90 का दशक जब सरकार ब्रेड निर्माण में भी सक्रिय थी. क्या सरकारीकरण से लोगों की समस्याओं का हल निकल पाया. लोगों को समस्याओं से निजात मिली?
सरकारी महकमें खस्ताहाल |
उदारीकरण, बाजारवाद की संभावनाओं के बीच, एक जमाने में टेलीफोन के कनेक्शन के लिये या सकूटर बुक करने के लिये मंत्री से संत्री तक की सिफारिश लगानी पड़ती थी तब जाकर सालों का काम महीनों में होता था. गैस और ऐसे अन्य सेवाओं का भी कमोबेश यही हाल हुआ करता था. लेकिन क्या आज भी ऐसा होता है? शायद आज के टीनएज और युवा इन सब बातों पर यकीन न करें, लेकिन ये हमारा भूतकाल रहा है जहां हर चीज के लिए लाइन में लगना जरूरी था. लेकिन सच मानिए सरकार ने जिस किसी भी क्षेत्र में कदम रखा वहां बेडा गर्क ही हुआ है. आज चुटकियो में गैस, मोबाइल कनेक्शन, चंद सेकेंड में पसंदीदा गाडी, अच्छा स्कूल, अच्छा स्वास्थ्य अच्छा होटल कुछ भी आप ले सकते हैं.
मुझे आज भी याद है डेढ़ दशक पहले तक दिल्ली के महिपालपुर में एयरपोर्ट के पास सरकारी नियंत्रण में सेंटूर होटल हुआ करता था जिसकी इतनी दुर्दशा हुई की सरकार को आखिरकार उसको बेचना पड़ा. सरकारी क्षेत्र की दूरभाष कंपनी बीएसएनएल की दुर्गति और सेवाओं के बारे में बताने की जरूरत नही है. आज ये सफेद हाथी से अधिक कुछ नहीं जिसपर आम जनता की मेहनत की कमाई से जुटाए टेक्स को बर्बाद किया जाता है और उसपर तुर्रा ये है कि इसके उपभोक्ता सबसे ज्यादा दुखी हैं.
विमानन कंपनी एयर इंडिया पर हर साल सैकड़ों करोडों रुपये की बर्बादी होती है. उसका घाटा पूरा करने के लिए कभी सब्सिडी तो कभी छूट दी जातीं हैं. जबकि ज्यादातर सरकारी मंत्रालयों को इसी से यात्रा करने के निर्देश हैं फिर भी इसका घाटा सुरसा की तरह मुंह बाये खड़ी रहता है. यात्रियों का फीडबैक लें तो ज्यादातर यात्री इसके सरकारी रवैये को लेकर परेशान हैं. आज से 10 साल पहले तक इसका किराया बहुत अधिक हुआ करता था लेकिन जब से इसके प्रतियोगिता में निजी विमानन कंपनियां आई हैं वो बहुत कम दाम पर भी बेहतर सेवा देने का वादा करते हैं.
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अब बात अगर स्कूलों की न की जाए तो शायद ये पूरी बहस ही बेमानी है. शिक्षा राज्य और केंद्र दोनों की सूची का हिस्सा है यानी समवर्ती सूची का हिस्सा है. सन 1976 से पहले ये पूरी तरह से राज्यों का दायित्व था लेकिन 1976 के संविधान संशोधन के द्वारा इसको समवर्ती सूची में डाला गया जिसका लक्षय था 100 प्रतिशत शिक्षा का प्रसार. आज हर बच्चे पर लगभग 5 हजार से ज्यादा रुपये सरकार द्वारा प्रतिमाह खर्च किए जा रहे हैं. भारत में 23 करोड़ से ज्यादा विद्यार्थी लगभग 13 लाख से ज्यादा स्कूलों में जा रहे है अंतराष्ट्रीय स्तर पर ये संख्या सबसे अधिक है. सरकारी स्कूलों में वो सब सुविधाएं हैं जो शिक्षा के अधिकार कानून के तहत तय हुई हैं. बिल्डिंग, स्पोर्ट्स ग्राउंड, लाइब्रेरी, कहीं कहीं स्विमिंग पूल भी नहीं, है तो सिर्फ योग्य शिक्षक और अच्छी पढाई.
