अजहरूद्दीन को क्रिकेट का वंडरबॉय कहा जाता रहा. प्रशांत किशोर को भी पॉलिटिक्स का वंडरबॉय ही माना जा रहा है. फिलहाल प्रशांत किशोर हैट्रिक के मुहाने पर खड़े हैं. बीजेपी और जेडीयू को प्रशांत के जरिये कामयाबी मिलने के बाद अब कांग्रेस ने उन्हें चुनावी मुहिम की कमान सौंपी है.
पंजाब में जहां कैप्टन अमरिंदर की साख दांव पर है तो यूपी में कांग्रेस के अस्तित्व की ही लड़ाई है.
कांग्रेस की जरूरत
प्रशांत किशोर को चुनावी मुहिम सौंप कर कांग्रेस ने एक तरह से भूल सुधार किया है. नरेंद्र मोदी से पहले प्रशांत ने राहुल गांधी को ही प्रजेंटेशन दिया था लेकिन उन्हें बहुत मजा नहीं आया. हालांकि, राहुल के एक छोटे प्रोजेक्ट के लिए प्रशांत काम कर चुके थे. जब मोदी को 2014 के लोक सभा में कामयाबी मिली तो नीतीश ने उन्हें लपक लिया. जब नीतीश भी सफल हो गये फिर तो हर कोई प्रशांत की सेवाएं लेने के लिए दौड़ पड़ा - यहां तक की ममता बनर्जी की ओर से भी कोशिशें हुईं.
चुनाव तो इस साल भी पांच विधानसभाओं में हो रहे हैं, लेकिन कांग्रेस का फोकस अगले साले होने जा रहे पंजाब और यूपी चुनावों पर ज्यादा है. प्रशांत ने काम करना भी शुरू कर दिया है - लेकिन उन्हें समझना होगा कि दोनों राज्यों की परिस्थितियां बिलकुल अलग हैं - और बिहार से तो बिलकुल ही अलग.
पंजाब में कौन
पंजाब में प्रकाश सिंह बादल की सरकार है जिसे बीजेपी का सपोर्ट हासिल है - और बादल के बेटे सुखबीर सिंह बादल डिप्टी सीएम हैं.
कांग्रेस को 2007 में सत्ता से बेदखल करने के बाद बादल ने 2012 में सत्ता में दोबारा वापसी की. दूसरी हार के बाद कांग्रेस ने सूबे की कमान प्रताप सिंह बाजवा को सौंपी थी. बाजवा राहुल गांधी की पसंद थे, लेकिन बागी तेवर अपना कर कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कमान अपने हाथ में ले ली. कैप्टन ने ही पहले प्रशांत किशोर को अपने चुनाव अभियान के लिए राजी भी किया.
कभी आतंकवाद के जाल में फंसे पंजाब में हाल फिलहाल ही दो-दो आतंकवादी हमले हो चुके...
अजहरूद्दीन को क्रिकेट का वंडरबॉय कहा जाता रहा. प्रशांत किशोर को भी पॉलिटिक्स का वंडरबॉय ही माना जा रहा है. फिलहाल प्रशांत किशोर हैट्रिक के मुहाने पर खड़े हैं. बीजेपी और जेडीयू को प्रशांत के जरिये कामयाबी मिलने के बाद अब कांग्रेस ने उन्हें चुनावी मुहिम की कमान सौंपी है.
पंजाब में जहां कैप्टन अमरिंदर की साख दांव पर है तो यूपी में कांग्रेस के अस्तित्व की ही लड़ाई है.
कांग्रेस की जरूरत
प्रशांत किशोर को चुनावी मुहिम सौंप कर कांग्रेस ने एक तरह से भूल सुधार किया है. नरेंद्र मोदी से पहले प्रशांत ने राहुल गांधी को ही प्रजेंटेशन दिया था लेकिन उन्हें बहुत मजा नहीं आया. हालांकि, राहुल के एक छोटे प्रोजेक्ट के लिए प्रशांत काम कर चुके थे. जब मोदी को 2014 के लोक सभा में कामयाबी मिली तो नीतीश ने उन्हें लपक लिया. जब नीतीश भी सफल हो गये फिर तो हर कोई प्रशांत की सेवाएं लेने के लिए दौड़ पड़ा - यहां तक की ममता बनर्जी की ओर से भी कोशिशें हुईं.
चुनाव तो इस साल भी पांच विधानसभाओं में हो रहे हैं, लेकिन कांग्रेस का फोकस अगले साले होने जा रहे पंजाब और यूपी चुनावों पर ज्यादा है. प्रशांत ने काम करना भी शुरू कर दिया है - लेकिन उन्हें समझना होगा कि दोनों राज्यों की परिस्थितियां बिलकुल अलग हैं - और बिहार से तो बिलकुल ही अलग.
पंजाब में कौन
पंजाब में प्रकाश सिंह बादल की सरकार है जिसे बीजेपी का सपोर्ट हासिल है - और बादल के बेटे सुखबीर सिंह बादल डिप्टी सीएम हैं.
कांग्रेस को 2007 में सत्ता से बेदखल करने के बाद बादल ने 2012 में सत्ता में दोबारा वापसी की. दूसरी हार के बाद कांग्रेस ने सूबे की कमान प्रताप सिंह बाजवा को सौंपी थी. बाजवा राहुल गांधी की पसंद थे, लेकिन बागी तेवर अपना कर कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कमान अपने हाथ में ले ली. कैप्टन ने ही पहले प्रशांत किशोर को अपने चुनाव अभियान के लिए राजी भी किया.
कभी आतंकवाद के जाल में फंसे पंजाब में हाल फिलहाल ही दो-दो आतंकवादी हमले हो चुके हैं - ड्रग्स, किसानों की बदलहाली और भ्रष्टाचार के मामले अक्सर सुर्खियों का हिस्सा बनते रहे हैं.
ऐसे में एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर खास अहमियत रखता है. लेकिन ऐसा भी नहीं है कांग्रेस पंजाब में वैसी दावेदार है जैसा यूपी में मायावती हैं. कांग्रेस बस मौजूदा शासन के सामने विकल्प के रूप में खड़ी है.
मगर पंजाब के लोगों के सामने सिर्फ कांग्रेस ही नहीं एक और विकल्प आम आदमी पार्टी भी है. इस तरह कैप्टन की सत्ता वापसी की राह में सबसे बड़ी बाधा शिरोमणि अकाली दल या बीजेपी नहीं बल्कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी आप है.
आप ने अभी तक अपनी ओर से कोई चेहरा प्रोजेक्ट नहीं किया है, लेकिन अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि वक्त आने पर उसकी भी घोषणा कर दी जाएगी.
यूपी में क्या
अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि वो पंजाब पर ही फोकस करेंगे क्योंकि यूपी के लिए उनके पास बैंडविद नहीं है. यूपी बीजेपी के लिए भी सबसे अहम है. लोक सभा में बीजेपी को यूपी में अरसे बाद वैसे कामयाबी मिल पाई थी. ऊपर से प्रधानमंत्री मोदी भी यूपी से ही लोक सभा में पहुंचे हैं.
यूपी में फिलहाल अखिलेश यादव की सरकार है. पहले तो हर मामले में मुलायम सिंह की ही भूमिका नजर आती थी, लेकिन अब तो चुनावी स्लोगन भी अखिलेश के नाम से बनाया गया है.
मायावती यूपी खुद को यूपी सीएम की कुर्सी की नैसर्गिक दावेदार तो मानती ही हैं - पंचायत चुनावों में मिली कामयाबी ने उनकी पार्टी बीएसपी का मनोबल और बढ़ा दिया है.
समाजवादी पार्टी, बीजेपी और बीएसपी के बाद कांग्रेस यूपी में सबसे निचले पायदान पर है. बिहार में मिली छोटी सी सफलता ने कांग्रेस का मन बड़ा कर दिया है. ऐसे में कांग्रेस भी जगह पक्की करने में जुट गयी है.
प्रशांत किशोर की सेवा लेने के साथ चर्चा ये भी है कि अब प्रियंका गांधी भी बड़े रोल में आने वाली हैं. अब तक वो रायबरेली और अमेठी तक सिमटी रहती थीं, लेकिन अब उनका दायरा पूरे यूपी तक फैलने के संकेत मिल रहे हैं. वैसे इस तरह के संकेत तब भी समझे गये थे जब कांग्रेस ने मोदी के खिलाफ वाराणसी से अजय राय को मैदान में उतारा था. अजय राय को टिकट दिये जाने के बाद प्रियंका ने खुद उनसे किसी तरह की जरूरत होने पर संपर्क करने की बात कही थी. माना जाने लगा कि प्रियंका भी शायद चुनाव प्रचार के लिए बनारस पहुंचें, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. इस तरह यूपी में प्रियंका की संभावित सक्रियता के बारे में अभी सिर्फ कयास लगाए जा सकते हैं.
पंजाब में तो साफ है कि कैप्टन मैदान में हैं लेकिन यूपी में कांग्रेस का चेहरा कौन होगा अभी तो कुछ भी साफ नहीं है. बिहार में गच्चा खाने के बाद बीजेपी ने असम में सर्वानंद सोनवाल को सीएम कैंडीडेट बनाया है - इसलिए लगता है यूपी में भी बीजेपी वैसा ही करेगी.
ताजा चर्चा तो यही है कि यूपी में बीजेपी का चेहरा स्मृति ईरानी भी हो सकती हैं - और संसद में उनकी ताजा सक्रियता उसी बात की आहट है. इससे पहले राजनाथ सिंह का नाम भी उनके समर्थकों की ओर से उछाला जा चुका है. बीजेपी को लेकर यूपी और बिहार में यही बात कॉमन है कि राज्य स्तर पर नेता तो बहुत हैं लेकिन किसी एक के नाम पर आम राय बनना ही मुश्किल है.
कांग्रेस को फिर से खड़ा कर पाने में प्रशांत किशोर कितने कामयाब हो पाएंगे अभी ये कहना मुश्किल होगा. लेकिन जिस तरह से राहुल गांधी ने फेयर एंड लवली पॉलिटिक्स शुरू की है, लगता तो ऐसा ही है कि उनके भाषणों में पीके मसाले जरूर डाले जा रहे हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.