सरकार सरकारी स्कूलों की बीमार शिक्षा को ठीक नहीं कर पाई |
बड़े प्राइवेट स्कूल्स में भी ये सभी सुविधाएं है साथ ही पढाई भी अच्छी है सिर्फ फीस महंगी है. इसके विपरीत कम बजट वाले स्कूलों में अन्य सभी सुविधाएं न के बराबर हैं, लेकिन पढाई के मामले में सरकारी स्कूलों से बेहतर है यही वजह है 45 प्रतिशत से ज्यादा विद्यार्थीयो का नामांकन उसमें हैं. लेकिन आरटीई के नियम बजट स्कूलों के खिलाफ हैं यानी सरकार सरकारी स्कूलों की बीमार शिक्षा को ठीक नहीं कर पाई तो बजट स्कूलों पर ही कैंची चला दी. दूसरी तरफ बड़े पब्लिक स्कूलों में 25 प्रतिशत कमजोर आर्थिक तबके को आरक्षण देकर उनकी फीस का भार भी 75 प्रतिशत सामान्य बच्चो के कंधों पर डाल कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली.
सोचिए ऐसा क्यों हुआ क्योंकि सरकार के पास सभी संसाधन हैं, उनको नियम कानूनों के पचड़े में पड़ना नहीं है पैसो की तंगी नहीं है लेकिन कोई भी पब्लिक स्कूल तिनका तिनका संसाधन जुटाकर बनता है फिर उसे सरकारी एजेंसियों से अप्रूवल भी लेनी होगी जो इतना आसान नहीं है. पब्लिक स्कूल की सबसे बड़ी ताकत अभिभावकों का विश्वास होता है जो उसे बल देता है. ऐसे कितने सरकारी स्कूल हैं जिनसे अभिभावक संतुष्ट हों, शायद गिने चुने या फिर केंद्रीय विद्यालय जैसे संस्थान जहां सरकार की मनमानी सीमित है इसलिए वहां गुणवत्ता प्रभावित नहीं होती. सरकार शिक्षा के लिए नीति भी बनाती है निगरानी भी करती है और उसी के स्कूल भी है शायद इसिलिए शिक्षा हाशिये पर है क्योंकि आप दूसरे स्कूलों के पनपने में कहीं न कहीं जाने अनजाने अवरोधक का काम कर रहे हैं. सरकारी स्कूल हो या नहीं हो ये अलग बहस का मुद्दा हो सकता है मगर आपको पब्लिक स्कूलों के विकास में बाधक भी नहीं बनना है, ये सुनिश्चित करना होगा क्योंकि 45 प्रतिशत से ज्यादा विद्यार्थियों का भविष्य इससे जुड़ा हुआ है. ये वो छात्र हैं जो मिड डे मील, साइकिल या मुफ्त किताबों या बस्ते के लिए नहीं आते. उनका लक्ष्य सिर्फ गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा ग्रहण करना है.
पिछले दो दशको में देखिए जहां-जहां निजी क्षेत्र ने कदम बढाए हैं लोगो की परेशानियां कम हुई हैं, उनकी ज़िंदगी बेहतर हुई है सेवाएं उनको घर बैठे बैठे मिल रही हैं और वो पूरी तरह संतुष्ट हैं. बीमा, निर्माण क्षेत्र, आवास, बैंक, दूरसंचार, मनोरंजन कहीं भी नजर दौड़ा लीजिये. हालांकि अभी इस दायरे को और अधिक बढ़ाने की जरूरत है, निजी क्षेत्र की अपार संभावनाओं को तलाशने की जरूरत है. लेकिन ये तभी संम्भव है जब सरकार निष्पक्षतापूर्ण ढंग से व्यवहार करे नीति निर्माता बने नियामक संस्थान की हैसियत से निगरानी भी करे, लेकिन खुद इसका हिस्सा न बने. सड़क, रेल, आधारभूत सरंचना के निर्माण में पी पी पी यानि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की शुरुआत हो चुकी है लेकिन ये सफर अभी मिलो लंबा तय करना बाकी है.
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